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[दु० वृ० ]
स्थादासंज्ञकयोरद्यतन्यामात्मनेपदे इर्भवति । समस्थित, समस्थिषाताम् । अदित, अदिषाताम् । अधित, अधिषाताम्। आत्मन इति किम् ? अस्थात्, अदात्, अधात् ।। ६६१ । [दु० टी० ] स्थादो० ० । अद्यतन्यामात्मन इति विषयसप्तमीयम् । तेन सिद्व्यवधानेऽपि स्यात्। अस्थायि, उपास्थायिषाताम् इति इचि इटि इज्वद्भावे च परत्वदायिरेवेति । स्थादोरि: सिच्यात्मने इति विदध्यात् । विचित्रा हि सूत्रस्य कृतिरिति ।। ६६१ ।
कातन्त्रव्याकरणम्
[समीक्षा]
‘समस्थित, समस्थिषाताम् ' आदि प्रयोगों के सिद्ध्यर्थ धातुगत आकार को इकारादेश दोनों ही व्याकरणों में किया गया है। पाणिनि का सूत्र है - " स्थाघ्वोरिच्च” (अ० १।२ । १७)। पाणिनि "दाधा घ्वदाप्" (अ० १ । १ । २०) सूत्र से जिन धातुओं की 'घु' संज्ञा करते हैं, उनकी कातन्त्रकार ने "अदाब् दाधौ दा' (३ । १ । ८) से 'दा' संज्ञा की है। तदनुसार ही यहाँ सूत्रों में 'घु-दा' का प्रयोग किया गया है। टीकाकार दुर्गसिंह प्रकृत सूत्र के स्थान में "स्थादोरि: सिच्यात्मने" पाठ अधिक उचित मानते हैं, लेकिन शर्ववर्मा ने जो ऐसा नहीं किया, उसमें सूत्ररचना को विचित्र कहकर उसकी ग्राह्यता सिद्ध करते हैं - "विचित्रा हि सूत्रस्य कृतिः” ।
[रूपसिद्धि]
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१. समस्थित । सम् + अट् + स्था सिच् + त 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'ष्ठा गतिनिवृत्तौ ' (१ । २६७) धातु से अद्यतनीविभक्तिसंज्ञक आत्मनेपद - प्रथमपुरुष - एकवचन ‘त’ प्रत्यय, “अड् धात्वादिर्ह्यस्तन्यद्यतनीक्रियातिपत्तिषु" ( ३ । ८। १६ ) से धातुपूर्व अडागम्, प्रकृत सूत्र से आकार को इकार, "सिजद्यतन्याम्" (३।२। २४) से सिच् प्रत्यय तथा “ह्रस्वाच्चानिट: " (३ । ६ । ५२) से उसका लोप ।
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२. समस्थिषाताम्। सम् + अट् + स्था सिच् + आताम् । 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'ष्ठा गतिनिवृत्तौ' (१।२६७) धातु से अद्यतनीसंज्ञक द्विवचन 'आताम्' प्रत्यय, अडागम, सिच् प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से आकार को इकार आदेश तथा "नामिकरपरः प्रत्ययविकारागमस्थः सिः षं नुविसर्जनीयषान्तरोऽपि " ( २ । ४। ४७ ) से सकार को मूर्धन्यादेश ।
३. अदित। अट् + दा + सिच् + त। 'डुदाञ् दाने' (२ । ८४) से अद्यतनीसंज्ञक 'त' प्रत्यय, अडागम, सिच् प्रत्यय, इकारादेश तथा सिच् का लोप ।
४. अदिषाताम्। अट् + दा + सिच् + आताम्। 'दा' धातु से अद्यतनीसंज्ञक 'आताम्' प्रत्यय, अडागम, सिच् प्रत्यय, इकार तथा षकारादेश |
सिच् + त। 'डु धाञ् धारणपोषणयो:' (२ । ८५) धातु
५. अधित। अट् + धा
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