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कातन्त्रव्याकरणम्
[समीक्षा]
'दुदुहतुः, दुदुहुः, निन्यतुः, निन्युः' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ गुणनिषेध की जो अपेक्षा होती है, उसकी पूर्ति दोनों ही व्याकरणों में की गई है। पाणिनि का सूत्र है - "असंयोगाल्लिट् कित्'' (अ० १।२। ५)। अन्तर यह है कि पाणिनि लिट प्रत्ययों का किवद्भाव तथा "क्ङिनि च'' (१ । १। ५) से गण का निषेध करते है, परन्तु कातन्त्रकार ने साक्षात् ही गुणनिषेध का निर्देश प्रकृत सूत्र द्वारा किया है।
[विशेष वचन] १. पृथग्योगः स्पष्टार्थ: (दु० टी०; बि० टी०)। [रूपसिद्धि
१. दुदुहतुः। दुह् + परोक्षा- अतुस्। 'दुह प्रपूरणे' (२। ६१) धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक प्रथमपुरुष-द्विवचन ‘अतुम्' प्रत्यय, धातु को द्वित्व, अभ्याससंज्ञादि, गुणाभाव तथा सकार को विसर्गादेश
२. दुदुहुः। दुह + परोक्षा–उस्। 'दुह प्रपूरणे' (२ । ६१) धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक उस्' प्रत्यय तथा धातु को द्विवचनादि-गुणाभाव।
३. विव्यतः। अज् + परोक्षा अनुस। 'अज गतिक्षेपणयोः' (१। ६४) धात से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक 'अतुस्' प्रत्यय, अज' को 'वो' आदेश, धातु को द्विर्वचनादि-गुणाभाव।
४. विव्युः। अज् + परोक्षा-उस्। 'अज गतिक्षेपणयो:' (१ । ६४) धातु से उस्' प्रत्यय, 'अज' को 'वी' आदेश तथा धातु का द्विवचनादि-गुणाभाव।
___५. निन्यतुः। नी + परोक्षा-अतुस्। ‘णी प्रापणे' (१। ६००) धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक प्रथमपुरुष-द्विवचन 'अतुस्' प्रत्यय, धातु को द्विवचनादि तथा गुणाभाव।
६. निन्युः। नी + परोक्षा-उस्। 'णीज् प्रापणे' (१ । ६००) धातु से उस्' प्रत्यय, धातु को द्विर्वचनादि तथा गुणाभाव।। ६५२।
६५३. सर्वत्रात्मने [३। ५। २१] [सूत्रार्थ
परोक्षाविभक्ति-आत्मनेपदसंज्ञक प्रत्ययों के परवर्ती होने पर धातु को गुणादेश का निषेध होता है।।६५३।
[दु० वृ०]
सर्वेषां धातूनां परोक्षायां च सर्वस्मिन्नात्मनेपदे गुणो न भवति। दुदुहे, दुदुहाते, दुदुहिरे। चक्रे, चक्राते, चक्रिरे।। ६५३ ।
[दु० टी०]
सर्व० । 'परोक्षायां च सर्वत्र' इत्यास्ताम्, किमात्मनेपदग्रहणेन, परस्मैपदग्रहणमपि न सम्बध्यते, उत्तरत्र परस्मैपदग्रहणान् ? सत्यम्, प्रतिपत्तिगौरवं स्यात्।। ६५३।