________________
तृतीये आख्याताध्याये चतुर्थः सम्प्रसारणपाद: न चैवमेत्त्वमपरोक्षनिमित्तं भवतीति वक्तव्यम्। श्रुतत्वात् परोक्षायामेवैत्त्वमिति। राजीत्यादि। एवं भेजे, बभ्राजे, भ्रशे, बभ्राशे, भ्लेशे, बभ्लाशे। थलि च सेट्यप्येवमिति। अपरेधिथ, रेजिथ, रराजिथेति। इतरे आत्मनेपदित्वात् थल्विषया न भवन्ति। एकशब्दोऽयमसहायवचन इति प्रत्युदाहरन्नाह–असहायेत्यादि। 'अहं पपच' इति। “अस्योपधाया अट्युत्तमे वा" (३। ६। ५) इति दीर्घाभावे प्रत्युदाहरणम् ।। ५९० ।
[समीक्षा]
पेचतुः, पेचुः, नेमतुः, नेमुः, सेहे' इत्यादि परोक्षाविभक्ति के शब्दरूपों के सिद्धयर्थ एत्त्व और अभ्यासलोप की आवश्यकता होती है। पाणिनि का सूत्र है - "अत एकहल्मध्येऽनादेशादेलिटि' (अ० ६४१२०)। पाणिनीय लिट के लिए कातन्त्रव्याकरण में परोक्षासंज्ञा का तथा हल के लिए व्यञ्जनसंज्ञा का व्यवहार किया गया है, तदनुसार सूत्र में शब्दों का प्रयोग है।
[विशेष वचन] १. चकाराधिकारात् क्वचिद् दीर्घोऽपि गृह्यते (दु० वृ०)। २. एकशब्दोऽत्रासहायवाची (दु० टी०; वि० प०)। ३. व्यञ्जनग्रहणं सुखप्रतिपत्त्यर्थम् (दु० टी०)। [रूपसिद्धि]
१. पेचतुः। पच् + अतुस्। 'डु पचष् पाके' (१६०३) धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक प्रथमपुरुष-द्विवचन 'अतुस्' प्रत्यय, द्वित्व, अभ्याससंज्ञा, चकारलोप, धातुघटित अकार को एकार, अभ्यासलोप तथा सकार को विसर्ग आदेश।
२. पेचुः। पच् + उस्। 'डु पचष् पाके' (१६०३) धातु से उस् प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत्।
३. नेमतुः। नम् + अतुस्। ‘णम् प्रह्वत्वे शब्दे च' (११५९) धातु से 'अतुस्' प्रत्यय, “णो न:' (३।८।२५) से णकार को नकार, द्वित्व, अभ्याससंज्ञा, मकारलोप, प्रकृत सूत्र से धातुघटित अकार को एकार, अभ्यासलोप तथा सकार को विसर्गादेश।
४. नेमुः। नम् + उस्। ‘णम् प्रह्वत्वे शब्दे च' (११५९) धातु से 'उस्' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत्।
५. सेहे। सह + ए। “षह मर्षणे' (१५६०) धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक आत्मनेपद- प्रथमपुरुष–एकवचन 'ए' प्रत्यय “धात्वादेः ष: सः' (३।८।२४) से षकार को सकार, द्वित्त्व, अभ्याससंज्ञा, हकारलोप, प्रकृत सूत्र द्वारा धातुघटित अकार को एकारादेश तथा अभ्यासलोप।। ५९० ।
५९१. थलि च सेटि [३। ४। ५१] [सूत्रार्थ]
सेट् थल् प्रत्यय के परे रहते अनादेशादि धातुगत अकार को एकारादेश तथा . अभ्यासलोप होता है।। ५९१ ।