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कातन्त्रव्याकरणम्
[बि० टी०]
दन्शि० । नन् किमर्थमिदम् , तुदादौ पठ्यताम्, ततोऽगुणत्वात् पूर्वेणैवानुषङ्गलोप: सिध्यति। न च वाच्यम्-तुदादौ पठिते “तुदभादिभ्य ईकारे” (२।२।३१) इत्यनेन एभ्यः परस्यास्ते कारलोप: स्यात् तत्र तुदधातोरेवादिशब्देन सम्बन्धात् ? सत्यम्, प्रतिपत्तिगौरवनिरासार्थमिति।। ६८४।
[समीक्षा
'दशति, परिष्वजते' इत्यादि शब्दरूपों में दोनों ही आचार्यों ने धातुगत नकार के लोप का विधान किया है। पाणिनि का सूत्र है – “दंशसञ्जस्वञ्जा शपि'' (अ० ६।४।२५)। यहाँ ‘रन्ज्' धातु में नलोप का निर्देश वार्तिककार ने किया है, जबकि कातन्त्रकार ने उसका समावेश सूत्रपाठ में ही कर दिया है। पाणिनीय ‘शप्' के लिए कातन्त्र में 'अन्' विकरण माना गया है, तदनुसार ही सूत्रों में इसका पाठ है। 'दशन' शब्द की सिद्धि भाव करण अर्थों में यूट् प्रत्यय से अथवा रूढि के बल पर की गई
[विशेष वचन]
१. भावनिदर्शनमिदमुपलक्षणम्। दश्यतेऽनेनेति दशनो दन्तः, करणेऽपि भवति, रूढित्वाद् वा (दु० टी०; वि० प०)।
२. भज सेवायामित्यस्य धातोरिचि विषये भञ्जनेऽपि वृत्तिरभिधीयते, अपिशब्दात् सेवायामपीत्यर्थ: (दु० टी०)।
३. दन्श् दशने इत्यादि भावे युट्, एतदुपलक्षणम् (वि० प०)। [रूपसिद्धि]
१. दशति। दन्श् + अन् + ति। 'दश दशने' (१।२९०) धात् से वर्तमानासंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष–एकवचन 'ति' प्रत्यय, “अन् विकरण: कर्तरि'' (३।२।३२) से 'अन्' विकरण तथा प्रकृत सत्र से नलोप।
२. सजति। सन्ज् + अन् + ति। 'पन्ज सङ्गे' (१।२८८) धातु से 'ति' प्रत्यय, अन् विकरण तथा नलोप।
३. परिष्वजते। परि + स्वन्ज + अन् + ते। परि' उपसर्गपूर्वक 'स्वन्ज परिष्वङ्गे' (१।३४९) धातु से 'ते' प्रत्यय, अन्-विकरण, नलोप तथा सकार को षकारादेश।
४. रजति। रन्ज् + अन् + ति। 'रन्ज रागे' (१ । ६०५) धातु से 'ति' प्रत्यय, अन् विकरण तथा नकारलोप।। ६८४।।
६८५. अस्योपधाया दीर्घो वृद्धिर्नामिनामिनिचट्सु [३।६।५] [सूत्रार्थ]
'इन्–इच्–अट्' प्रत्यय के परे रहते धातु की उपधा अकार को दीर्घ तथा नामिसंज्ञक की वृद्धि होती है।। ६८५ ।