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तृतीये आख्याताध्याये षष्ठोऽनुषङ्गलोपादिपादः ३६५ आगम करने के बाद गुणादेश भी करना पड़ता है, अत: कातन्त्रकार के ओकारादेश में लाघव सन्निहित है।
[रूपसिद्धि
१. अवोचत्। अट् + वच् + अण् + दि । ‘वच भाषणे' (२।३०) धातु से अद्यतनीसंज्ञक परस्मैपद-प्र० पु०-ए० व० 'दि' प्रत्यय, अडागम, “अण् असुवचिख्यातिलिपिसिचिह्नः' (३।२।२७) से 'अण्' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से अकार को ओकार तथा दकार को तकारादेश।
२. अवोचः। अट् + वच् + अण् + सि । 'वच भाषणे' (२।३०) धातु से अद्यतनीसंज्ञक 'सि' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ।।७७४।
७७५. अस्यतेस्थोऽन्तः [३।६।९५] [सूत्रार्थ 'अण् ' प्रत्यय के परे रहते ‘अस्' धातु के अन्त में 'थ' आगम होता है।।७७५। [दु० वृ०] अस्यतेरन्तस्थो भवति अणि परे। अपास्थत।।७७५। [दु० टी०] अस्य०। तिनिर्देशः सुखार्थ एव ।।७७५। [वि० प०] अस्य०। अत्रापि पूर्ववदण् ।।७७५। सिमीक्षा
'आस्थत् , उपास्थत' आदि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ 'अस्' धातु के बाद थकार की आवश्यकता होती है, जिसकी पूर्ति कातन्त्रकार ने 'थ' आगम से तथा पाणिनि ने 'थुक्' आगम से की है- “अस्यतेस्थुक्” (अ० ७।४।१७)। पाणिनि ने कित् आगमों के स्थाननिश्चयार्थ परिभाषासूत्र बनाया है- “आद्यन्तौ टकितौ” (अ० १।१।४६), जब कि कातन्त्रकार ने आगम वाले सूत्र में ही स्थान का निश्चय कर दिया है।
[विशेष १. तिनिर्देश: सुखार्थ एव (दु० टी०)। [रूपसिद्धि
१. अपास्थत। अप+अस् + थ् + त। 'अप' उपसर्गपूर्वक 'अस भुवि' (२।२८) धातु से अद्यतनीसंज्ञक आत्मनेपद - प्र० पु० - ए० व० 'त' प्रत्यय, “अवर्णस्याकारः" (३।८।१८) से धातु के आदि अकार को आकार, अण् प्रत्यय तथा प्रकृत सूत्र से थकारागम।।७७५।