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कातन्त्रव्याकरणम्
[दु० वृ०] चक्षिङः परोक्षायां ख्याआदेशो भवति वा। आचख्ये, आचख्यौ, आचचक्षे ।। ६२९। [दु० टी०] वा परो० । पूर्वेण नित्ये प्राप्ते विभाषेयमुच्यते।। ६२९ । [समीक्षा
'चक्षिङ्' धातु से परोक्षाविभक्ति में 'आचख्ये, आचख्यौ' आदि शब्दरूपों के सिद्धयर्थ दोनों ही आचार्यों ने वैकल्पिक ख्याउ आदेश का विधान किया है। पाणिनि का सूत्र है – “वा लिटि'' (अ० २।४।५५)। यह ज्ञातव्य है कि ‘ख्याच्' आदेश के अनुबन्ध होने से परस्मैपद तथा आत्मनेपद दोनों में ही रूप बनेंगे, जवकि 'चक्षिङ्' धातु डकारानुबन्धविशिष्ट है, अत: उससे केवल आत्मनेपद में रूप बनेंगे।
[रूपसिद्धि]
१. आचख्ये। आङ् + चक्षिङ् + ए। 'आङ्' उपसर्गपूर्वक चक्षिङ् व्यक्तायां वाचि' (२४१) धातु से पराक्षासंज्ञक आत्मनेपद-प्रथमपुरुष-एकवचन 'ए' प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से 'ख्याञ्' आदेश, ज्-अनुबन्ध का प्रयोगाभाव. द्विवचन, अभ्याससंज्ञा, आदिव्यञ्जन का शेष, ह्रस्व, ख् को क्, “कद स्य चवर्ग:' (३। ३.१३) से क् को च् तथा धातुगत आकार का लोप।
२. आचख्यौ। आङ् + चक्षिट् + अट्। 'आङ्' उपसर्गपूर्वक चक्षिङ्' धातु से परोक्षासंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष एकवचन 'अट्' प्रत्यय, 'ख्या' आदेश. द्विवचनादि, "आकारादट औ' (३ । १४१) से अट के स्थान में ओ तथा 'सन्ध्यक्षरे च'' (३।६।३८) से धातुगत आकार का लोप।
३. आचचक्षे। आ + चक्षिङ् + ए। 'आङ्' उपसगंपूर्वक चक्षिङ्' धातु से परोक्षासंज्ञक 'ए' प्रत्यय तथा ख्याजादेश के अभाव में 'चक्ष' को द्विवंचनादि ।। ६.९।
६३०. अजेर्वी: [३।४।९०] [सूत्रार्थ] असार्वधातुक प्रत्यय के परे रहने पर 'अज' धातु को टो' आदेश होता है।। ६३० । [दु० वृ०]
अजेर्वीरादेशो भवत्यसार्वधातकविषये। विव्यतः विव्युः वयनीयम्. वोन:, वीतवान् : व्यञ्जनादो वेति केचित् – प्राजिता, प्रवेता। प्राजिष्यते. प्रवष्यते प्राजितुम्, प्रवतुम् । घबल्क्यप्सु च न स्यात् – समाजः, उदजः, समज्या। प्राजनो दण्डः. प्रवयणो दण्ड: इति च। वाधिकारादियमिष्टसिद्धिरिति।। ६३० ।
[दु० टी०] अजे० । 'समाजः' इति घञ्। 'उदजः' इति “समुदोरजः पशुषु' (४। ८ । ५१)
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