Book Title: Jain Pathavali Part 03
Author(s): Trilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publisher: Tilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar

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Page 226
________________ २२४) ( जैन पाठावलीः सेवा जगत् के प्राणियो की. ईश-सेवा है मही, यह भावना अन्त करण मे से निकल जावे नहीं। यह ऊंच है, यह नीच है, यह भेद-प्रभुपथ मे न हो, सेवे रसायन ज्ञानयुत हो व्यग्रता मन मे न हो । प्रभु नाम का सेवे रसायन पथ्य भी पाले सही, ससार-मायाजाल मे मन को फंसावे भी नही । तो यह स्वय ही आत्मा परमात्मपद पावे अहो,' प्रभुनाम- की महिमा अनोखी, कौन कह सकता कहो ?।। (३) पाँच इन्द्रियों के विषय (१) त्वचा का विषय स्पर्श लेने करी के दात वन मे वास तण गडहे भरे, झूठी बनाकर हस्तिनी उसके समक्ष खडी करे । वह हस्तिनी गज के लिए तो मृत्यु का ही धाम है, सोच मानव | विपय-विप का क्या बुरा परिणाम है । (२) जीभ का विषय रस पहुंच सागर-तीर धीवर जाल फैलाता अहो, पर मत्स्य बेचारे कपट-छल को कहाँ जाने कहो ? हा! जीभ की ही गद्धि' से बस अत काम तमाम हैं। सोच मानव ! विपय-विप का क्या बुरा परिणाम है । - - १. गज-हानी। २. गद्धि-लालच ।

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