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कातन्त्रव्याकरणम्
प्रकृत सूत्र से 'कृ' धातुघटित ऋकार को गुण आदेश - अर् तथा "नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोर्गुणः” (३ । ५ । १) से 'उ' विकरण को गुण ।
२. करोतु। कृ + उ + तु। 'डु कृञ् करणे' (७।७) धातु से पञ्चमीसञ्ज्ञक 'तु' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ।
३. अकरोत् । अट् + कृ + उ + ह्यस्तनी–दि। ‘डु कृञ् करणे' (७७) धातु से ह्यस्तनीसंज्ञक प्रथमपुरुष एकवचन दि' प्रत्यय, "अड् धात्वादिर्ह्यस्तन्यद्यतनीक्रियातिपत्तिषु" (३।८१६) से धातुपूर्व अडागम, "तनादेरु : " ( ३।२।३७ ) से 'उ' विकरण, प्रकृत सूत्र द्वारा 'कृ' धातुगत 'ऋ' को गुण, 'नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोर्गुणः ” (३।५। १) से 'उ' विकरण को गुण तथा 'दि' प्रत्ययगत इकारलोप - तकारादेश ।। ६३६। ६३७. मिदे: [ ३ । ५। ५]
[ सूत्रार्थ]
'यन्' विकरण के परे रहते 'मिद्' धातु को गुण होता है ।। ६३७ । [दु० वृ०]
मिदेः स्वविकरणे गुणो भवत्येव । मेद्यति । नौवादिकस्य मेदतेरनि सिद्ध एव ।। ६३७। [दु० टी० ]
मिदे: । 'ञि मिदा स्नेहने' (३७७) इति दिवादौ परस्मैपदी, भ्वादौ चात्मनेपदीति । मिदिकरोत्योरिति सिद्धे पृथग् वचनं स्पष्टार्थम् ।। ६३७।
[समीक्षा]
'मेद्यति' आदि यन्विकरणघटित प्रयोगों के सिद्ध्यर्थ उपधागत इकार को गुण आदेश करने की आवश्यकता होती है, इसकी पूर्ति दोनों ही व्याकरणों में की गई है। पाणिनि का सूत्र है - "मिदेर्गुण: " (अ० ७।३।८२ ) । इस प्रकार उभयत्र साम्य है।
[विशेष वचन ]
१. पृथग्वचनं स्पष्टार्थम् (दु० टी० ) ।
[रूपसिद्धि]
१. मेद्यति। मिद् + यन् + ति । 'ञिमिदा स्नेहने' (३।७७) धातु से वर्तमानासंज्ञक प्रथमपुरुष - एकवचन 'ति' प्रत्यय, "दिवादेर्यन्" (३।२।३३) से 'यन् विकरण तथा प्रकृत सूत्र से 'मिद्' धातुघटित इकार को गुण- एकार ।। ६३७।
६३८. अभ्यस्तानामुसि [३।५।६ ]
[सूत्रार्थ]
अभ्यस्तनिमित्तक 'उस्' प्रत्यय के परे रहते अभ्यस्तधातुघटित नामिसंज्ञक इवर्ण, उवर्ण, ॠवर्ण का गुण होता है ।। ६३८ ।