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तृतीये आख्याताध्याये चतुर्थः सम्प्रसारणपाद: [रूपसिद्धि]
१. इयेष। इष् + परोक्षा–अट्। इषु इच्छायाम्' (५ १७०) धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष-एकवचन 'अट्' प्रत्यय, “चण्परोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु' (३।३७) से 'इष्' धातु को द्वित्व, “पूर्वोऽभ्यासः' (३।३।४) से पूर्ववर्ती 'इष्' की अभ्याससंज्ञा, "अभ्यासस्यादिळञ्जनमवशेष्यम्' (३।३।९) से 'इ' का शेष- 'ष' का लोप, "नामिनश्चोपधाया लघो:' (३।५।२) से 'इष्' धातु की उपधा इकार को गुण तथा प्रकृत सूत्र से अभ्यासगत इकार को इयादेश।
२. उवोष। उष् + परोक्षा-अट। 'उष दाहे' (१।२२९) धातु से परोक्षासंज्ञक प्रथमपुरुष– एकवचन 'अट्' प्रत्यय तथा अभ्यासगत उकार को उवादेश के अतिरिक्त अन्य प्रक्रिया पूर्ववत्।। ५९५ ।
५९६. नोर्विकरणस्य [३४५६] [सूत्रार्थ
ष्वादिगणपठित धातुओं से होने वाले 'नु' विकरण के अन्तर्गत उकार को ‘उव्' आदेश होता है, अगुण स्वरादि प्रत्यय के परे रहते।। ५९६ ।
[दु० वृ०]
विकरणस्य नोरुकारस्यागुणे स्वरादावुव् भवति आन्तरतम्यात्। प्राप्नुवन्ति, प्राप्नुवन्तु, शक्नुवन्ति शक्नुवन्तु। नोरिति किम् ? क्षण्वन्ति। विकरणस्येति किम् ? तन्वन्ति।। ५९६ ।
[दु० टी०]
नोवि० । असंयोगात् परस्य नोर्वत्वं वक्ष्यतीत्यत: संयोगात् परस्योदाह्रियते। नन् च नुरयं सार्वधातुकस्य सहभावेनार्थवान् ततश्च 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' (का० परि० ४) इति तन्वन्तीति कुतः प्राप्तिः, 'उ'-विकरणोऽर्थवान् न तु नुरिति ? सत्यम्, मन्दमतिबोधार्थमेव विकरणग्रहणम् ।। ५९६।
[वि. प०]
नोवि० । क्षण्वन्तीति। 'क्षणु क्षिणु हिंसायाम्' (७।३) इति तनादित्वाद् उ–विकरण इत्यर्थः।। ५९६।
[समीक्षा]
'प्राप्नुवन्ति, शक्नुवन्ति' आदि ष्वादिगणपठित धातुओं से सिद्ध होने वाले शब्दों में नु-विकरणगत उकार को उवादेश करने की आवश्कता होती है। इसका विधान कातन्त्रकार तथा पाणिनि दोनों ने ही किया है। पाणिनि का सूत्र है – “अचि श्नुधातुध्रुवां वोरियडुवङौ'' (अ० ६।४७७)। अन्तर यह है कि सुखावबोधार्थ कातन्त्रकार ने ५९४ तथा ५९६ ये दो सूत्र पृथक् पृथक् बनाए हैं, जबकि पाणिनि ने इन दोनों को एक ही सूत्र में पढ़ा है।