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कातन्त्रव्याकरणम्
[समीक्षा
‘वावश्यते' आदि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में ‘वश्' धातु गत वकार के संप्रसारण का निषेध किया गया है। पाणिनि का सूत्र है – “न वश:'' (अ० ६।१। २०) चेक्रीयित से भिन्न प्रत्ययों में तो संप्रसारण होता ही है - उष्टः, उशन्ति। इस सूत्र पर वृत्ति के अतिरिक्त 'दुर्गवृत्तिटीका, विवरणपञ्जिका' तथा 'कलापचन्द्र' नामक व्याख्या प्राप्त नहीं है।
[रूपसिद्धि]
१. वावश्यते। वश् + य + ते। भृशं वष्टि। ‘वश कान्तौ' (२।३) धातु से क्रियासमभिहार अर्थ में 'धातोर्यशब्दश्चेक्रीयितं क्रियासमभिहारे'' (३। २। १४) सूत्र द्वारा चेक्रीयितसंज्ञक 'य' प्रत्यय, “अहिज्यावयिव्यधिवष्टिव्यचिपच्छिवश्चिभ्रस्जीनामगुणे' (३।४।२) से प्राप्त सम्प्रसारण का प्रकृत सूत्र द्वारा निषेध, “चण्परोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु' (३।३७) से द्वित्व, “पूर्वोऽभ्यासः" (३३४) से पूर्ववर्ती 'वश्' की अभ्याससंज्ञा, "अभ्यासस्यादिर्व्यञ्जनमवशेष्यम्' (३।३।९) से 'व' की रक्षा – श् का लोप, “दीर्घा लघो:'' (३।३।३६) से अभ्यासघटित अकार को दीर्घ, "ते धातवः'' (३। २ । १६) से 'वावश्य' की धातुसंज्ञा तथा “सम्प्रति वर्तमाना'' (३।१।११) के नियमानुसार वर्तमान अर्थ की विवक्षा में “वर्तमाना' (३।१। २४) सूत्र द्वारा आत्मनेपदसंज्ञक प्रथमपुरुषएकवचन 'ते' प्रत्यय।। ५५७।
५५८. प्रच्छादीनां परोक्षायाम् [३। ४। १८] [सूत्रार्थ]
परोक्षाविभक्तिसंज्ञक प्रत्ययों के परवर्ती होने पर 'प्रच्छ्-व्रश्च्–भ्रस्ज्' धातुओं से सम्प्रसारण का निषेध होता है।। ५५८ ।
[दु० वृ०]
प्रच्छिवश्चिभ्रस्जीनां परोक्षायां संप्रसारणं न भवति। पप्रच्छतुः, पप्रच्छुः। ववश्चतुः, वव्रश्चुः। बभ्रज्जतुः, बभ्रज्जुः ।। ५५८।
[दु० टी०]
प्रच्छा०। प्राप्तिपूर्वकत्वात् प्रतिषेधस्य प्रच्छिवश्चिभ्रस्जा गृह्यन्ते इति भावः।। ५५८।
[वि० प०]
प्रच्छा० । प्रतिषेधस्य प्राप्तिपूर्वकत्वाद् ग्रह्यादिसूत्रपठिता एव प्रच्छादयो गृह्यन्ते, न तु गणपठिता इत्याह-प्रच्छिवश्चिभ्रस्जीनामिति। भ्रस्जे: सकारस्य धुटान्तृतीयत्वे "तवर्गश्चटवर्गयोगे चटव!" (२।४।४६) इति जकारः।। ५५८ ।