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तृतीये आख्याताध्याये सप्तमः इडागमादिपादः
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में टीकाकार ने कहा है कि वह तो "स्वरतिसूति ०" (४।६।८३) सूत्र द्वारा ही सिद्ध है, अतः प्रकृत सूत्र में 'स्वृ' धातु नहीं पढ़ी गई है।
[विशेष वचन ]
१. यौतेरुवर्णान्तत्वात् प्रतिषेधे सत्यप्राप्ते विभाषा (दु० टी०)।
२. ऋधिज्ञप्योरीरितौ वक्तव्याविति वचनादीर् अभ्यासलोपश्च (वि० प० ) । ३. धीप्सतीति। इत्यत्र चकारादनामिनोऽपि क्वचिदिति वचनादनुषङ्गलोपः
( वि० प० ) ।
४. ‘सिद्धे सत्यारम्भः' इति न्यायात् ( बि० टी० )|
५. अथवा उत्तरार्थं क्रियमाणं वाग्रहणम्, इह त्वेतदर्थम् (बि० टी०) । [रूपसिद्धि]
१. दिदेविषति, दुद्यूषति । दिव् + इट् + सन् + अन् + ति। देवितुमिच्छति। 'दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यत्रहारद्युतिस्तुतिकान्तिगतिषु' (३।१) धातु से इच्छार्थ में “धातोर्वा तुमन्तादिच्छतिनैककर्तृकात् ' ( ३।२।४) से 'सन्' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से इडागम, द्वित्व, अभ्याससंज्ञा, वकारलोप, धातु की उपधा इकार को गुण, सकार को षकार, 'दिदेविष' की धातुसंज्ञा, 'ति' प्रत्यय, अन् विकरण तथा अकार का लोप ।
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इडभावपक्ष में ‘दिव्' धातु से 'सन्' प्रत्यय, द्विर्वचनादि, 'ति' प्रत्यय, “छ्वोः शूटौ पञ्चमे च' (४|१|५६ ) से 'व' को 'ऊ', इकार को यकार, धातुसंज्ञा, ति-प्रत्यय, अन् विकरण तथा अकार - लोप ।
२. अर्दिधिषति, ईर्त्सति। ऋध् + इट् + सन् + अन् + ति। 'ऋधु वृद्धौ' (३।७९; ४।२०) धातु से 'सन्' प्रत्यय, धातुगत ऋकार को गुण, प्रकृत सूत्र से इडागम, "स्वरादेर्द्वितीयस्य” (३।३।२) से 'धि' को द्वित्व, अभ्याससंज्ञा, अभ्यासगत धकार को ढकार, सकार को षकार, 'अर्दिधिष' की धातुसंज्ञा, ति-प्रत्यय, अन् -विकरण तथा अकार का लोप । इडागम के अभाव में 'ऋधिज्ञप्योरीरितौ वक्तव्यौ' इस वचन से ऋ को ईर् तथा अभ्यासलोप होने पर 'ईर्त्सति' प्रयोग ।
३. बिभ्रज्जिषति, बिभ्रक्षति । भ्रस्ज् + इट् + सन् + अन् + ति। 'भ्रस्ज पाके' (५/४) धातु से सन् प्रत्यय, इडागम, द्विर्वचनादि तथा सकार को जकार। इडागम के अभाव में सकार का लोप, जकार को षकार तथा षकार को ककार, भृजादेश होने पर 'बिभृक्षति' ।
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४. दिदम्भिषति, धिप्सति, धीप्सति । दन्भ् + इट् सन् अन् ति। 'दन्भु दम्भे' (४।१९) से सन्, द्विर्वचनादि । इडभावपक्ष में "दन्भेरिच्च " ( ३ | ३ | ४१ ) से इत्त्वईत्त्व तथा अभ्यासलोप।
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५. शिश्रयिषति, शिश्रीषति । श्रि 1 इट् + सन् + अन् ति। 'श्रिञ् सेवायाम्' (१/६०४) से सन्, द्विर्वचनादि । इडभावपक्ष में "स्वरान्तानां सनि" (३।८।१२) से धातुगत इकार को दीर्घ ।