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तृतीये आख्याताध्याये चतुर्थः सम्प्रसारणपाद: [दु० टी०]
नोश्च० । न विद्यते संयोगो यस्येति विग्रहः। चकार: उक्तसमुच्चयमात्रे। नुहीति। 'नु स्तुतौ' (२७)। राक्षुहीति। ‘राध साध संसिद्धौ' (४। १६)।। ५७३। ।
[बि० टी०]
नोश्च विक० । न विद्यते संयोगो यस्येति। 'तक्ष्णुहि' इत्यत्रैव प्रतिषेध: स्यात्। कथं राहीति। अथ न संयोगोऽसंयोगः इति चेत् केवलो नुः संयोगो न भवत्येव ? सत्यम्, बहव्रीहिरेवायं नोरवयवेन व्यञ्जनेनेति भिन्नेन वा संयोगो नास्ति। टीकायामपि बहुव्रीहिदर्शितः।। ५७३।
[समीक्षा]
'चिनु, सुनु' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्धयर्थ 'नु' विकरण के बाद 'हि' के लोप की आवश्यकता होती है। इसका विधान दोनों ही आचार्यों ने किया है। पाणिनि का सूत्र है – “उतश्च प्रत्ययादसंयोगपूर्वात्” (अ० ६।४।१०६)। पाणिनि ने उकार का उल्लेख करके 'उ-नु' दोनों ही विकरणों से परवर्ती 'हि' का लोप करके लाघव प्रदर्शित किया है। कातन्त्रकार ने 'नु' तथा 'उ' विकरणों का भिन्न-भिन्न सूत्रों में उल्लेख स्पष्टावबोध के लिए किया है। तनादिगणपठित धातुओं से होने वाले 'उ' विकरण से परवर्ती 'हि' का लोप करने के लिए अग्रिम सूत्र है – “उकाराच्च" (३।४।३४)।
[रूपसिद्धि]
१. चिनु। चि + नु + हि। 'चिञ् चयने' (४५) धातु से पञ्चमी विभक्तिसंज्ञक मध्यमपुरुष–एकवचन 'हि' प्रत्यय, "न: ष्वादे:' (३।२।३४) से 'नु' विकरण तथा प्रकृत सूत्र से हि का लोप।
२. सुनु। सु + नु + हि। 'षुञ् अभिषवे' (४१) धातु से पञ्चमीविभक्तिसंज्ञक हि-प्रत्यय, नु–विकरण तथा प्रकृत सूत्र से हि का लोप।। ५७३ ।
५७४. उकाराच्च [३४३४] [सूत्रार्थ] 'उ' विकरण से परवर्ती 'हि' प्रत्यय का लोप होता है।। ५७४ । [दु० वृ०]
उकाराच्च विकरणात् परस्य हेर्लोपो भवति। तनु, कुरु। विकरणादिति किम् ? नुहि।। ५७४।
[दु० टी०]
उकारात् । उकाराच्च विकरणादसंयोगादित्येकयोगे उकाराकरणादिति द्वयो: सामानाधिकरण्यनिर्देश विशेषणविशेष्यभावं प्रति कामचार इति न युक्तः पक्ष:। उकारात्