Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji
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पण्डित दलसुखभाई मालवणिया को भी यह सन्देह है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के ग्रन्थकार जिनभद्रगणि नहीं हैं और उनका यह सन्देह हरिभद्रीय टीका तथा मलधारी हेमचन्द्र की टिप्पणी में ग्रन्थकार के नाम का उल्लेख न होने पर आधारित है । 33 विनयभक्तिसुन्दरचरण ग्रन्थमाला से मुद्रित संस्करण में एक सौ छठवीं गाथा में 'ध्यानशतक' के रचयिता के रूप में जिनभद्रगणि को स्वीकार किया गया है। यह बात ज्ञातव्य होने पर पण्डित बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने अपनी सम्पादित पुस्तक में चरम गाथा को उद्धृत नहीं किया और एक सौ पांच गाथाओं का वर्णन करके ग्रन्थ को समाप्त कर दिया, क्योंकि उनका मन्तव्य तो यही है कि यह गाथा ग्रन्थकर्त्ता की है या परवर्ती किसी अन्य द्वारा रचित है - यही सन्देह का भी विषय है, 34 साथ ही, उनका यह भी मानना है कि इस ग्रन्थ में मंगलाचरण की पद्धति भी भिन्न है- यह भी सन्देह का एक कारण है। 35 जहां तक मंगलाचरण की भिन्नता का प्रश्न है, तो उसका सीधा निवारण यह है कि विभिन्न ग्रन्थों की रचना में विभिन्न रूपों से मंगलाचरण होना स्वाभाविक प्रतीत होता है। इसमें कोई दोष या आपत्तिजनक बात नहीं है। दूसरा यह हो सकता है कि ध्यानशतक के रचनाकार जिनभद्रगणि ही हैं- इसको लेकर किसी प्रकार का भ्रम न हो, इसलिए परवर्तीकाल में किसी ने एक सौ छठवीं गाथा उसमें जोड़कर ग्रन्थकर्त्ता के नाम का उल्लेख किया हो ।
इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन पण्डित बालचन्द्रजी की शंका का निवारण करते हुए लिखते हैं कि दिगम्बर - परम्परा के आचार्य कुन्दकुन्द, मूलाचार के रचयिता वट्टकेर आदि ने भी अपनी-अपनी रचनाओं में अपना नामोल्लेख नहीं किया, इसका मतलब यह तो नहीं है कि समयसार, प्रवचनसार, मूलाचार आदि ग्रन्थों के लेखकों के विषय में सन्देह किया जाए ?
सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि विक्रम की आठवीं शताब्दी में सम्पूर्ण ग्रन्थ आचार्य हरिभद्र के समक्ष उपलब्ध था। जिनभद्रगणि का काल लगभग छठवीं शताब्दी माना जा सकता है। हरिभद्र के पूर्व अर्थात् इन दो शताब्दियों के मध्य श्वेताम्बर–परम्परा में तत्त्वार्थ के टीकाकार सिद्धसेनगणि और चूर्णिकार जिनदासगणि- ये
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गणधरवाद, प्रस्तावना, पृ. 45.
34 ध्यानशतक, प्रस्तावना, सम्पादक बालचन्द्रजी शास्त्री,, पृ. 02.
35 ध्यानशतक, प्रस्तावना, सम्पादक
बालचन्द्रजी शास्त्री, पृ. 03.
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