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(जैन पाठावली
राजीमती ने उत्तर में कहा-साधुजी ! जरा अपने वेर की तरफ तो देखो। तुम किसके पुत्र हो ? तनिक अपने कुल के मर्यादा को सोचो। तुम उन भगवान् नेमिनाथ के छोटे भाई हो जिन्हे विवाह के समय वैराग्य हुआ था | आज वे भगवान् है गरे हैं। वही मेरे मस्तक के छत्र है । वही तुम्हारे बडे भाई हैं जैसे उन्होने भोग-विलास का त्याग किया है, उसी तरह तुमने भी भर जवानी में त्याग का मार्ग ग्रहण किया है।
योगीराज ! इस काया में रखा क्या है ? मल-मूत्र और बदबू से भरी यह देह-रूपी थैली चैतन्य के बिना निकम्मी है । इम चैतन्य के अमली स्वरूप को पाने के लिए ही आप सन्त बने हैं। इसी के लिए मै साध्वी बनी हूँ।
हाथी की अम्बारी त्यागकर कौन गये पर सवार होना चाहेगा? एक बार वमन की हुई चीज को कौन खाने की इच्छा करेगा ? कीडे की तरह विपय-भोग मे किलविलाते रहने की अपेक्षा तुम्हारे लिए अपघात कर लेना कही उत्तम है। मुनिराज । यह विपले वचन और विचार आपके पवित्र दिमाग में किस प्रकार घुसे ?
अहा } कितनी अद्भुत और तेजस्वी वाणी है । रथनेमि का पतन होते-होते रह गया । वह बार-बार सती का उपकार मानने लगा । उसने कहा-धन्य हो, नारीजाति के कीति-कलश । तुम धन्य हो । साध्वी हो तो ऐसी ही हो।