________________
३५४
कातन्त्रव्याकरणम्
[दु० टी०]
उतः। तकारनिर्देशः सुखप्रतिपत्त्यर्थ एव । उत औरिति सिद्धे वृद्धिग्रहणं संज्ञापूर्वकत्वादनित्यार्थम्-योयोति, रोरोति । चेक्रीयितलुगन्तमप्युदाहरन्त्येके || ७६४।
[समीक्षा]
‘यौति, नौति, स्तौति' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में वृद्धिविधान किया गया है। पाणिनि का सूत्र है - "उतो वृद्धिलुकि हलि' (अ० ७।३।८९ ) | ( हल्-व्यञ्जन' शब्दों का प्रयोग अपने अपने व्याकरण की मान्यता के अनुसार किया गया है। पाणिनि ने 'लुकि' शब्द का अधिक प्रयोग करके 'अदादिगणपठित धातुओं में ही प्रकृत सूत्र की प्रवृत्ति निश्चित कर दी है, परन्तु 'जुहोति' इत्यादि इसके अपवाद हैं।
[विशेष वचन ]
१. कथं जुहोति ? जुहोतेरिति निर्देशात् (दु० वृ०)।
२. तकारनिर्देशः सुखप्रतिपत्त्यर्थ एव (दु० टी०)।
३. 'उत औः' इति सिद्धे वृद्धिग्रहणं संज्ञापूर्वकत्वादनित्यार्थम् (दु० टी०)। [रूपसिद्धि]
१. रौति । रु + अन्लुक् + ति। 'रु शब्दे' (२।१०) धातु से वर्तमानासंज्ञक परस्मैपद- प्र० पु० ए०व० - 'ति' प्रत्यय, “अन् विकरण: कर्तरि ” ( ३।२।३२) से 'अन्' विकरण, “अदादेर्लुग् विकरणस्य " ( ३।४।९२) से उसका लुक् तथा प्रकृत सूत्र से धातुघटित उकार को वृद्धि - औकार।
२. रौषि । रु - अन्लुक् + ति । 'रु शब्दे' (२।१०) धातु से 'ति' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ।
३. रौमि । रु+ अन्लुक् + मि। 'रु' धातु से 'मि' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया
पूर्ववत् ।
४. नौति । नु + अन्लुक् + ति। 'णु स्तुतौ' (२।७) धातु से वर्तमानासंज्ञक 'ति' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ।
५. स्तौति । स्तु + अन्लुक् + ति। 'ष्टुञ् स्तुतौ' (२।६५) धातु से वर्तमानसंज्ञक 'ति' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ॥ ७६४।
७६५. ऊर्णीतेर्गुणः [३।६।८५]
[ सूत्रार्थ]
व्यञ्जनादि गुणी सार्वधातुक प्रत्यय के परे रहते 'ऊणु' धातु के अन्तिम उकार को विकल्प से गुणादेश होता है । ७६५/
[दु० वृ० ]
परयोगेणात्र वा गम्यते। ऊर्णोतेर्व्यञ्जनादौ गुणिनि सार्वधातुके परे गुणो भवति वा । प्रोर्णोति, प्रोर्णोति । । ७६५।