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कातन्त्रव्याकरणम्
२. द्विड्डि । द्विष् + अन्लुक् + पञ्चमी-हि । 'द्विष अप्रीतो' (२।६०) धातु से पञ्चमीविभक्तिसंज्ञक म० पु०-ए० व० 'हि' प्रत्यय, “अन् विकरणः कर्तरि' (३।२।३२), “अदादेर्लग विकरणस्य" (३।४।९२) से उसका लक्, “हशषछान्तेजादीनां डः' (२।३।४६) से षकार को डकार, “हुधुड्भ्यां हेर्धि:' (३।५।३५) से 'हि' को 'धि' आदेश तथा "तवर्गस्य षटवर्गाट्टवर्ग:' (३।८।५) से धकार को ढकार ।।
३. चकाद्धि । चकास् + अन्लक - पञ्चमी-हि। 'चकास दीप्तौ' (२।३८) धात् से पञ्चमीसंज्ञक 'हि' प्रत्यय, अन् विकरण, उसका लुक्, सकार को दकार तथा हि को 'धि' आदेश ।
४. लब्धा। लभ् + श्वस्तनी-ता। 'डु लभष प्राप्तौ' (१।४७२) धात से श्वस्तनीसंज्ञक 'ता' प्रत्यय, तकार को धकार तथा प्रकृत सूत्र से भकार को बकार आदेश ।।८२८।
८२९. अघोषेष्वशिटां प्रथमः [३।८।९] [सूत्रार्थ
अघोषसंज्ञक वर्ण के परे रहते धातुघटित शिभिन्न धुटसंज्ञक वर्ण के स्थान में प्रथम वर्ण आदेश होता है ।।८२९।
[दु० वृ०]
अघोषेषु परतो धातूनामशिटामेव धुटां प्रथमो भवति । धोक्षि, भेत्ता, बुभुत्सते, युयुत्सते, आरिप्सते। अशिटामेवेति किम् ? अस्ति ।।८२९।
[दु० टी०] अघो० । अघोषे प्रथम. सिद्धोऽयमपि नियमार्थ इत्याह - अशिटामेवेति ।।८२९। [वि० प०
अघोषे०। इहाप्यघोषे प्रथमः इति सिद्ध नियमार्थमित्याह-अशिटामेवेति। धोक्षीति। दुहे: सिः। आरिप्सते इति। रभेः सनि "सनि मिमी०" (३।३।३९) इत्यादिना पूर्ववद् इसादेशः ।।८२९।
[समीक्षा
'भेत्ता, धोक्षि, आरिप्सते' इत्यादि शब्दरूपों की सिद्धि वर्गीय प्रथम वर्ण के विधान से उभयत्र की गई है। पाणिनि का सूत्र है - "खरि च' (अ० ८।४।५५).। पाणिनीय खर् प्रत्याहार में जिन वर्गों का समावेश होता है, उनके अवबोधार्थ कातन्त्र में 'अघोष' संज्ञा की गई है – “वर्गाणां प्रथमद्वितीयाः शषसाश्चाघोषा:' (१।१।११) । पाणिनि ने 'झल्' प्रत्याहार में जिन वर्णों को सम्मिलित किया है, उन वर्गों की कातन्त्रकार ने 'धुट' संज्ञा की है - "धुड् व्यञ्जनमनन्त:स्थानुनासिकम्'' (२।१।१३) । कातन्त्रकार ने इन धुट्संज्ञक वर्गों में आने वाले 'शिट्' संज्ञक वर्ण = श, ष, स्' को छोड़ दिया है - 'अशिटाम्' इस पद के पाठ से, क्योंकि प्रकृत आदेश इन वर्गों के स्थान में प्रवृत्त नहीं होता, परन्तु पाणिनीय ‘झल' प्रत्याहार यहाँ पर्याप्त व्याख्येय बना रहता है । इसी प्रकार आदेश भी शकारादि के रूप में अभीष्ट नहीं है, इसलिए कातन्त्रकार का 'प्रथम' शब्दनिर्देश स्पष्टार्थावबोधक