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साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य के धूर्त, जुपारी, विट-चेटादि भी 'प्रकरण' में चित्रित किये जा सकते हैं। के चरित को प्रधानता से प्रतिपादित करने वाले रूपक भेद की 'भाण' संज्ञा है। 'व्यायोग', 'समवकार', 'डिम', 'ईहामग' आदि रूपक भेदों में सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक चरितों के माध्यम से समाज के परम्परागत सामाजिक मूल्यों की विशेष सुरक्षा हो पाती है। इसी प्रकार जन-साधारण को नायक के रूप में चित्रित करने वाले रूपक भेदों में 'अङ्क' तथा 'वीथी' का तथा हास्य प्रधान-'प्रहसन' भी निःसन्देह लोकधर्मी साहित्य के उदाहरण कहे जा सकते हैं। नाटकों में संस्कृत प्राकृत का प्रयोग तथा उत्तम, मध्यम एवं निम्न पात्रों की अभियोजना समाज के विविध वर्गों तथा भाषाओं में सामंजस्य स्थापित करने का ही सद्प्रयत्न मानना चाहिये । 'नाटक' 'महाकाव्य' की भांति संस्कृति के समग्र फलक पर केन्द्रित होते हैं अतएव उनकी संप्रेषणीयता 'भारण' 'प्रकरण' के अपेक्षा अधिक व्यापक रहती है इस प्रकार हम देखते हैं कि साहित्य की विश्वजनीन विधा ‘रूपक साहित्य' समाजधर्मी समग्रता को अङ्गीकार किये हुये है। इस साहित्य विधा का यदि समाजशास्त्रीय दृष्टि से गम्भीर अध्ययन किया जाये तो हम पायेंगे कि नाट्य साहित्य मानवीय समाज को समाजधर्मी प्रवृत्तियों से जोड़ने का एक महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली माध्यम सिद्ध होता है।
श्रव्य काव्य के अन्तर्गत महाकाव्य, गीतिकाव्य, गद्यकाव्य आदि अनेक विधायें आती हैं । काव्य शास्त्र के प्राचार्यों ने इन सभी विधानों में 'काव्यत्व' की अनिवार्यता स्वीकार की है । महाकाव्य, गीतिकाव्य प्रादि काव्य के विविध स्वरूपों में मानव जीवन की विविधता के दर्शन होते हैं । महाकाव्य में प्रायः सभ्यता संस्कृति के उदात्त प्राशयों का व मानव जीवन की विविध परिस्थितियों का राष्ट्रिय स्तर पर सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया जाता है तो गीतिकाव्य अथवा खण्डकाव्य आदि लघुकाव्यों में मानव के किसी पक्ष विशेष का ही उदात्तीकरण एवं समाजीकरण किया जाता है।४ काव्य शास्त्र के प्राचार्यों ने रस, अलङ्कार, ध्वनि, रीति, गुण आदि विविध काव्य तत्त्वों के सन्दर्भ में काव्य लक्षणों का प्रतिपादन
१. तु०-कितवद्यूतकारादिविटचेटकसङ्कलः। -साहित्यदर्पण, ६.२२७ तथा
दासत्रेष्ठिविटैर्युक्तम् । नाट्यदर्पण, २.२ ।। २. भाणः स्याद् धूर्तचरितो नानावस्थान्तरात्मकः ।
-साहित्यदर्पण, ६.२२७ ३. द्रष्टव्य, साहित्यदर्पण, ६.२२८-५४ ४. तु०-'खण्ड-काव्यं भवेत्काम्यस्यैकदेशानुसारि च' यथा मेघदूतादि ।
-साहित्यदर्पण, ६.३२६