________________
५४
कातन्त्रव्याकरणम्
३. गोदः। गो + दा + क + सि। गां ददाति। 'गो' पूर्वक 'डु दाञ् दाने' (२।८४) धातु से “आतोऽनुपसर्गात् कः' (४।३१४) सूत्र द्वारा 'क' प्रत्यय, “के यण्वच्च योक्तवर्जम्'' (४१७) से अगुण, प्रकृत सूत्र से आकारलोप तथा सि-घटित सकार का लोप।
४. संस्था। सम् + स्था + अङ् + सि। 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'ष्ठा गतिनिवृत्तौ' (१।२६७) धातु से "आतश्चोपसर्गे" (४।५।८४) से अङ् प्रत्यय, “डे न गुण:" (४१६) से अगुण, प्रकृत सूत्र से आकारलोप, “स्त्रियामादा' (२।४।४९) से स्त्रीप्रत्यय-आ, लिङ्गसंज्ञा, सि-प्रत्यय तथा उसका लोप ।। ५६६ ।
५६७. इटि च [३।४।२७] [सूत्रार्थ] - इट् परे रहते धातु के अन्तिम आकार का लोप होता है।। ५६७। [दु० वृ०]
धातोराकारस्य लोपो भवति इटि परे। पपिथ, ददिथ। इटीति किम् ? पपाथ। गुण्यर्थमिदम्।। ५६७।
[दु० टी०]
इटि। ये तु चेक्रीयितलुगन्तं भाषायामिच्छन्ति, ते दादितुम्, दादितव्यम् इत्युदाहरन्ति। गुण्यर्थमिदमिति। इह हि इडादावगुणे पूर्वेणैव सिद्धमिति भावः। पपिव, ददिव। चकार उक्तसमुच्चयमात्रे। योगविभागश्च स्पष्टार्थ एव।। ५६७।
[वि० प०] इटि। पपिथ, ददिथेति। "नित्यात्वतां स्वरान्तानाम्" इति वचनाद् इड् वा।। ५६७। [बि० टी०]
इटि। इडादावगुणे पूर्वेणैव सिद्धम् । पपिव, ददिव इति। चकार उक्तसमुच्चयमात्रे। पृथग्योगश्च स्पष्टार्थ इति टीकाकृत्। इटीति किमिति वृत्तिः। ननु इङ्ग्रहणाभावे कस्य किं स्यात् ? सत्यम् । अगुणवचने पूर्वेणैव सिद्धे अर्थाद् गुणिन्येव स्यात्। तत्र पारिशेष्यात् थल्प्रत्यय एव स्यात्, थलीत्यास्ताम् इत्याह – इटीति किमिति।। ५६७।
[समीक्षा]
'पपिथ, ददिथ' आदि इडागम वाले रूपों के साधनार्थ आकारलोप की अपेक्षा होती है। जिसकी पूर्ति दोनों ही आचार्यों ने की है। तदनुसार कातन्त्रकार को प्रकृत सूत्र स्वतन्त्ररूप में बनाना पड़ा है, जबकि पाणिनि का एक ही सूत्र है – “आतो लोप इटि च' (अ० ६।४।६४)। कातन्त्रकार ने “आलोपोऽसार्वधातुके' (३।४।२६) में “इटि