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तृतीये आख्याताध्याये षष्ठोऽनुषङ्गलोपादिपादः
७६३. प्वादीनां ह्रस्वः [३।६।८३] [ सूत्रार्थ ] विकरण के परे रहते प्वादिगणपठित धातुओं को ह्रस्व होता है।।७६३। [दु० वृ०]
प्वादीनां विकरणे ह्रस्वो भवति। पुनाति, लुनाति। ‘ल्यी' चेत्यतो ल्वादिप्वादिव्यवच्छित्तये वृत् । पूङस्तु पवते, मूङस्तु भवते।।७६३।
[दु० टी०]
प्वा०। ल्यी चेत्यादि। न ह्युभयगणसमाप्त्यर्थता केनचिद् वृद्ग्रहणस्य वार्यते। न्वादिसमाप्त्यर्थमेव वृद्ग्रहणम्, प्वादय आगणान्ता इत्येके। तेषां 'ब्रिणाति, भ्रिणाति' इत्यत्र ह्रस्व एव। जानातीत्यत्र न भवति, प्रकृतिवृत्तेः पुनर्वृत्तावविधिनिष्ठितस्येति भावः। अन्य आह- व्यक्तौ दीर्घबलान भविष्यति।।७६३।
[समीक्षा
'पुनाति, लुनाति' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में ह्रस्वविधान किया गया है। पाणिनि का सूत्र है- “प्वादीनां ह्रस्वः" (अ० ७।३।८०)। जो आचार्य व्रयादिगण के अन्त तक ‘प्वादिगण' की सत्ता मानते हैं, उनके अनुसार इस गण में ४४ धातुएँ (८८-५१) सम्मिलित की जाती हैं।
[विशेष वचन] १. अन्य आह- व्यक्तौ दीर्घबलान भविष्यति (दु० टी०)। [रूपसिद्धि]
१. पुनाति। पू+ना+ति। 'पूञ् पवने' (८१८) धातु से वर्तमानासंज्ञक परस्मैपद - प्र० पु०- ए० व० 'ति' प्रत्यय, “ना ज़्यादेः” (३।२।३८) से 'ना' विकरण तथा प्रकृत सूत्र से धातुघटित ऊकार को ह्रस्वादेश।
२. लुनाति। लू+ना+ति। 'लूञ् छेदने' (८।९) धातु से 'ति' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ।।७६३। ७६४. उतो वृद्धिर्व्यञ्जनादौ गुणिनि सार्वधातुके [३।६।८४]
[सूत्रार्थ
व्यञ्जनादि गुणी सार्वधातुक प्रत्यय के परे रहते धातुगत उकार को वृद्धि होती है।।७६४।
[दु० वृ०]
धातोरुतो वृद्धिर्भवति व्यञ्जनादौ गुणिनि सार्वधातुके परे। रौति, रौषि, रौमि। एवं नौति, स्तौति। कथं जुहोति? जुहोतेरिति निर्देशात् । धातोरिति किम्? तनोति, सुनोति।।७६४।