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कातन्त्रव्याकरणम्
(३। २। ३२) से अन् विकरण, “अदादेलुंग् विकरणस्य'' (३। ४। ९२) से उसका लुक्, प्रकृत सूत्र से धातुघटित आकार को इकारादेश तथा सकार को विसर्गादेश।
२. दरिद्रिथः। दरिद्रा + अन्लुक् + थस्। 'दरिद्रा दुर्गतौ' (२। ३७) से थस प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत्।। ५८४।
५८५. लोप: सप्तम्यां जहातेः [३। ४। ४५] [सूत्रार्थ]
'ओ हाक् त्यागे' धातुघटित आकार का लोप होता है, सप्तमीविभक्तिसंज्ञक अगुण प्रत्यय के परे रहते।। ५८५ ।
[दु० वृ०]
जहातेराकारस्य सप्तम्यामगुणे लोपो भवति। जह्यात्, जह्याताम्, जह्युः । व्यञ्जनादावगुणे सार्वधातुके इत्त्वं वा वक्तव्यम्। जहितः, जहीत:। हौ चात्वमित्वमीत्वं चेष्टम् – जहाहि, जहिहि, जहीहि।। ५८५।
[दु० टी०]
लोपः। व्यञ्जनादौ सार्वधातुके इत्यादि मतान्तरमेतदपि वर्णितम्। लोपो ये जहाते:' इत्युक्ते आशिष्यपि स्यात् – हेयादिति। सार्वधातुके इति विशेषणं वर्तिष्यने चेत्, प्रतिपत्तिरियं गरीयसीति। तिग्निर्देश: सुखप्रतिपत्त्यर्थः।। ५८५।
[वि०प०],
लोपः। व्यञ्जनादावित्यादि। अत्रापि पूर्ववद् वक्तव्यमित्यर्थः। हौ चेत्येतदपि मतान्तरेण वर्णितमिह जहीहीति प्रमाणम्।। ५८५ ।
[समीक्षा]
प्रत्ययभेद से 'ओ हाक् त्यागे' धातुघटित आकार का लोप, इकार-ईकार आदेश होते हैं। पाणिनि के एतदर्थ तीन सूत्र हैं – “जहातेश्च, आ च हो, लोपो यि" (अ०६।४।११६, ११७.११८)। कातन्त्रकार आचार्य शर्ववर्मा ने 'जह्यात्' इत्यादि शब्दों में आकारलोप के विधानार्थ प्रकृत सूत्र बनाया है। अन्य दो कार्यों के विधानार्थ वृसिकार ने दो वार्त्तिकवचन पढ़े हैं – “व्यञ्जनादावगुणे सार्वधातुके इत्त्वं वा वक्तव्यम्, हो चात्वमित्वमीत्वं चेष्टम्''। तिप्प्रत्ययान्त धातुनिर्देश सुखार्थ पढ़े जाते हैं। अत: टीकाकार ने कहा है – “तिग्निर्देश: सुखप्रतिपत्त्यर्थः'' (दु० टी०)।
[रूपसिद्धि]
१. जह्यात्। हा + अन्लुक् + यात्। 'ओ हाक् त्यागे' (२। ७१) धातु से सप्तमीविभक्तिसंज्ञक प्रथमपुरुष - एकवचन ‘यात्' प्रत्यय, अन्–विकरण, उसका लुक्, 'हा' को द्वित्व, अभ्याससंज्ञा, ह्रस्व, हो जः'' (३।३।१२) से अभ्यासवती हकार को जकार तथा प्रकृत सूत्र से हाधातुघटित आकार का लाप।