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कातन्त्रव्याकरणम्
[समीक्षा]
‘आयन्, अध्यायन्’ इत्यादि प्रयोगों के सिद्ध्यर्थ आदि में आकार की उपस्थिति आवश्यक होती है, जिसकी व्यवस्था दोनों ही आचार्यों ने की है । अन्तर यह है कि पाणिनि आट् आगम, वृद्धि तथा आय् “आडजादीनाम्, आटश्च, एचोऽयवायावः " (अ० ६।४।७२; १।९०, ७८) आदेश करके उक्त रूप सिद्ध करते हैं, जबकि कातन्त्रकार ने इकार को यकार, अट् आगम तथा अकार को आकार विधान किया है ।
इस सूत्र की पृथक् रचना में भी पूर्ववत् हेतु प्रस्तुत किया जाता है, क्योंकि “स्वरादीनां वृद्धिरादेः” (३।८।१७) से इकार को वृद्धि होने पर अभीष्ट रूप की सिद्धि की जा सकती है, परन्तु वृद्धिकार्य का बाधक सूत्र है - "इणश्च" ( ३।४।५९) । इससे वृद्धि को बाधकर यकारादेश हो जाने पर 'आयन्' आदि शब्दरूप सिद्ध नहीं किए जा सकते थे । अतः प्रकृत सूत्र की स्वतन्त्र रचना की गई है ।
[विशेष वचन ]
१. परापि वृद्धिरिण्मात्राश्रितेन यत्वेन बाध्यते (दु० वृ०) ।
२. एतीति यस्य रूपमस्ति तस्य परिग्रहार्थं तिब्ग्रहणम्, तेन यत्वविधौ इणा इकोऽपि गृह्यते इत्यर्थः (दु० टी० ) ।
३. उपलक्षणं च लोकतः सिद्धम्, तथा पाठसुखार्थमिति (दु० टी०) ।
४. इण्वदिकोऽपि (वि० प० ) ।
[रूपसिद्धि]
१. आयन् । अट् + इण् + ह्रास्तनी - अन् । 'इण् गतौ' (२।१३) धातु से ह्यस्तनी विभक्तिसंज्ञक प्र० पु०-ब०व० 'अन्' प्रत्यय, "अड् धात्वादिर्ह्यस्तन्यद्यतनीक्रियातिपत्तिषु” ( ३।८।१६ ) से अडागम, “अन् विकरण: कर्तरि " ( ३।२।३२) से अन् विकरण, “अदादेर्लुग् विकरणस्य” (३।४।९२) से उसका लुक्, “इणश्च” (३।४।५९) से इण्धातुगत इकार को यकार तथा प्रकृत सूत्र से अडागम के अकार को आकारादेश ।
२. अध्यायन् । अधि + अट् + इङ् + अन्लुक् + ह्यस्तनी-अन् । 'अधि' उपसर्गपूर्वक ‘इक् स्मरणे' (२।१२) धातु से ह्यस्तनीविभक्तिसंज्ञक प्र० पु० ब०व० 'अन्' प्रत्यय तथा शेष प्रक्रिया पूर्ववत् ||८४० |
८४१. न मामास्मयोगे [३।८।२१]
[सूत्रार्थ]
'मा-मास्म' निपातों के योग में ह्यस्तनी - अद्यतनी - क्रियातिपत्तिनिमित्तक धातु से पूर्व अडागम आदि नहीं होता है || ८४१ |
[दु० वृ०]
मायोगे मास्मयोगे च धातोर्ह्यस्तन्यादिष्वडागमादयो न भवन्ति । मा भवान् करोत्, मास्म करोत् । 'जुगुप्सतस्मैनमदुष्टभावं मैवं भवानक्षतसाधुवृत्तः' इति मतम् । मा भवान्