________________
जब जीव एक योनि से मरण, च्यवन, उद्वर्तन करके अन्य योनि में जाता है तब जाने के पथ में जितने समय लगते हैं उतने समय में वह सलेशी होता है। मरण के समय जीव द्रन्यलेश्या के जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है उसी लेश्या में जाकर जन्म-उत्पाद करता है और तदनुरूप ही उसकी भावलेश्या होती है। इस अंतराल गति में सम्भवतः वह द्रव्यलेश्या के नये पुद्गलों को ग्रहण नहीं करता है लेकिन मरण- च्यवन के समय द्रव्यलेश्या के जिन पुद्गलों का ग्रहण किया था, वे अवश्य ही उसके साथ में रहते हैं। ____एक समय दर्शन चर्चा का था जब पथ, घाट गोष्ठी आदि में सर्वत्र दर्शन चर्चा होती थी जैसे कि आज राजनीति और देश चर्चा होती है। उस समय जीव के अच्छे-बुरे विचारों
और परिणामों को वर्गों में वर्णित किया जाता था। कलुष विचारों के लिये कालिमामय वर्ण जैसे कृष्ण-नील-कापोतादि का उपयोग किया जाता था तथा प्रशस्त विचारों के लिए शुभ वर्ण जेसे रक्त-पद्म-शुक्लादि वर्ण का उपयोग किया जाता था। विभिन्न दर्शनों में इस वर्णवाद का किस प्रकार विवेचन किया गया है उसके लिये विषयांकन ६८ देखें। आधुनिक विज्ञान में भी जीव के शरीर से किस वर्ण की आभा निकलती है इसका अनुसंधान हो रहा है यथा उसके तत्कालीन विचारों के साथ वर्णों का तुलनात्मक अध्ययन भी किया जा रहा है।
लेश्याओं का नामकरण वर्गों के आधार पर हुआ है। इस पर यह कल्पना की जा सकती है कि द्रव्यलेश्या के पुद्गल स्कंधों में वर्ण गुण की प्रधानता है। यद्यपि आगमों में द्रव्यलेश्या के गंध-रस-स्पर्श गुणों का भी थोड़ा-बहुत वर्णन है। लेकिन इन तीन गुणों से वर्ण गुण का प्राधान्य अधिक है। जिस प्रकार वस्त्र आदि रंगनेवाले पदार्थों में वर्ण गुण की
पानता होती है उसी प्रकार अपने सान्निध्य मात्र से आत्मपरिणामों को प्रभावित करनेवाले द्रव्लेश्या के पुद्गलों में वर्ण गुण की प्रमुखता होती है। जिस प्रकार स्फटिक मणि पिरोये हुए सूत्र के वर्ण को प्रतिभासित करता है उसी प्रकार द्रव्यलेश्या अपने वर्ण के अनुसार आत्म परिणामों को प्रभावित करती है।
प्राचीन आचार्यों की यह धारणा रही है कि देह-वर्ण ही द्रव्यलेश्या है। विशेष करके नारकी और देवताओं की द्रव्यलेश्या-उनके शरीर का वर्ण रूप ही है। दिगम्बर जैनाचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवतीं लेश्या की परिभाषा शरीर के वर्ण के आधार पर ही करते हैं।
'वण्णोदयसंपादितसरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा।' अर्थात् वर्ण नाम कर्म के उदय से जो शरीर का वर्ण (रंग) होता है उसको द्रव्यलेश्या कहते हैं। यह परिभाषा ठीक नहीं है। मनुष्यों में गोरी चमड़ी का जीव भी हिटलर की तरह अशुभलेशी हो सकता है। अतः शरीर के वर्ण से लेश्या का कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिये। आगमों में नारकी और देवताओं के शरीर और लेश्या का वर्ण अलग-अलग प्रतिपादित है तथा उनके शरीर के वर्ण और लेश्या के वर्ण में किंचित् अंतर भी है। अतः नारकी और देवताओं के शरीर के वर्ण को ही उनकी लेश्या नहीं कहनी चाहिये।
विषयांकन 'EE१२ तथा १६.१३ में क्रमशः वैमानिक देवों तथा नारकियों के शरीर के वर्ण का तथा उनकी लेश्याओं का वर्णन है जिसका चार्ट भी दिया गया है।
[ 30 ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org