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तृतीये आख्याताध्याये षष्ठोऽनुषङ्गलोपादिपाद: तेनैकदेशस्य यत् क्रियते स विकारस्तिनादेशश्च, समुदायस्य यत् क्रियते तदपि विकार आदेशश्च।। ७५३।
॥ इत्याचार्यबिल्वेश्वरटीकायामाख्याताध्याये तृतीयेऽनुषङ्गलोपपाद: षष्ठः समाप्तः।।
[समीक्षा] द्रष्टव्य पूर्व सूत्र-सं० ७५० [विशेष वचन] १. हेमकरेण विकारादेशयोर्भेदः कल्प्यते (बि० टी०)।
२. एकदेशस्य यत् क्रियते स विकार: तिस्रादेशश्च समुदायस्य यत् क्रियते तदपि विकार आदेशश्च (बि० टी०)।
[रूपसिद्धि]
१. तिष्ठति। स्था + अन् + ति। 'ष्ठा गतिनिवृतौ' (१। २६७) धातु से वर्तमानासंज्ञक 'ति' प्रत्यय, 'अन्' विकरण, प्रकृत सूत्र से 'स्था' को 'तिष्ठ' आदेश तथा अकारलोप। यह ज्ञातव्य है कि “धात्वादे: ष: स:" (३। ८। २४) से धातुगत षकार को सकारादेश होने पर 'निमित्तापाये नैमित्तिकस्याप्यपाय:' (का० परि० २७) परिभाषा के अनुसार 'ठ्' भी निवृत्त होकर 'थ्' रूप में उपस्थित होता है। अत: 'स्था' को धातुरूप मानकर सूत्र में 'स्थ:' शब्द पढ़ा गया है।। ७५३।
७५४. म्नो मनः [३।६। ७४] [सूत्रार्थ] 'अन्' विकरण के परे रहते 'मा' धातु को 'मन' आदेश होता है।। ७५४। [दु० वृ०] म्नाधातोरनि परे मनादेशो भवति। मनति।। ७५४। [समीक्षा] द्रष्टव्य पूर्व सूत्र-सं० ७५० । [रूपसिद्धि]
१. मनति। म्ना + अन् + ति। 'म्ना अभ्यासे' (१। २६८) धातु से वर्तमानाविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद - प्र० पु० - ए० व० 'ति' प्रत्यय, 'अन्' विकरण, प्रकृत सूत्र से 'म्ना' को 'मन' आदेश तथा अकारलोप।। ७५४।