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तृतीये आख्याताध्यायेऽष्टमो घुडादिपादः
४८५ दुर्गसिंह ने 'सम्प्रसारण' शब्द का उल्लेख करके निरुक्तकार की मान्यता को सूचित किया हो - "अतः परं सम्प्रसारणचिन्ता वर्तिष्यते, तदर्थमिदमारभ्यते - तद् यत्रेत्यादि" (नि० २।२।३-दु० भा०)।
__'सम्प्रसार्यतेऽनेनेति सम्प्रसारणम्' इस व्युत्पत्ति के बल पर इस संज्ञा को अन्वर्थ माना जाता है, क्योंकि अर्धमात्रिक "य-व-र' के स्थान में एकमात्रिक 'इ-उ-ऋ' वर्गों के होने से उनका विस्तार सिद्ध है। महाभाष्यकार ने इसके व्यवहार में भाविपक्ष को स्वीकार किया है । जैसे कोई पुरुष तन्तुवाय-जुलाहे के पास जाकर कहता है कि इन सूत्रों से शाटी = साड़ी बुन दो । यहाँ यह विचारणीय हो जाता है कि यदि इसकी साड़ी यह संज्ञा है तो बुनने की कोई आवश्यकता नहीं और यदि बुना जाना है तो अभी उसे 'साड़ी' नाम से नहीं कह सकते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि कहने वाले के अनुसार सूत्रों को इस प्रकार बुन देना है कि उसे साड़ी कहा जा सके - “यथा कश्चित् कञ्चित् तन्तुवायमाह ----------- संज्ञा भविष्यति' (म० भा० १।१।४५) । सूत्र की व्याख्या वर्ण तथा वाक्य इन दोनों पक्षों में की जाती है । लकार के स्थान में लकार का कोई उदाहरण न होने से तीन वर्गों की ही सम्प्रसारण संज्ञा उचित कही जाऐगी, अत: पाणिनीय 'इक्यण' का उल्लेख समीचीन नहीं कहा जा सकता।
[विशेष वचन १. तकारः सुखानिर्देशार्थः (दु० वृ०)। २. सम्प्रसार्यतेऽनेनेति सम्प्रसारणमवयवार्थों नास्ति । पूर्वाचार्यसंज्ञेयम् ।।८५३। ८५४. अर् पूर्वे द्वे सन्ध्यक्षरे च गुणः [३।८।३४] [सूत्रार्थ
'अर्' तथा सन्ध्यक्षरसंज्ञक ‘ए-ओ-ऐ-औ' इन चार वर्षों में से पूर्ववर्ती दो 'ए-ओ' वर्णों की वृद्धिसंज्ञा होती है ।।८५४।
[दु० वृ०]
अर् पूर्वे द्वे सन्ध्यक्षरे च “गुणः' इति सञ्जिते । एकं पूर्वमैकारमपेक्ष्यापरं चौकारमपेक्ष्य इति । गुणप्रदेशा: - "नाम्यन्तयोर्षातुविकरणयोर्गुणः" (३।५।१) इत्येवमादयः ।।८५४।
[दु० टी०]
अ० । एकमित्यादि । द्विवचनसनिधानात् पूर्वशब्दद्वयम् । तच्च परापेक्षया भवतीति भाव: । द्विग्रहणं स्पष्टार्थम् । किमियं सप्तमी । प्रथमा द्विवचनं वेति बाला विप्रतिपद्यन्ते ॥८५४॥
[वि० प०]
अर्० । ननु पूर्व द्वे सन्ध्यक्षरे चेत्युच्यमाने एकारैकारयोरेव कथं गुणसंज्ञा न स्यादित्याह – एकमित्यादि । द्विशब्दसन्निधानादिह पूर्वशब्दद्वयं वेदितव्यम् । अतो नोक्तदोषप्रसङ्ग इति, अत एव द्विग्रहणम्, अन्यथेयं सप्तमीत्यपि बाल: संशयितो भवेदिति ।।८५४।