Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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श्रावक-जीवन की भूमिका में आने के पूर्व की भूमिका की चारित्रिक-निर्मलता लाने के लिए मार्गानुसारी के 35 गुणों का विशद वर्णन किया है।
___ आचार्य हरिभद्र की इस कृति का उद्देश्य स्पष्ट प्रतीत होता है कि श्रावक नैतिक-जीवन व प्रामाणिक-जीवन जीता हुआ आध्यात्मिक-जीवन में प्रवेश करे। प्रस्तुत कृति पर मुनिचन्द्र की टीका भी है। योगबिन्दु
प्रस्तुत रचना आचार्य हरिभद्र की है। यह कृति अनुष्टुप-छन्द में है। इसकी भाषा संस्कृत तथा श्लोंकों की संख्या 527 है। प्रस्तुत ग्रन्थ योग से सम्बन्धित है। ग्रन्थकार ने इसमें जैन-योग के विस्तृत विश्लेषण के साथ अन्य परम्परासम्मत योगों का समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक वर्णन किया है।
आचार्य हरिभद्र ने योग के अधिकारियों के दो प्रकारों की चर्चा की है। वे दो प्रकार हैं-1. चरमावृत्तवृत्ति 2. अचरमावृत्तवृत्ति, परन्तु आचार्य हरिभद्र ने मोक्ष का अधिकारी चरमावृत्तवृत्ति वाले जीव को ही बताया है तथा अचर चरमावृत्तवृत्ति वाले जीव के लिए निर्देश किया है कि ऐसे जीव चरमावृत्त में आए बिना मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं, क्योंकि अचरमावृत्त में स्थित जीव मोहभाव की प्रबलता के कारण संसार के पदार्थों से आसक्त बने रहते हैं। पदार्थों में आसक्त होने के कारण आचार्य हरिभद्र ने इनको 'भवाभिनन्दी' के नाम से भी सम्बोधित किया है।
आचार्य हरिभद्र ने योग के अधिकारियों को भी चार विभागों में विभक्त किया है-1. अपुनर्बन्धक 2. सम्यग्दृष्टि 3. देशविरत, 4. सर्वविरत।
इस ग्रन्थ में इन चारों का प्रतिपादन विस्तृत रूप से किया गया है।
आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत ग्रन्थ में कई विषयों पर विस्तार से चर्चा की है, जैसे- योग का प्रभाव, योग की पूर्व भूमिका के रूप में पूर्वसेवा, पाँच प्रकार के अनुष्ठान, सम्यक्त्व, विरति, मोक्ष, समभाव, आत्मा का स्वरूप आदि।
व्यक्ति के आध्यात्मिक-विकास का उल्लेख करते हुए आचार्य हरिभद्र ने अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता एवं वृत्तिसंक्षय। इन पाँच भूमिकाओं की पातंजलि वर्णित सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि से तुलना की है। योगाधिकार प्राप्त के सन्दर्भ में पूर्वसेवा के रूप में विविध आचार-व्यवस्था का विवरण दिया है। इसमें विविध प्रकार के यौगिक-अनुष्ठानों का निरूपण भी किया गया है, जो निम्न है
1. विषानुष्ठान 2. गरलानुष्ठान 3. अनानुष्ठान 4. तहेतु-अनुष्ठान 5. अमृतानुष्ठान। इसमें प्रथम तीन असद् अनुष्ठान हैं व शेष दो सद् अनुष्ठान हैं।
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