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साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य साहित्य शास्त्र की समाजधर्मो मान्यताएं
भारतीय साहित्य शास्त्र के संक्षिप्त सर्वेक्षण से भी यह प्रतिपादित किया जा सकता है कि भारतीय काव्याचार्य साहित्य के तत्त्वों के प्रतिपादन के अवसर पर सामाजिक प्रयोजनों तथा युगीन आवश्यकताओं के प्रति सजग थे। चाहे काव्य के प्रयोजनों का सम्बन्ध हो या फिर काव्य लक्षणों का, साहित्यशास्त्रीय मान्यताएं समाजधर्मी वैशिष्ट्य से प्रभावित होती आई हैं।
साहित्य एवं समाज : काव्य प्रयोजनों के सन्दर्भ में-नाट्यशास्त्र के अनुसार भरत ने नाट्य कला का प्रचार सामाजिकों के ज्ञान वर्धन, प्रानन्द एवं विश्राम मादि के लिये किया था। तदनन्तर काव्यशास्त्र के अन्य प्राचार्यों ने भी काव्य केयशलाभ, धनलाभ, व्यवहार ज्ञान, पापनाश, परमानन्द प्राप्ति एवं स्त्रीजनोचित सरस उपदेश प्रदान आदि काव्य प्रयोजन स्वीकार किए हैं । अन्य काव्य शास्त्रियों के काव्य प्रयोजन भी उपर्युक्त प्रयोजनों पर ही आधारित हैं। भामह के मतानुसार धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष, कला-नपुण्य, कीर्ति एवं प्रीति प्राप्ति काव्य के प्रमुख प्रयोजन हैं। 3 वामन यश प्राप्ति को काव्य का अदृष्ट प्रयोजन एवं प्रीति को दृष्ट प्रयोजन के रूप में स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार हेमचन्द्र ने भी आनन्द, यश तथा मधुर उपदेश को काव्य का प्रयोजन स्वीकार किया है। कुन्तक द्वारा प्रतिपादित काव्य प्रयोजनों का समसामयिक सन्दर्भ में भी विशेष महत्त्व है। कुन्तक ने
१. दुःखार्तानां श्रमार्त्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम् । विश्रान्तिजननं लोके नाट्यमेतद् भविष्यति ॥
-नाट्यशास्त्र, चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, १९२६, १.११४ तथा, धम्यं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविवर्धनम् ।।
लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति ।। नाट्यशास्त्र, १.११५ २. काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवतरक्षतये ।
सद्यः परनिर्व तये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥ -काव्यप्रकाश, १.२ ३. धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च ।
करोति कीर्ति प्रीतिं च साधुकाव्यनिबन्धनम् ॥ -काव्यालङ्कार, १.२ ४. काव्यं सदृष्टादृष्टार्थ प्रीतिकीर्तिहेतुत्वात् ।
-काव्यालङ्कार सूत्रवृत्ति, १.१५ ५. काव्यमानन्दाय यशसे कान्तातुल्यतयोपदेशाय च ।
-काव्यानुशासन, १, पृ० ३