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तृतीये आख्याताध्याये षष्ठोऽनुषङ्गलोपादिपाद:
२८३ धातु से परोक्षासंज्ञक 'ए' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से जकार को गकार, द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञा, तथा “इव) यमसवणे न च परो लोप्यः'' (१ । २। ८) से इकार को यकारादेश।। ७११ ।
७१२. चे: कि वा [३।६। ३२] [सूत्रार्थ]
'सन्' प्रत्यय तथा परोक्षाविभक्तिसंज्ञक प्रत्यय के परे रहते 'चि' धातुगत चकार को ककार आदेश होता है।। ७१२।
[दु० वृ०]
चित्र: सन्परोक्षयोः परत: किर्भवति वा। चिकीषति, चिचीषति। चिकाय, चिचाय। चिक्ये, चिच्ये। 'कि कित ज्ञाने' परस्मैपदीति वचनम्।। ७१२।
[दु० टी०] चेः। उत्तरत्र सूत्रे वाशब्दो न वर्तते, अधिकारस्येष्टत्वात्।। ७१२। [समीक्षा
'चिकीषति, चिचीषति' आदि प्रयोगों के साधनार्थ चकार को ककारादेश दोनों ही शाब्दिक आचार्यों ने किया है। पाणिनि का सूत्र है- “विभाषा चे:' (अ० ७।३। ५८)। उक्त सूत्रों की समीक्षा के अनुसार यहाँ भी यह ज्ञातव्य है कि कातन्त्रकार ने तो च् को क् आदेश ही किया है, परन्तु पाणिनि ने कवदिश। जिसमें कवर्गीय अन्य ४ वर्गों के निरासार्थ स्थान-प्रयत्न की समानताहेतु एक अतिरिक्त उद्यम करना पड़ता है। प्रकृत सूत्रपठित 'वा' शब्द का अधिकार उत्तरवर्ती सूत्र में नहीं जाता है, क्योंकि कोई भी अधिकार ग्रन्थकार के तात्पर्य के अनुसार ही प्रवृत्त होता है-'अधिकार स्येष्टत्वात्' (दु० टी०)।
[रूपसिद्धि]
१. चिकीषति, चिचीषति। चि + सन् + ति। चेतुमिच्छति। 'चिञ् चयने' (४। ५) धातु से इच्छार्थ में सन् प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से चकार को वैकल्पिक ककार आदेश, द्वित्व, अभ्याससंज्ञा, ककार को चकार, धातुगत इकार को दीर्घ, मूर्धन्यादेश, धातुसंज्ञा तथा वर्तमानासंज्ञक 'ति' प्रत्यय। ककारादेश के अभाव में 'चिचीषति' रूप साधु माना जाता है।
२. चिकाय, चिचाय। चि + परीक्षा-अट्। 'चि' धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक 'अट्' प्रत्यय, चकार को वैकल्पिक ककार, द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञा, 'क्' को 'च्', इकार की वृद्धि तथा ऐकार का आय् आदेश। ककारादेश के अभाव में 'चिचाय' रूप साधु माना जाता है।
३. चिक्ये, चिच्ये। चि - परोक्षा ए। 'चि' धातु से परोक्षासंज्ञक 'ए' प्रत्यय, चकार को ककारादेश, द्विवचन, क् को च् तथा धातुगत इकार को यकारादेश। ककारादेश के अभाव में 'चिच्य' रूप बनता है।। १२ ।