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तृतीये आख्याताध्याये चतुर्थः सम्प्रसारणपाद:
१२३ न स्यात्, धातो: संयोगादित्वात्, न देश्यम् आदिग्रहणस्यैवावयवार्थत्वात् संयोगादिरवयवो यस्येत्यर्थेऽत्र न भवति। न ह्यत्र धात्ववयवः संयोगादिः, अवयवश्चारम्भकस्तदभावादत्र न भवति। ननु 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' (का० परि० ४) इति न्यायादव न भवति किमादिग्रहणेन ? सत्यम्, बोधगौरवनिरासार्थम् आदिग्रहणम् ।। ६१४।
[समीक्षा]
'अर्यते, अर्थात्, स्मर्यते, स्मर्यात्' इत्यादि शब्दों के सिद्ध्यर्थ 'ऋ' के स्थान में गुणादेश की अपेक्षा होती है, इसका विधान दोनों ही आचार्यों ने किया है। पाणिनि का भी यही सूत्र है – “गुणोऽतिसंयोगाद्यो:' (अ० ७।४।२९)। पाणिनीय सूत्रपाठ के अनुसार उपरितन सूत्र “रिङ् शयग्लिस' (अ० ७।४।२८) से 'श-यक्-लिङ्' तीनों की अनुवृत्ति प्राप्त होती है, परन्तु 'श' (तुदादि-विकरण) प्रत्यय के परे रहते गुण सम्भव नहीं है, अत: 'श' की अनुवृत्ति नहीं की जाती है - "श इत्यत्रासम्भवान्नानुवर्तते' (काशिकावृत्ति: ७।४।२९)। कातन्त्रकार ने इकारादेश के लिए दो सूत्र बनाए हैं, जिनमें अगुण (शप्रत्यय) का प्रथम तथा 'यण-आशिष्' का द्वितीय सूत्र में उल्लेख है। अत: काशिकाकार की तरह उक्त व्याख्या यहाँ अनुवृत्ति के विषय में नहीं करनी पड़ती है।
[विशेष वचन] १. 'ऋ' इति सिद्धे अर्त्तिनिर्देश: श्रुतिसुखार्थ एव (दु० टी०)। २. अरिति सिद्ध गणग्रहणं वैचित्र्यार्थम् (दु० टी०)। ३. तिप्-निर्देश: सुखार्थ एव (बि० टी०)। ४. बोधगौरवनिरासार्थम् आदिग्रहणम् (बि० टी०)। [रूपसिद्धि]
१. अर्य्यत। ऋ + यण् + ते। 'ऋ प्रापणे च, ऋ सृ गतौ' (१ ।२७५; २।७४), धातु से कर्म अर्थ में वर्तमानासंज्ञक आत्मनेपद-प्रथमपुरुष एकवचन 'ते' प्रत्यय, “सार्वधातुकं यण्' (३।२।३१) से यण् प्रत्यय तथा प्रकृत सूत्र से ऋकार गुणादेश।
२. अर्यात्। ऋ + आशी:-यात्। 'ऋ' धातु से आशीविभक्तिसंज्ञक 'यात्' प्रत्यय तथा प्रकृत सूत्र से ऋकार को गुणादेश।
__३. स्मर्यते। स्मृ + यण् + ते। ‘स्मृ चिन्तायाम्, स्मृ आध्यान' (१ ।२७२, ५२१) धातु से वर्तमानासंज्ञक 'ते' प्रत्यय, “सार्वधातुके यण'' (३। २ । ३१) से यण् प्रत्यय नथा प्रकृत सूत्र से ऋकार को गुणादेश।
४. स्मर्यात्। स्मृ + आशी: - यात्। 'स्मृ' धातु से आशीविभक्तिसंज्ञक 'यात्' प्रत्यय तथा प्रकृत सूत्र से 'ऋ' को गुणादेश।। ६१४।