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तृतीये आख्याताध्याये पञ्चमो गुणपादः
'अन्' विकरण, प्रकृत सूत्र से धातुघटित ईकार को गुण तथा “ए अय्” (१ । २।१२) से एकार को अयादेश ।। ६३५ ।
६३६. करोतेः [३। ५। ४]
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[सूत्रार्थ]
'उ' विकरण के परे रहते 'कृ' धातुघटित ऋकार को गुणादेश होता है ।। ६३६ । [दु० वृ० ]
करोतेः स्वविकरणे गुणो भवत्येव । करोति, करोतु (अकरोत्)। तनाद्युपलक्षणं करोतेरिति केचित्। तेन समर्णोति ।। ६३६ । [दु० टी० ]
करोतेः। तिब्निर्देशः सुखपाठार्थः। नियमस्यापवादोऽयमित्याह-गुणो भवत्येवंति। तनादीत्यादि । ' ऋणु गतौ, तृणु अदने, घृणु दीप्तौ' (७।४, ५, ६) । त्रय एवैते गुणविषयाः। ऋणादेरित्यत्राकुर्वन् करोतेरेव गुण इति सूत्रकारः साधयति ।। ६३६।
[वि० प० ]
करोतेः। नियमस्यापवादोऽयमित्याह - गुणो भवत्येवेति । तनादीति । ऋणु गतौ, घृणु दीप्तौ, तृणु अदने' (७४, ६, ५) एते त्रय उपलक्ष्यन्ते । केचिद् इत्यन्ये । शर्ववर्मणस्तु नोपलक्षणं सम्मतमिति लक्ष्यते ऋण्वादेरित्यकरणात्।। ६३६।
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करोतेः। मिदिकरोतिभ्यामिति सिद्धे पृथग्योगो वैचित्र्यार्थः।। ६३६ । [समीक्षा]
'करोति, करोतु' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ 'कृ' धातु से होने वाले 'उ' विकरण को गुण आदेश करने की आवश्यकता है, इसकी पूर्ति कातन्त्रकार ने स्वतन्त्र सूत्र बनाकर की है, परन्तु पाणिनि ने सामान्य सूत्र “सार्वधातुकार्धधातुकयोः” (अ० ७।३।८४) से ही गुणविधान किया है | पृथक् रूप में इस सूत्र को बनाने के दो कारण व्याख्याकारों ने बताए हैं एक तो तनादिगणपठित अन्य धातुओं से भी होने वाला 'उ' विकरण का गुणविधान तथा दूसरा कारण है - विचित्रताप्रदर्शन ।
[विशेष वचन ]
१. तिब्निर्देश: सुखपाठार्थ : (दु० टी० ) ।
२. शर्ववर्मणस्तु नोपलक्षणं सम्मतम् (वि० प०)। ३. पृथग्योगो वैचित्र्यार्थ : ( बि० टी० ) ।
[रूपसिद्धि]
१. करोति । कृ + उ + ति । 'डुकृञ् करणे' (७ । ७) धातु से वर्तमानासंज्ञक परस्मैपद प्रथमपुरुष– एकवचन 'ति' प्रत्यय, "तनादेरु: " ( ३।२।३७) से उ' विकरण,