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कातन्त्रव्याकरणम्
[वि० प० ]
सर्तेः। नन्वित्यादि। गत्यर्थत्वादयं यदा जवे = वेगे वर्तते तदा सरतीति प्रयोगो मा भूद् इत्यर्थः।। ७५८। [समीक्षा]
द्रष्टव्य सूत्र सं०-७५० की समीक्षा। यह ज्ञातव्य है कि 'धावु गतिशुद्ध्योः ' (१ । ५७०) धातु से ‘धावति' प्रयोग सिद्ध होता ही है, तो फिर प्रकृत सूत्र द्वारा 'सृ' धातु को 'धाव' आदेश करके 'धावति' प्रयोग सिद्ध करने की क्या आवश्यकता है, इसका उत्तर 'वृत्तिकार - टीकाकार- पञ्जिकाकार' ने देते हुए कहा है कि वेग विवक्षित होने पर 'धावति' प्रयोग हो तथा सामान्य गति विवक्षित होने पर 'सरति ' प्रयोग इस अभिप्राय से यहाँ 'सृ' को 'धाव' आदेश किया गया है। अत: 'प्रियामनुसरति' प्रयोग समीचीन माना जाता है, 'प्रियामनुधावति' नहीं। क्योंकि यहाँ सामान्य गति ही अभीष्ट होती है, वेग गति नहीं ।
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[विशेष वचन ]
१. ननु धावु गतावप्यस्ति ? जवाभिधाने यथा स्यादिति वचनम् (दु० वृ०) । [रूपसिद्धि]
१. धावति । सृ + अन् + ति । 'सृ गतौ ' (१ । २७४) धातु से वर्तमानासंज्ञक 'ति' प्रत्यय, 'अन्' विकरण तथा प्रकृत सूत्र से 'सृ' को 'धाव' आदेश ।। ७५८। ७५९. शदेः शीयः [३ | ६ | ७९ ]
[ सूत्रार्थ]
'अन्' विकरण के परे रहते 'शद्' धातु को 'शीय' आदेश होता है ।। ७५९ । [दु० वृ०]
शदेरनि परे शीयादेशो भवति । शीयते ।। ७५९ ।
[दु० टी० ]
शदेः । अथ शीयङिति । जनुबन्धः कथं न कुर्यात् । शदिरनीति वचनं रुचादौ न कृतं स्यात् ? सत्यम्। किमयं डकारानुबन्धो न वेति शङ्क्यते । पादीनां पिबादयो यथासंख्यमिति न कृतम्, मन्दधियां प्रतिपत्तिगौरवं स्यादिति ।। ७५९ ।
[वि० प० ]
शदेः । शदिरनीति रुचादित्वादात्मनेपदम् ।। ७५९ ।
[समीक्षा]
द्रष्टव्य समीक्षा सूत्र - सं० ७५०