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तृतीये आख्याताध्याये षष्ठोऽनुषङ्गलोपादिपादः [दु० टी०]
तृहे। व्यञ्जनादाविति किम् ? तृण्हानि। गुणिनीति किम् ? तृणढः । किमर्थमिटष्कारः, आदेशो न भविष्यति विकरणग्रहणबलात् ? सत्यम् । आगमलिङ्गमिह लोकतः सिद्धं मन्दमतिबोधनार्थम्, न च लाघवमस्तीति। सार्वधातुक इति परसप्तमीनिर्दिष्टत्वात् । विकरणादिति परयोगलक्षणा पञ्चमी। नादिति कृतेऽकार उच्चारणार्थः सम्भाव्यते। साध्यनिर्देश एव युक्त इति 'तृण्हः, तृणेहि' इति न कृतम्। ७६७।
[वि० प०]
तृहेः। 'तृह हिसि हिंसायाम्' (६।१५) इति रौधादिकोऽयम् । तृणेढीति। “हो ढ:" (३।६।५६), "घढयभेभ्यस्तथोर्थोऽधा" (३।८।३), तवर्गस्य टवर्गत्वम् । तृणेक्षीति। "षढोः कः से" (३।८।४) कत्वम्, निमित्तात् षत्वम् ।। ७६७।
[समीक्षा]
'तृणेढि, तृणेक्षि, तृणेह्मि' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्धयर्थ इकारागम की जो अपेक्षा होती है, उसकी पूर्ति दोनों ही व्याकरणों में की गई है। पाणिनि ने इमागम किया है - "तृणह इम्' (अ० ७।३।९२) और कातन्त्रकार ने इडागम । आगम यतः मित्रवत् होता है, अतः उसके स्थान का निश्चय करना आवश्यक होता है। पाणिनि के अनुसार मित् आगम अन्तिम अच् के बाद होता है - “मिदचोऽन्त्यात् परः” (१।१।४७), अतः उन्होंने 'इम्' आगम किया है। कातन्त्रकार को इडागम का स्थान सूत्र में ही कहना पड़ा है- 'विकरणात् '। इस प्रकार उभयत्र समानता है।
[विशेष वचन] १. आगमलिङ्गमिह लोकत: सिद्धं मन्दमतिबोधनार्थम (द० टी०)। २. नादिति कृते अकार: उच्चारणार्थ: सम्भाव्यते (दु० टी०)। [रूपसिद्धि
१. तृणेढि। तृह + न-विकरण + ति । 'तृह हिंसायाम्' (६।१५) धातु से वर्तमानासंज्ञक 'ति' प्रत्यय, “स्वराद् रुधादेः परो नशब्दः' (३।२।३६), प्रकृत सूत्र से विकरणपरवर्ती इडागम, “हो ढः" (३।६५६) से इकार को ढकार, “घढधभेभ्यस्तथो|ऽधः” (३।८।३) से तकार को धकार, “तवर्गस्य षटवर्गाट्टवर्गः' (३।८।५) से धकार को ढकार, “ढे ढलोपो दीर्घश्चोपधाया' (३।८।६) से पूर्ववर्ती ढकार का लोप, "रघुवर्णेभ्यो नो णमनन्त्य: स्वरहयवकवर्गपवर्गान्तरोऽपि" (२।४।४८) से नकार को णकार तथा “अवर्ण इवणे ए" (१।२।२) से अकार को एकार-इकार का लोप ।
२. तृणेक्षि। तह + न - विकरण + सि । ‘तृह हिंसायाम् ' (६।१५) धातु से वर्तमानासंज्ञक म० पु० - ए० व० 'सि' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत्!
३. तृणेहि । तृह् + न - विकरण - मि। 'तृह हिंसायाम्' (६।१५) धातु से वर्तमानासंज्ञक उ० पु०-ए०व० 'मि' प्रत्यय तथा शेष प्रक्रिया पूर्ववत्।। ७६७।