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जैन पाठावली)
(२७
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अर्थ
दुपडिच्छियं- (१०) दुप्ट भाव से ज्ञान लिया हो अकाले कओ सज्झाओ (११) असमय में स्वाध्याय किया हो काले न कओ सज्झाओ (१२) समय पर स्वाध्याय न किया हो असज्झाइए सज्झायं (१३) स्वाध्याय न करने योग्य जगह
पर स्वाध्याय किया हो सज्झाइए न सज्झायं (१४)स्वाध्याय योग्य जगह पर
स्वाध्याय नही किया हो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं इन दोषो सम्बन्धी मेरा पाप
(दुष्कृत) मिथ्या हो mmelanm
पाठ आठवाँ दर्शन-सम्यक्त्व का अर्थ इम पाठ में दर्शन शब्द सच्ची श्रद्धा के अर्थ में काम में लाया गया है । दर्शन को सम्यक्त्व एव समकित भी कहते हैं ।
रागद्वेपरहित देव ( अरिहत ),पच महाव्रतधारी निर्ग्रन्थ गुरु और सर्वन-कथित दयामय धर्म, इन तीनो की श्रद्धा शुद्ध मन से और सच्चे विवेक से प्राप्त होती है, इनके विरुद्ध आचरण करने मे ममकितदशा चली जाती है।
दर्शन-गमकित की व्याग्या शास्त्रकार ने इस प्रकार की है :