________________
तृतीये आख्याताध्याये पञ्चमो गुणपादः
१५३ निर्देशों में पाणिनीय ‘इगन्त' निर्देश ही अधिक उपयुक्त कहा जा सकता है। उनके "सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (अ० ७।३।८४) सूत्र में 'इगन्त' को ही गुण का विधान किया गया है। कातन्त्रीय 'धातु-विकरण' यह उभय निर्देश अधिक स्पष्टता का बोधक है, जबकि पाणिनि विकरणसहित धातु की अङ्गसंज्ञा मानकर इगन्त विकरण को गुण आदेश करते हैं।
[विशेष वचन] १. वचनाद् भूतपूर्वाच्च न विरुध्यते (दु० टी०)। २. नात्र बुद्धिकृतव्यापार आश्रीयते (दु० टी०)। ३. अन्तग्रहणं विस्पष्टार्थमेव (दु० टी०)।। ४. वरमक्षराधिक्यं न पुनर्योगविभाग इति युक्तम् (दु. टी०)। [रूपसिद्धि
१. एता। इण् + श्वस्तनी-ता। 'इण् गतौ' (२।१३) धातु से श्वस्तनीविभक्तिसंज्ञक प्रथम पुरुष–एकवचन 'ता' प्रत्यय तथा प्रकृत सूत्र से इकार को गुणादेश-एकार।
२.चेता। चि + श्वस्तनी-ता। 'चिच् चयने' (४। ५) धातु से श्वस्तनीविभक्तिसंज्ञक प्रथमपुरुष-एकवचन 'ता' प्रत्यय तथा प्रकृत सूत्र से इकार को ग्णादेश एकार।
३-६. नेता। नी + श्वस्तनी–ता। स्तोता। स्तु + श्वस्तनी–ता। भविता। भू + ता। कर्ता। कृ + ता। क्रमश: ‘णी प्रापणे, प्टुञ् स्तुती, भू सत्तायाम्, डुकृञ् करणे' (१। ६००, २। ६५,१११, ७। 3) धात् स ता-प्रत्यय, प्रकृत सूत्र स ईकार-उकार-ऊकार तथा ऋकार को गुणादेश।
७-८. सुनोति। सु + नु + ति। तनोति। तन + उ + ति। 'पुञ् अभिषवे' (४।१) तथा ‘ननु विस्तार' (७। १) धातु से वर्तमानासंज्ञक प्रथमपुरुष एकवचन 'ति' प्रत्यय, "नुः प्वाटे:'' (३।२।३८) से 'नु' विकरण, "तनादेशः'' (३।२।३७) से 'उ' विकरण तथा प्रकृत सूत्र द्वारा विकरणघटित उकार का गणादश।। ६३३।
६३४. नामिनश्चोपधाया लघोः [३। ५। २] [सूत्रार्थ]
धातु में उपधासंज्ञक लघुभूत नामी वर्गों का गुण आदेश होता है प्रत्यय के परवर्ती होने पर।। ६३८!
[दु० वृ०]
धाांरुपधाया नामिनो लघागुणो भवति। कोषिता, कोषिष्यते, वनिता, वर्निष्यते। भन्ना, छेना' इति प्रत्यये परे धातोरुपधैव। चकार उत्तरार्थः।। ६३४।
[दु० टी०] नामि० । विकरणस्य नाम्युपधत्वं नाम्नीत्याह - धानोरिति । धात्वधिकारोऽत्र वर्तत