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साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य ही इसी लिए हुअा है कि वह प्रजा के प्रत्येक व्यक्ति को अभयदान दे।' इसके लिये शासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, सैन्य व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था आदि संस्थाएं राज्य को सामाजिक दृष्टि से सुदृढ बनाती हैं । समाज की अन्य धार्मिक, दार्शनिक तथा सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी मनुष्य की नैतिक एवं आध्यात्मिक शक्ति का संवर्धन करती हैं । समाज में जब कभी भी इन सामाजिक व्यवस्थानों का कोई व्यक्ति अथवा वर्ग अथवा अन्य कोई समुदाय उल्लङ्घन करने का प्रयास करता है है तो समाज में उसे दण्ड देने की व्यवस्था भी है। इस प्रकार हम यह देखते हैं कि साहित्य एवं समाज के प्रयोजन हैं—मनुष्य की सामूहिक चेतना को प्रोत्साहित करना तथा विषम परिस्थितियों में उसका पथ प्रदर्शन करना। साहित्य मनुष्य की उपर्युक्त प्रावश्यकताओं की पूर्ति करते हुए उसे प्राथिक, शैक्षिक, धार्मिक दृष्टि से प्रशिक्षित करता है और साथ ही उत्कृष्ट मानन्द भी प्रदान करता है।
साहित्य एवं समाज : काव्य लक्षणों के सन्दर्भ में-भारतीय साहित्यशास्त्र अथवा काव्य शास्त्र के ग्रन्थों में काव्य के मौलिक तत्त्वों का शास्त्रीय विवेचन उपलब्ध है। काव्य शास्त्र में प्रतिपादित काव्य लक्षणों का प्रत्यक्ष रूप से काव्य से ही सम्बन्ध है किन्तु काव्य का समाज के साथ सम्वन्ध होने के कारण अप्रत्यक्ष रूप से इन काव्य लक्षणों का समाज से भी सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। सर्वप्रथम नाट्यशास्त्र को ही लें, इसमें नाटक का जो स्वरूप प्रतिपादित किया गया है उसमें सामाजिक मूल्यों के प्रति पूर्ण आस्था है। मूल रूप से नाटक में नृत्य, अभिनय, सङ्गीत, गायन आदि तत्त्वों का प्राधान्य रहता है । ये तत्त्व नाटक के अतिरिक्त भी मानव समाज के लिये इस रूप में वरदान हैं कि इनके द्वारा मानव व्यवहारों में पारस्परिक आदान-प्रदान की क्षमता में एवं संगठन शक्ति में वृद्धि होती है तथा मानव समाज को इनसे मनोरञ्जन के अतिरिक्त उदात्त एवं सौन्दर्यात्मक दृष्टि भी प्रदान होती है। इनमें से एक-एक तत्त्व सामूहिकता की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि को सुदृढ करता है । निःसन्देह ये सभी तत्त्व रस मिश्रित होकर मानव समुदाय को आनन्द देने के साथ सामाजिक मूल्यों की भी शिक्षा देते हैं । नाट्य साहित्य वास्तव में प्राचीन सामाजिक मूल्यों को नवीनीकरण की ओर ले जाता है इसलिये नाटक की पांच
१. भोलानाथ शर्मा, अरिस्तू को राजनीति, लखनऊ, १६६६, पृ० ६५ २. Roucek, J.S., Social Control, New York, 1962, p. 83-84 ३. राजवंश सहाय हीरा, भारतीय साहित्यशास्त्र कोश, पटना, १६७३, पृ०
६२१ ४. तु०-न गीतवाद्यनृतज्ञा लोकस्थितिविदो न ये। _ अभिनेतुं च क च प्रबन्धास्ते बहिर्मुखाः ॥
-नाट्यदर्पण, प्रधान सम्पा० नगेन्द्र, दिल्ली, १९६१, १.४ .