Book Title: Jain Pathavali Part 03
Author(s): Trilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publisher: Tilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकश्री म. भा. श्वे स्था. जैन फॉन्फरेन्स को सम्मति से पं. बदरीनारायण शुक्ल, पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल पं.चन्द्रभषण मणि त्रिपाठी मन्त्री-पुस्तक प्रकाशन विभाग श्री ति र स्था. जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी, अहमदनगर vedios प्रति , मूल्य है वीर संवत् विक्रम संवत् १००० एक रुपया २४९० २०२१ ।। मुद्रक-- पं. बदरीनारायण द्वारकाप्रसाद शुक्ल श्री मुधर्मा मुद्रणालय, पाथर्डी (अहमदनगर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्री वर्द्धमानाय नम ।। श्री अ. भा. श्वे. स्था. जैन कॉन्फरेन्स द्वारा मान्य श्री तिलोक रत्न स्था. जैन धामिक परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी की जैन सिद्धान्त प्रथमा प्रथम खण्ड का पाठ्य ग्रन्य StuA FO जैन पाठावली भाग ३ प्रकाशकश्री अ. भा. ५वे स्था. जैन कॉन्फरेन्स की सम्मति से मन्त्री-पुस्तक प्रकाशन विभाग श्री तिलोक रत्न स्था जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड पाथर्डी, ( जि अहमदनगर ) तृतीय संस्करण ) मूल्य (वीर सं. २४९० १००० । एक रुपया । ई. सन् १९६४ मोहा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यि प्रायथन ब हमे बडो प्रसन्नता है कि धार्मिक शिक्षण के लिए कॉन्फेन्म की ओर से तैयार की गई जैन पाठावली के तृतीय भाग की यह तृतीयावृत्ति श्री तिलोक रत्न स्था जैन धार्मिक परीक्षा वोर्ड, पाथर्डी द्वारा प्रकाशित की जा रही है । पाठ्य-पुस्तक के रूप में । जन समाज ने पाठावली का जो मूल्याकन किया है वह इस तृतीयावृत्ति से प्रमाणित हो जाता है। हमारे लिए यह हर्ष का विषय है। वालको को जैन संस्कृति और जैन तत्त्वज्ञान का सरलता से वोध कराने के लिए ऐसे सर्वम न्य पाठयक्रम की मांग कॉन्फरेन्स से होती रहती थी। फलस्वरूप यह पाठावली श्री धार्मिक शिक्षण समिति द्वारा श्री सतवालजो से तैयार कराई गई है। जैनशाला, छात्रालय और स्कूलों में क्रमश शिक्षण दिया जा सके और उत्तरोत्तर वालक धार्मिक ज्ञान प्राप्त कर सके इस तरह इस पाठावली के ७ भाग किये गये हैं। हम आशा करते हैं कि जहाँ २ अभी तक इस पाठावली को अपने पाठ्यक्रम में स्थान नहीं दिया गया है वहाँ २ सर्भ स्कूल, पाठशाला और छात्रालय यथा गीघ्र इसे अपना लेगे और बालको के कोमल हृदय पर जैन सस्कृति की गहरी छाप डालने म सहायक बनेगे। मानद्-मन्त्री श्री अ. भा.. न्या. जैन कोन्फ्रेन्स Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक की ओर से श्री तिलोक रत्न स्था जैन धामिक परीक्षा बोर्ड पाथर्डी और श्री अ भा श्वे. स्था जैन कॉन्फरेन्म द्वारा तैयार कराई गई जैन पाठावली को बोर्ड ने अपने पाठ्यक्रम में स्थान देने का निश्चय किया। कॉन्फ्रेन्स ने भी पाथर्डी बोर्ड को अपनी मान्यता प्रदान करते हुए पाठावली के सातो भागो के हिन्दी और गुजराती सस्करणो का प्रकाशन करने की सम्मति , बोर्ड के पुस्तक प्रकाशन विभाग को देकर एक बडी उदारता प्रकट की है। तदनुसार जैन पाठावली भाग ३ का तृतीय सस्करण प्रकाशित करते हुए हमे महान् प्रमोद हो रहा है । जालना (निझाम स्टेट) निवासी श्रीमान् फूलचन्द जवेरचन्द शाह शतश धन्यवाद के पात्र है जिनके आर्थिक सहयोग से इस पुस्तक का प्रकाशन किया जा रहा है । आपका अन्तःकरण धार्मिक कार्यों की ओर विशेष रहा करता है। पाथर्डी.परीक्षा बोर्ड सिद्धान्तशाला पुस्तकालय, श्रीवर्द्धमान जैन धर्म शिक्षण प्रचारक सभा और श्री तिलोक जैन हायस्कूल में आपने वहुमोल सहायता पहुंचाई है । आप सरल स्वभाव के उत्साही सद्गृहस्थ हैं। आपकी धार्मिक पवृत्ति सदैव वद्धमान रहे इसी शुभ-भावना के साथ प्राप्त सहयोग के लिये शनश. आभार प्रकट करते हैं । पं. बदरीनारायण शुक्ल पं शोभाचन्द्र भारिल्ल प चन्द्र भषण मणि त्रिपाठी मत्री-पुस्तक प्रकाशन विभाग श्री ति र स्था र धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाय ( अहमरनगर) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वर्द्धमान स्था. जैन श्रमण संघ के साहित्य शिक्षासंचालक पंडित रत्न मुनिश्री सुशीलकुमारजी म. का अभिमत वालक और जिज्ञासु कोरी ओर खुली किताब है, उसमे जिस प्रकार की संस्कार पक्तियाँ लिख दी जायेगी वे ही उभर आयेगी और पुस्तक का शरीर बन जायेगी। यह एक परम सत्य है, यदि आप इसकी यथार्थता स्वीकार करते है तो विश्व के भावी कर्णधारो और धर्म के भावी सैनिको में सच्चे सस्कार डालने का मधुर प्रयास करिये । • धन्यवाद है उस पाथर्डी वोर्ड और उसके सस्थापको को जिन्होने आर्हती सस्कृति को सदा जिन्दा बनाये रखने के लिए इस प्रकार की आवश्यक सस्था खडी की । जैन पाठावली का यह तृतीय भाग आपके सामने है । भाषा और भाव में परिवर्तन परिवर्द्धन की आवश्यकता दिखाई देने हुए भी समय की स्वल्पता के कारण पूर्ववत् ही प्रकाशित करना पसन्द किया गया है। भविष्य में सर्वागीण गुणो से सुसज्ज पाठावली आप तक पहुँचाने में समर्थ हो सकूंगा, इसी भावना के साथ -- --मुनि सुशील Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ विषयानुक्रमाणका । पाठ विपय आवश्यक प्रथम आवश्यक-सामायिक इच्छामि ठाइउ काउस्सग्ग दूसरा और तीसरा आवश्यक अतिचारो की समझ चौथा आवश्यक जान or orur 2 0 22M222222 दर्शन सम्यक्त्व का अर्थ दंसण-सम्मत्त चारित्र पांच आचार साधना की तीसरी सीढी . पहला अहिंसाप्रत और उसकी मर्यादा पहला अणुगत दूसरा सत्यव्रत दूसरा अणुव्रत तीमरा अस्तेयव्रत तीसरा अणव्रत चौथा ग्रह्मचर्यरत चाया अणुव्रत पांचवां परिग्रह परिमाणवत पांचवां अणुव्रत तत्त्व विभाग पुण्यतत्व और पापतत्त्व आप्रवतत्त्व सपरतत्त्व तीय on or Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " urr । १२२ १३० १३७ १४४ rr-sur 2 V_०१ १५२ १५९ १६७ (२) निर्जरातत्त्व वधतत्त्व मोक्षतत्त्व कथा विभाग सती चन्दनवाला सती द्रोपदी सती दमयन्ती सुवाइकुमार स्थूलभद्र नेमि-राजुल वीर धन्ना समभावी मुनि मेतार्य थेणिक नन्दनमणियार जम्बू स्वामा सम्राट् सम्प्रति सती मुभद्रा . लकऋपि गजमुकुमार काव्यविभाग प्रात प्रार्थना प्रभुका नाम-रसायन पांच इन्द्रियो के विषय प्रभ महावार देखो रे देयो रे जैनी भावना धन मेरी भावना १७६ १८० १८५ १९२ . २०० २०५ २११ . २१६ २२२ . M २२३ २२४ ૨૨૬ ૨૨૭ 1 or 2 २२८ २२९ . २३० Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । जैन पाठावली (तीसरा भाग) सत्रविभाग --000-10 पहला पाठ आवश्यक जैनो के लिए जिन धार्मिक क्रियाओ को प्रतिदिन करना आवश्यक है, उन क्रियाओ का समावेश 'आवश्यक' में किया गया है। ___आवश्यक अर्थात् करने योग्य जरूरी काम । ऐसे जरूरी काम शास्त्र मे छ. बतलाये गये है। इन छ। कामो या क्रियाओ का वर्णन 'आवश्यकसूत्र' में किया गया है। जैनो. के मूल आगम-सूत्र बत्तीस है । उनमे आवश्यकसूत्र अतिम है । छह आवश्यक इस प्रकार है: (१)सामायिक (२) चतुर्विशतिस्तव (चलवीसंथवो) (३) वंदना (४)प्रतिक्रमण (५) कायोत्सर्ग और (६) प्रत्याख्यान । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( तृतीय भाग (१) सामायिक के विपय मे तुम काफी जान चुके हो। मन को समभाव में रखने की क्रिया 'सामायिक' कहलाती है। हम लोगो को दिन भर बहुत-से कामो मे लगा रहना पड़ता है। फिर भी २ घडी (४८ मिनिट) सामायिक के लिये नियत कर ही लेना चाहिए, जिससे हमारा मन पवित्र बने । अच्छी भावनाएँ आवे और दूसरो पर दया तथा प्रेम उत्पन्न हो । इस प्रकार सामायिक एक उत्तम क्रिया गिनी जाती है। (२) दुसरी क्रिया 'चउवीसथवो' कहलाती है। इसमे चौवीसो तीर्थकर भगवान् की स्तुति की जाती है। भगवान् की स्तुति करने से हमे वैसा ही बनने की इच्छा होती है। (३) तीसरी आवश्यक क्रिया 'वंदना' है । इस आवश्य मे गुरु को वदना की जाती है । वदना अर्थात अपनी शुभ भावना और नम्रता दिखलाने की रीति । (४) चौथा आवश्मक 'प्रतिक्रमण' है । प्रति अर्थात् पीछा और क्रमण अर्थात् फिरना । प्रतिक्रमण का अर्थ हुआ-पीई फिरना। जब हम दूसरे गांव को जाना चाहते है तो पहले दिश देख लेते हैं । फिर भी इस बात को सावधानी रखते हैं कि कही राह भूल न जाएं । इतने पर भी दूसरो से रास्ता पूछपूछ कर चलते है । फिर भी अगर रास्ता भूल जाएं तो उमी समय वापिस लोट कर ठीक रास्ते पर आ जाते है । इसी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) तरह हम लोग मोक्ष में जाना चाहते हैं। मोक्ष में जाने के लिए छ आवश्यक उपयोगी है। हम से कोई भल होती है तो हमे दुख होता है और फिर ऐसी भूल न करने की इच्छा होती है । इसी लिए प्रतिक्रमण सावधानी का मुख्य मार्ग है। (५) पांचवां आवश्यक काउस्सग्ग' है । काया (देह) का भी मोह छोडकर धर्मध्यान में स्थिर होना 'काउस्सग्ग' यी कायोत्सर्ग' कहलाता है। (६) छठा आवश्यक ' पच्चक्खाण' है । इसे प्रत्याख्यान भी कहते है । त्याग का नियम लेना प्रत्याख्यान कहलाता है। इन छहो आवश्यकोका आशय यह है, कि हम असत्य का त्याग करके सत्य को ग्रहण करे । यद्यपि ये छहो आवश्यक जुदा-जुदा हैं, फिर भी प्रतिक्रमण उनमें मुख्य है। प्रतिक्रमण में बहुत-सी जानने योग्य वस्तुएँ हमे मिलती है। ऊपर बतलाये हुए आवश्यको को स्वतंत्र रूप से अलगअलग किया जा सकता है । सामायिक चाहे जव की जा सकती है। पच्चक्खाण भी चाहे जब किया जाता है। लेकिन एक साथ सब आवश्यक करने से सुविधा भी रहती है और अधिक आनन्द भी आता है । इसी कारण प्रतिकमण करते समय सभी आवश्यक एक साथ किए जाते है। छह आवश्यको का क्रम ऊपर बतलाया गया है, उसमे Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४). ( तृतीय भाग विशेष प्रयोजन है । इस विषय मे आगे चलकर कहा जायगा। शास्त्र मे, प्रतिदिन दो वार प्रतिक्रमण करने का विधान है-सुबह और शाम को। शाम के प्रतिक्रमण मे दिन सम्बधी दोषो की और सुबह के प्रतिक्रमण मे रात्रि के समय किये हुए दोषो की क्षमा याचना की जाती है। इसके अतिरिक्त. 'पाक्षिक प्रतिक्रमण, चातुर्मासिक प्रतिकमण और 'सावत्सरिक प्रतिकमण, इस तरह प्रतिकमण के भेद किये गये है। war zun दूसरा पाठ प्रथम आवश्यक--सामायिक सूचना-जिन्हें दो घडी तक की पूरी सामायिक करनी होती है वे पहले से मामायिक लेकर ही बैठते हैं। ऐसा करना ठीक भी है। क्योकि विधिपूर्वक प्रतिक्रमण करने मे दो घडी का समय लग जाता है। अतएव सामायिक लेकर ही प्रतिक्रमण करना अधिक अच्छा है। १ प्रतिमान मुदीपूर्णिमा और बदी अमावस को किया जाता है। २ कार्तिक, फाल्गुन और आपाढ की पूर्णिमा को किया जाता है। ३ प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ला ५ ( सवत्सरी ) को किया जाता है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , जैन पाठावली) सामायिक लेकर बैठने के वाद, प्रतिक्रमण को प्रारभ करते समय, खडे होकर, हाथ जोडकर, विधि के साथ, तीन बार वदना करके, पहले आवश्यक की आजा मांगनी चाहिए। वदना करते समय एक बात ध्यान में रखनी चाहिए । अगर हम साधु-मुनिराजो की मौजूदगी में बैठे हो तो उन्हे वंदना करनी चाहिए। साधु-मुनिराज न हो तो पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके श्रीसीमधर स्वामी को वन्दना करनी चाहिए। आज्ञा लेने के बाद खडे होकर वे पाठ बोलने चाहिए, जिन्हे तुम सामायिक की विधि मे सीख चुके हो । इसे 'क्षेत्रविशुद्धि' कहते हैं । प्रतिक्रमण की आज्ञा मांगने के वाद, प्रथम आवश्यक में नीचे के पाठ बोलने चाहिए - १-'इच्छामि ण भन्ते' का पाठ । २-'करेमि भन्ते ।' का पाठ । ३-'इच्छामि ठामि काउस्सग्ग' का पाठ । . ४-'तस्स उत्तरी' का पाठ बोलकर , ५-काउस्सग में ९९ अतिचारो का चिन्तन करना और नवकार मन्त्र का पाठ बोलकर काउस्सग्ग पूरा करना । यह सामायिक आवश्यक प्रतिक्रमण के साथ ही है । इसलिए कितनेक स्थलो मे, काउस्सग्ग में चार लोगस्स के बदले निन्यानवे अतिचारो के चिन्तन का रिवाज है। ये सब अतिचार चौथे आवश्यक में बतलाए जाएंगे। इतनी विधि के बाद पहला आवश्यक पूर्ण हो जाता है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६) 'इच्छामि णं भन्ते' का पाठ इच्छामि णं भन्ते ! तुमेह अब्भणुष्णाएसमाणे देवसियं पडिक्कमणं ठाएमि, देवसिय नाण- दंसण-चरिताचरित -तव- अइयार - चितवणत्यं करेमि काउस्सग्गं । अर्थ मूल भन्तेतुमेहअभगुण्णाएसमाणेदेवसियं पडिक्कमणं ठाइउं इच्छामि - देवसिय नाण- दंसणचरिताचरित-तवअइयार - चितवणत्थं करेमि काउस्सगं I हे पूज्य आपके द्वारा आज्ञा मिलने पर दिवस सवधी प्रतिक्रमण को करने की इच्छा करता हूँ दिवस सम्वन्धी ज्ञान दर्शन देश, चारित्र और तप के अतिचार का चिन्तन करने के लिए कायोत्सर्ग करता हूँ विवेचन - ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, ये आत्मा के मूल स्वभाव को प्राप्त करने के साधन है । आत्मा अपने dedoph सायकाल के प्रतिकमण से देवसिय बोला जाता है । प्रात काल के पाक्षिक चौमामी सत्रत्मरी 11 17 " : ( तृतीय भाग राइय पक्खिय नाउम्मानिय सवच्छ रिय 11 23 21 31 11 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन पाठावली) मूल स्वभाव को भूला हुआ है। इसी कारण आत्मा ससार में भटक रहा है और कष्ट पाता है। इसलिए यहाँ मूल स्वभाव का स्मरण करने का विचार है। आत्मा की पहिचान, ज्ञान प्राप्त करने के आठ नियमो का ( जिनका वर्णन आगे किया जायगा) वरावर पालन करने से और चौदह अतिचारो का त्याग करने से होती है। ___दर्शन के अनेक अर्थ है । सामान्य ज्ञान भी दर्शन कहलाता है और श्रद्धा को भी दर्शन कहते है। श्रद्धा को मजबूत बनाने के लिए आठ नियमो का ध्यान रखना पड़ता है और उनका पालन करना पडता है । उनके विषय मे अगर कोई अतिचार लगा हो, कोई भूल हुई हो तो उसे दूर कर देना चाहिए । ऐसा करने से सच्ची श्रद्धा बढती है। चारित्र का अर्थ है, आत्मा में रमण करना, तो का पालन करना, जीवन की कला को समझना और मृत्यु के अवसर पर समभाव धारण करके मत्युको सुधारना। चरित्र मे लगने वाले दोपो से दूर रहना । ऐसा करने से चारित्र-गुण वढता है। साधु के ब्रतो को चारित्र कहते है और श्रावक के व्रत चरित्ताचरित (चारित्र-अचारित्र अर्थात एकदेश चारित्र) कहलाते हैं। तप, कर्मरूपी लकडियो को जलाने की भट्ठी है । तप के २ भेद है-वाह्य तप और आभ्यन्तर तप । दोनो तरह के तपो का ठीक-ठीक पालन करने से और उनमें किसी प्रकार का दोप न लगने देने से तप विकसित होता है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( तृतीय भाग इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप- ये चारो मोक्ष के मार्ग है । इनका विशेप विवरण आगे दिया जायगा। इस पाठ द्वारा गुरुदेव से दिवस-सबधी प्रतिक्रमण करने की आज्ञा मांगी जाती है ज्ञान, दर्शन,चारित्र और तप की प्रार्थना करते हुए, अपने से हुई भूलो को समझने के लिए 'काउस्सग्ग' करने की इच्छा की गई है। । पाठ तीसरा ___ इच्छामि ठाइडं काउम्सग्गं ( अतिचार चिन्तन की इच्छा ) पाठ का हेतु : इस पाठ मे दिवस सम्बन्धी दोषो की आलोचना है । आलोचना अर्थात् विचार या खोज । अपने आपकी खोज करना अपनी असलियत का विचार करना। जैसे मैं जैन श्रावक हूँ मुझे श्रावक के व्रतो का पालन करना ही चाहिए । जैन सूत्रो का स्वाध्याय करना ही चाहिए । सत्य के मार्गपर चलना ही चाहिए । जो कत्र्तव्य कार्य है वह मेरे द्वारा होना ही चाहिए। ज्ञान, दर्शन और श्रावक के चारित्र सम्बन्धी व्रतो को पालना ही चाहिए। मुझे शुभ ध्यान धरना चाहिए। अशुभ ध्यान त्यागना चाहिए । __ अगर ऐसा न हुआ हो तो इस बात का विचार करके भविष्य में फिर कभी ऐसा न हो और इस समय जो कुछ हो गया है उसका फल मुझे न मिले, इस प्रकार की भावना करने का यह पाठ है: Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली ) मूल पाठ इच्छामि ठाइउं काउस्सग्गं, जो मे देवसिओ अइयारो कओ, काइओ, वाइओ, माणसिओ, उस्सुत्तो उम्मग्गो, अकप्पो, अकरणिज्जो, दुज्झाओ, दुविचितिओ, अणायारो अणिच्छियव्वो, असावगपाउग्गो, नाणे तह दंसणे, चरित्ताचरिते, सुए, सामाइए, तिन्हं गुत्तीणं, चउण्हं कसायाणं पंचण्हमणुव्वयाणं, तिन्हं गुणव्वयाणं, चउण्हं सिक्खावयाणं वारस विहस्स सावगधम्मस्स जं खंडियं, जं विराहिअं तस्स मिच्छामि दुक्कडं | मूल अर्थ इच्छामि ठाइउं काउस्सग्गं कायोत्सर्ग मे स्थिर होने की जो मे देवसिओ अइयारो कओ -- काइओ-वाइओ- माणसिओ- उस्सुतो-उम्मग्गो- 1 इच्छा करता हूँ मैने दिन सम्बन्धी जो अतिचार (सेवन) किया हो काया सबधी ( अविनय करना आदि ) वचन सबधी ( असत्य बोलना, अप शब्द वोलना ) मन सम्बन्धी ( क्रोध करना, बुरी इच्छा करना आदि ) सूत्र से विरुद्ध वर्ताव किया हो गलत मार्ग अस्तियार किया हो Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०) ( तृतीय भाग अर्थ अकप्पो अकरणिज्जोदुज्झाओ दुविचितिमोअणायारो अणिच्छियवो-.. असावगपाउग्गो अकल्पनीय काम किया हो । न करने योग्य काम किया हो खराव ध्यान ( आर्त और रोड ध्यान ) किया हो। अशुभ चिंतन किया हो आचरण न करने योग्य काम क आचरण किया हो अनिच्छनीय की इच्छा की हो श्रावक को न शोभे, ऐसा कृत्य किया हो ज्ञान और सम्यक्त्व के विपय में श्रावक के चरित्र के विषय में सूत्रधर्म और सामायिक के विषय में कतीन गुप्ति सम्बन्धी x चार कपायो द्वारा नाणे तह दसणेचरित्ताचरित्तेसुए, सामाइएतिण्हं गुत्तीणंचउपहं कसायाणं - तीन गुप्ति- (१) मनगुस्ति (२) वचनगुप्ति और (३) गुप्ति । गुप्ति का अर्थ है-गोपना अर्थात् खराव रास्ते जाते हुए को रोकना । " x चार कपाय-~-क्रोध, मान, माया, लोभ । कप आय जिसमे ल चिपके वह वपाय है । क्रोध आदि से आत्मा में कर्म पी मैल चिपकता है, इसलिए ये कपाय कहलाते है । इनके द्वारा जो पाप हुआ हो । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) . अर्थ पंचण्हं अणुव्वयाणं- ___पाच 'अणुव्रतो का तिण्हं गुणव्वयाणं तीन गुणवतो का चिउण्ह सिवखाक्याणं- चार शिक्ष'व्रतो का वारसविहस्स सावगधम्मस्स-बारह प्रकार के श्रावकधर्म का १ अणुव्रत अर्थात् छोटे व्रत । साधुओ के व्रत महावत ___ कहलाते हैं, क्योकि उनमें हिंसा, असत्य आदि पापो की, किसी भी प्रकार की छूट नही रहती-हिंसा आदि का जीवनपर्यन्त पूर्ण रूप से त्याग किया जाता है । मगर श्रावक-श्राविकाओ के व्रत एकदेशीय है, उनमे पापो का सर्वथा त्याग नही किन्तु मर्यादित ; त्याग किया जाता है। २ वारह व्रतो में से ६-७-८वा व्रत तो गुणव्रत कहलाता है। ३ वारह ब्रतो में से ६-१०-११-१२ वां ये चार शिक्षावत कहलाते हैं। ४ बारह व्रतो के नाम(१) प्राणातिपातविरमण व्रत-हिंसा का त्याग करना । (२) मृपावाद , - असत्य का , (३) अदत्तादान , -चोरी का , (४) मैथुन -मथुन सेवन का,,(ब्रह्मचर्य पालना) (५) परिग्रहपरिमाणवत-परिग्रह की मर्यादा करना। (६) दिपरिमाणवत- दिशाओ मे आने जाने की मर्यादा करना । (७) उपभोग-परिभोगपरिमाणवत-एक वार उपयोग में आने वाली तथा बारबार उपयोग - - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३) . मूल जं खंडियंजं विराहियंतस्स निच्छा मि दुक्कडं- ( तृतीय भाग अर्थ जो खडन हुआ हो जो विराधना हुई हो उस दुष्कृत का फल मिथ्या है मे आने वाली वस्तुओं व मर्यादा बाधना (८) अनर्थदण्डविरमणव्रत-जिन वृथा कार्यों से आत को दडित होना पडता है उनका त्याग करना (९) सामायिकवत-आत्मा को समभाव मे रखने का वर (१०) देशावकाशिकव्रत-भूमि और द्रव्यो की मर्या करने का व्रत (११) प्रनिपूर्ण पोपधव्रत-एक रात-दिन तक उपवा करके आत्मा मे रमण करने का ६ (१२) अतिथिसंविभागवत- जिनके आने की निश्चि तिथि नहीं है, ऐसे अपरिग्रः पुरुपो को अपने आहार आ में से हिम्सा देने का व्रत । सूचना:- यह 'इच्छामि ठाइ' का पाठ बोलने के वा । तस्स उत्तरी ' का पाठ वोलप र निन्यानवे अतिचारो व 'काउस्मग्ग' करना चाहिए । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली ) पाठ चौथा दूसरा और तीसरा आवश्यक चौवीस तिर्थंकरो की स्तुति : ( १३ सूचना:- पहला आवश्यक पूरा होते ही, खडे होकर, पहले आवश्यक में बतलाई हुई विधि के अनुसार दूसरे आवश्यक की आज्ञा मांगनी चाहिए । आज्ञा मांगकर ' लोगस्स' का पाठ बोलना चाहिए। लोगस्स के पाठ से चौवीस तीर्थंकरो की स्तुति होती है । तीसरा आवश्यकवंदना : सूचना- पहले बतलाये अनुसार इस आवश्यक के लिएआज्ञा माँगनी चाहिए | इस आवश्यक में गुरुदेव को वदना की जाती है । मन, वचन या काय से गुरुदेव के प्रति किसी प्रकार की अविनय आशातना, अभक्ति, या अपराध हुवा हो तो उसके लिए गुरु-देव से क्षमा मागनी चाहिए । अगर मत - गुरुदेव मौजूद हो. तो उनके . सामने और यदि मोजूद न हो तो मन से गुरुदेव को सामने रखकर नीचे लिखी विधि के अनुसार यह आवश्यक करना चाहिए । विधि - आज्ञा माँगने के बाद उकडू आमन ( गोदुहासन ) से बैठकर 'इच्छामि नमासमणो' का पाठ दो वार बोलना चाहिए। इतना करने से तीसरा आवश्यक पूरा हो जाता है । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४) ( तृतीय भाग 'इच्छामि खमासमणो' का पाठ इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए, अणुजाणह मे मिउग्गहं नितीहि अहो कायं कायसंफासं, खमणिज्जो भे! किलामो, अप्पकिलंताण, बहुसुभेणं भे! दिवसो वइक्कतो ? जत्ता भे जवणिज्जं च भे! ___ खामेमि खमासमणो ! देवसि वइक्कम, आवस्सियाए पडिक्कमामि, खमासमणाणं देवसिआए आसायणाए तित्तीसन्नयराए जं किंचि मिच्छाए मणदुक्कडाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए, कोहाए, माणाए, मायाए, लोहाए, सव्वकालिआए, सम्वमिच्छोवयाराए, सवधम्माइक्कमणाए,आ सायणाए,जो मे देवसिओ अइगरो कओ, तरस खमासमणो? पडिक्कमामि, निदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि । मल इच्छामि खमासमणो! वंदिउं-हे क्षमावत श्रमण | मै वन्दना करना चाहता हूँ जावणिज्जाए (शरीर की) शक्ति के अनुसार निसीहिआए (शरीर को) पाप क्रिया से हटाकर अणुजाणह अनुजा-आज्ञा-दीजिए मे मिउग्गह मुझे परिमित अवग्रह की (माहे तीन हाथ प्रमाण क्षेत्र की) निसीहि पाप किया रोकर अर्थ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) अर्थ भे अहोकाय- . (आपके) अधोकाय-चरणो का कायसंग.स- अपने काय मस्तक-से स्पर्श (करता हूँ) खमणिज्जो क्षमा के योग्य हैं आपको (मेरे स्पर्श से) किलामो बाधा-पीडा हुई हो, वह अप्पकिलंताणं अल्प ग्लान-अवस्था में रह कर बहसुभेण भे ! दिवसो- आपका दिवस बहुत समाधि से वइक्कतो? व्यतीत हुआ है ? जत्ता भे? आपकी सयम यात्रा (निर्वाध है? ) जवणिज्जं च भे?- आपका शरीर (मन व इद्रियो की) पोडा से रहित है ? खामेलि खसासमणो !- हे क्षमावान् श्रमण खमाता हूँ देवसिअ वइक्कम- दिवम सबधी अपराधो को आवस्सिाए- आवश्यक मे हुए विपरीत मनुष्ठान से पडिक्कमामि निवृत्त होता हूँ खमासमणाणं क्षमा श्रमण की देवसिआए-- दिवस सम्बधी आसायणाए तित्तीसन्नयराए-तेतीस मे मे किमी भी आसातना से जं किचि मिच्छाए-- जो कोई मिथ्याभाव से की हो Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अर्थ (दुष्ट मन, बस १६) . ( तृतीय भाग . मूल मणदुक्कडाए वयदुक्कडाएट मन, वचन कार्य से की हुई दुक्कडाए कोहाए माणाए- क्रोध से, मान से मायाए लोहाए-- माया से लोभ से की हुई सव्वकालियाए-- सर्व काल सम्बन्धी सव्वमिच्छोवयाराए-- सब प्रकार के मिथ्या उपचार से भरी हुई सव्वधम्माइक्कमणाए- सर्व धर्म का उल्लघन करने वाली आसायणाए आसातना से जो मे देवसिओ-- जो मैने दिवस सम्बन्धी अइयारो कओ-- अतिचार किया हो । तस्स खमासमणो हे क्षमा--श्रमण | उसका पडिक्कमामि-- प्रतिक्रमण करता हूँ (निवृत होता हूँ) निदामि गरिहामि-- निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूँ अप्पाणं वोसिरामि- आत्मा को(पापप्रवृत्ति) से हटाता हूँ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) पाठ पाँचवाँ अतिचारों की समझ अतिचारो का चिन्तन करने के विपय में विचार किया जा चुका है। तीसरे पाठ मे उन्ही के सम्बध मे भावना करने के बाद ज्ञान, दर्शन. चारित्र तथा तप सम्बन्धी अतिचारो का कायोत्सर्ग मे चिंतन करना चाहिए । अतिचार आगे कहेगे। अतिचार का अर्थ है दोप, भूल अथवा जो विरोध हुआ हो वह । सभी व्रतो के अतिचार होते है । किसी भी व्रत मे भूल होने की चार सीढियाँ है - अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार। अर्थ (१) अतिक्रम (व्रत को भग) करने का विचार मात्र करना (२) व्यतिक्रम- (व्रत को भंग) करने के लिए सामग्री इकट्ठी करना (३) अतिचार- व्रत को आगिक रूप से भग करना (४) अनाचार- व्रत को पूरी तरह भग कर देना व्रत-भग की ये चारो भूमिकाएँ अतिचार कहलाती है । इन चारो में प्रम से अधिक-अधिक पाप होता है । अतिप्रम की अपेक्षा व्यतिक्रम मे, व्यतिक्रम की अपेक्षा अतिचार Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८), ( तृतीय भार्ग मे, अतिचार की अपेक्षा अनाचार मे अधिक पाप है, अनाचा मे तो व्रत पूरी तरह भग हो जाता है । ज्ञान के चौदह अतिचार है। दर्शन के पांच अतिचार है । तप के पांच अतिचार है । चान्त्रि के पचहत्तर अतिचार है। इस तरह सब मिलकर ९९ अतिचार होते है। इन ९९ अतिचारो का कायोत्सर्ग में चिन्तन किया जाता है । पाठ छठा चौथा आवश्यक यहाँ से 'प्रतिक्रमण' नामक चौथा आवश्यक आरम्म होता है । पहले के तीन आवश्यको की तरह इस चौथे आवश्यक की भी आना लेनी चाहिए। प्रत्येक आवश्यक के समय आज्ञा मांगने का विधान है। इसका कारण यह है कि आज्ञा लेने से दृढता बढती है । अकसर बड़े आदमी के सामने हम भूल नहीं होने देते । कदाचित् भूल हो जाती है तो उसके लि माफी मांगते है । इसी प्रकार गुरु महाराज की आज्ञा लेक आवश्यक करने से सावधानी और रुचि के साथ गावश्यक करने की प्रेरणा मिलती है। ज्ञान के भेद :. ज्ञान का अर्थ " नात्मा तथा जड़ की पहचान" किया ज Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = जैन पाठावली) चुका है। आत्मा को जानना ही सच्चा जान है। जब तक आत्मा का स्वरूप नहीं जाना जाता तब तक ज्ञान, अज्ञान है। समस्त पदार्थो का परिपूर्ण ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है। केवलज्ञान के सिवाय चार ज्ञान और है । सव मिलाकर पांच ज्ञान इस प्रकार है (१) मतिज्ञान (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) मनःपर्यायज्ञान और (५) केवलज्ञान । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, किसी भी सम्यग्दृष्टि जीव को हो सकते है । सम्यग्दृष्टि जीव वह है जिसे आत्मा के स्वरूप का भान हो गया हो । जो जीव सम्यग्दृष्टि नहीं है उन्हे भी ये तीन ज्ञान प्राप्त होते है, मगर सम्यग्दर्शन न : होने के कारण वे अज्ञान अर्थात् मिथ्याज्ञान कहलाते है । उनके . ज्ञान मति-अज्ञान, श्रुत-अनान और विभगज्ञान कहे जाते हैं । : ऐसे अज्ञानियो में चाहे जितना ज्ञान क्यो न हो, मगर • आत्म-कल्याण में वह उपयोगी नही होता। मन पर्यायनान प्रमाद से रहिन सकल चारित वाले . सम्यग्दृष्टि पुरुषों को ही होता है । केवलज्ञान उन महापुरुषो को प्राप्त होता है जो मोह को सर्वथा नष्ट करके पूर्ण वीतराग बन जाते है । केवलज्ञान प्राप्त होने पर वह महापुरुप केवली या अरिहत कहलाते है । मन पर्यायज्ञान और केवलज्ञान मिथ्याप्टि वाले जीवो को प्राप्त नहीं होते । अतएव जैसे मतिजान का विपरीत मति-अज्ञान बतलाया गया है. वैमा इन दोनो सानो का विपरीत नही हो सकता। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०) ( तृतीय भाग ज्ञान और अज्ञान ( मिथ्याज्ञान) मे और कोई भेद नहीं है सिवाय इसके कि ज्ञान सम्यग्दृष्टि को होता है और अज्ञान मिथ्याप्टि को । यह एक महत्त्वपूर्ण भेद है । जो अपने ज्ञान को सम्यग्ज्ञान बनाना चाहता है उसे आत्मा को पहचानना चाहिए- सम्यग्दर्शन प्राप्त करना चाहिए । इस प्रकार पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान है। यह आठ भेद ज्ञानोपयोगी कहलाते हैं ।-- दर्शन के भेद पहले कहा जा चुका है कि दर्शन का अर्थ देखना भी है और सामान्य रूप से जानना भी है। यहाँ दर्शन का अर्थ सामान्य ज्ञान समझना चाहिए । दर्शन के चार भेद हैं -- मल अर्थ (१) चक्षुर्दर्शन-- आँख से जो सामान्य ज्ञान हो । (२) अचक्षुदर्शन-- आँख के सिवाय किसी भी दूसरी इन्द्रिय से अथवा मन से होने वाल सामान्य ज्ञान । (३) अवधिदर्शन- इन्द्रियो की महायता के विना स्वर आत्मा से ही रूपी पदार्थो के विशेष जान मे पहले होनेवाला सामान्यज्ञान (४) केवलदर्शन- केवल लब्धि में होने वाला समस्त पदार्थो का मामान्य बोध । उपयोग क्या है :-- ज्ञान, अनान और दर्गन मिलकर कुल बारह भेद हुए । इन नबो " उपयोग " कहते है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) २१) उप अर्थात नजदीक, योग अर्थात जोडना । जो आत्मा के निकट जड़े हुए है, उन्हे उपयोग कहते है । ऐसा कोई आत्मा नही है जिसमे पूर्वोक्त बारह उपयोगो मे से थोडे-बहुत उपयोग न हो। उपयोग का सामान्य अर्थ है जानना । और ऐसा कोई आत्मा नहीं है जो जानता न हो। सच्चा, झूठा, थोडा या वहुन जान प्रत्येक आत्मा मे होता ही है । जान न हो तो आत्मा ही न रहे-जड हो जाय । इसी कारण शास्त्रकारो ने x उपयोग को जीव का लक्षण बतलाया है । ऊपर वतलाये हुए वारह उपयोगों में से केवलज्ञान और केवल दर्शन-ये दो उपयोग तो पूरी तरह विकास को प्राप्त आत्मा में ही होते हैं। शेष १० उपयोग उन आत्माओ में होते है जिनका पूर्ण विकास नहीं हो पाया है । मगर किसी आत्मा मे कम और किसी में ज्यादा होते है । योग और उसके भेद - ज्ञान और दर्शन आत्मा से अत्यन्त निकट होने के कारण उपयोग कहलाते है । मगर मन, वचन और काय, ये तीनो उपयोग के भी साधन होने के कारण 'योग' कहलाते है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के अभाव में केवल ज्ञान नही हो सकता । और मन, वचन और काय न हो तो मतिज्ञान-श्रुतज्ञ न नहीं होते। इसलिए मन, वचन और काय को योग कहते है । यद्यपि योग तीन हैं मगर विशेष भेदो को देखते हुए उनके पन्द्रह भेद इस प्रकार होते है उपजोगलक्सणे जीवे- ( भगवती मूत्र ) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२) (तृतीय भाग (१) मनोयोग के चार भेद. (१) सत्य मनोयोग (२) असत्य मनोयोग (३) मिश्रमनोयोग (४) व्यवहार मनोयोग । (२) वचनयोग के चार भेदः- . (१) सत्य वचन योग (२) अमत्य वचन योग (३) मिश्र वचन योग (४) व्यवहार वचन योग । (३) काययोग के सात भेदः (१) औदारिक शरीर काय योग (२) औदारिक मिश्रशरीर काय योग (३) वैक्रिय शरीर काय योग (४) वैक्रिय मिश्र शरीर काय योग (५) आहारक शरीर काय योग (६) आहारक मिथ शरीर काय योग (७) कार्मण गरीर काय योग । शरीर के पाँच भेद हैं । इनका व्योरेवार वर्णन आगे किया जायगा । इन योगो द्वारा ही कर्मों का वध होता है और इसी से ससार है । जव आत्मा को योग रहित दशा प्राप्त होती है, तभी आत्मा ससार से छुटकारा पाता है। तभी यह सिद्ध और बुद्ध होता है। योग और उपयोग के विषय में इतना जान लेने के बाद फिर हम ज्ञान की तरफ झुके । ज्ञानविकास के आठ नियम: आत्मा के ज्ञान-गुण का विधान करने के लिए इन आठ नियमो पर ध्यान रखना चाहिए । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन पाठावली) (१) योग्य समय पर ज्ञान प्राप्त करना। (२) जिनसे ज्ञान प्राप्त करना है उनकी सेवा करना । ऐसा करने से ज्ञान सिखाने वाले का प्रेम वढता है और उस प्रेम के कारण सिखाने वाला अपना ज्ञान शिष्य ( सीखनेवाले) को देता है। (३) सिखाने वाले गुरु का बहुमान करना चाहिए । सच्चे दिल से गुरु पर स्नेह रखना चाहिए । गुरु पर प्रेम हो । तभी विद्या मिलनी है । इस विषय मे एकलव्य का और राजा श्रेणिक का उदाहरण प्रसिद्ध है। (४) तप करना चाहिए । अर्थात् इच्छाओ को काबू मे रखना चाहिए । ऐसा करने से जान सफल होता है । (५) जिससे ज्ञान प्राप्त किया हो उसका नाम छिपाना नही चाहिए । गुरु का नाम छिपाना एक प्रकार की चोरी है। इससे ज्ञान की हानि होती है। (६) शास्त्रो मे या गुरु के वचन में स्वच्छद होकर, दभ के कारण पाठ में फेरफार नहीं करना चाहिए। (७) स्वार्य के लिए मनमाना अर्थ नहीं निकालना चाहिए। (८) ज्ञानी पुरुप की झूठी निन्दा नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने से ज्ञान की प्राप्ति में वाधा पटती है। ज्ञान के अतिचार: पास्त्र का ज्ञान प्राप्त करने के लिए ऊपर बतलाये आठो नियमो का ध्यान रखना आवश्यक है। इसमें मल होने पर ज्ञान प्राप्त करने में बहुत कठिनाई होती है । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ततीय भाग - - शास्त्रज्ञान के तीन भेद है:-- (१) सूत्रज्ञान (२) अर्थज्ञान (३) उभयज्ञान । (१) ज्ञान प्राप्त करते समय अकसर शब्द के उच्चारण की कठिनाई आती है। शुद्ध उच्चारण करने का भी खयाल नही रक्खा जाता । अशुद्ध उच्चारण करना शास्त्रकारो ने बडे से वडा दोप माना है। अतएव शास्त्र का पाठ सिखाते समय सिखाने वालो को और सीखने वाले को उच्चारण की ओर खूब ध्यान देना चाहिए । `खीखने के बाद भी उतावल नही करना चाहिए । ऐसा करने से अशुद्धि होते देर नहीं लगती। अक्षर भी उलट-पलट हो जाते है और पद के पद छूट जाते है । और फिर अर्थ समझने में भी भूल हो जाती है। (२) ज्ञान प्राप्त करते समय उच्चारण की शुद्धता के अतिरिक्त्त ध्यान की भी आवश्यकता है। पाठ का उच्चारण करते समय अगर पाठ के अर्थ में मन वचन काय को लगा न दिया तो पाठ करना वेकार हो जाता है। ऐसा न करने से न तो पाठ करने वाले को ही आनन्द आता है और न किया हुआ परिश्रम सार्थक होता है । एक ध्यान मे मामायिक करने पर वेडा पार हो जाता है । ध्यान के अभाव में किया हुआ तप भी समार मे घुमाता है। इसलिए जान प्राप्त करते समय इस तरफ भी पूरा ध्यान रखना चाहिए। (३) तीगरी वात है अभ्याम के समय की। नियम नही हो तो अभ्यास में प्रमाद होता है। अत जान प्राप्त करने वाले अभ्यासी चा विद्यार्थी के लिए नियम की बहुत आवश्य-- कता है । अभ्यास के लिए जो समय नियत है, उस समय को अगर मोज-मजा करने या किसी दूसरे काम में बिता दिया Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५ जैन पाठावली ) जाय तो ज्ञान प्राप्त नही होता । उदाहरणार्थं सुबह में अभ्यास करने के लिए बैठने वाला विद्यार्थी, दोपहर मे शायद ही कर सके । इसी कारण ज्ञानी पुरुष समय देखकर काम करने के लिए कहते है । ऐसा न करने से ज्ञान में दोप लगता है । सातवाँ पाठ ज्ञान 1 ' दिवस सम्बन्धी ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के विषय में जो अतिचार लगे हो, उनकी आलोचना करता हूँ । प्रकार कहकर नीचे लिखा पाठ बोलना चाहिए इस मूलपाठ आगमे तिविहे पन्नत्ते, त जहा : सुत्तागमे, अत्थागमे, तदुभयागमे, एअस्त सिरिनाणस्स जे अइयारा लग्गा ते आलोएमि । (१) जं वाइद्धं ( २ ) वच्च सेलियं, (३) होणरखरं (४) अच्चरखर ( ५ ) पयहीणं (६) विणयहीण ( ७ ) जोगहीणं (८) घोसहीणं ( ९ ) सुट्ठदिनं (१०) दुट्ठपडिच्छियं ( ११ ) अकाले कओ सज्झाओ (१२) काले न कओ सज्झाओ (१३) असज्झाइए सज्झाय (१४) सज्झाइए न सज्झायं तस्स मिच्छा मि टुक्कडं । 1 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६) (तृतीय भाग अर्थ आगमे तिविहे पन्नत्ते- आगम तीन प्रकार का कहा गया है तं जहा वह इस प्रकार है सुत्तागमे सूत्र शब्द रूप आगम अत्यागमे अर्थ रूप आगम तदुभयागमे- दोनो प्रकार का ( सूत्र और अर्थ रूप) आगम एअस्स सिरिनाणस्स- इस श्री ज्ञान के विषय में जे अइयारा लग्गा- - जो अतिचार लगे हो ते आलोएमि- उनकी आलोचना करत जं वाइद्ध (१) अगर सूत्र आगे पीछे बोला हो वच्चामेलिय- (२) एक पद को दूसरे पद मे मिला कर पढा हो । हीणक्खरं- (३) अक्षर कम बोले हो अच्चरखरं (४) ज्यादा अक्षर वोले हो पयहीणं- (५) पद कम बोले हो--कोई पद छोड दिया हो विणयहीणं- (६) विनय विना सूत्र बोला हो जोगहीणं (७) मन, वचन, काय की स्थिरता न रखकर सूत्र बोला हो घोसहीणं (८)बिना गुद्ध उच्चारण बोला हो सुदिनं (९)अविनीत को ज्ञान दिया हो Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) (२७ - अर्थ दुपडिच्छियं- (१०) दुप्ट भाव से ज्ञान लिया हो अकाले कओ सज्झाओ (११) असमय में स्वाध्याय किया हो काले न कओ सज्झाओ (१२) समय पर स्वाध्याय न किया हो असज्झाइए सज्झायं (१३) स्वाध्याय न करने योग्य जगह पर स्वाध्याय किया हो सज्झाइए न सज्झायं (१४)स्वाध्याय योग्य जगह पर स्वाध्याय नही किया हो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं इन दोषो सम्बन्धी मेरा पाप (दुष्कृत) मिथ्या हो mmelanm पाठ आठवाँ दर्शन-सम्यक्त्व का अर्थ इम पाठ में दर्शन शब्द सच्ची श्रद्धा के अर्थ में काम में लाया गया है । दर्शन को सम्यक्त्व एव समकित भी कहते हैं । रागद्वेपरहित देव ( अरिहत ),पच महाव्रतधारी निर्ग्रन्थ गुरु और सर्वन-कथित दयामय धर्म, इन तीनो की श्रद्धा शुद्ध मन से और सच्चे विवेक से प्राप्त होती है, इनके विरुद्ध आचरण करने मे ममकितदशा चली जाती है। दर्शन-गमकित की व्याग्या शास्त्रकार ने इस प्रकार की है : Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८) (तृतीय भाग अरिहतो मह देवो, जावज्जीवाए सुसाहुणो गुरुणो। जिणपण्णत्तो धम्मो, इअ सम्मत्त मए गयि ॥ -ग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ और कर्म रूप आत्मा के शत्रओ को जीतने वाले अरिहत भगवान ही मेरे देव हैं। उनके सिवाय कोई मेरा देव नही है। सच्चे पच महाव्रतधारी साधु ही मेरे गुरु है । केवलज्ञानियो द्वारा कहा ह बतलाया हुआ अहिंसा, सयम और तप रूप धर्म ही सच्चा धर्म है। ___ जीवन पर्यन्त इस प्रकार की सच्ची श्रद्धा रखना मैने निश्चित किया है । मैने अपने हृदय में यही भावना स्थापी है। जान और माल का भोग देकर भी इस सच्चे धर्म से चुकना नही चाहिए। किसी भी प्रकार की सासारिक स्वार्थमय इच्छा के विना ऐमे देव, गुरु और धर्म को मानना चाहिए तभी सच्चे देव, गुरु और धर्म की मान्यता करना कल सकता है। दर्शन के अतिचार : इस प्रकार की श्रद्धा करते-करते भी अभ्यामी कभीकी भूल कर बैठना है । उसे देव, गुरु या धर्म के विषय में कभी का हो जाती है । इस प्रकार का करने वाला आत्म अपने हित का नाम करता है । कहा भी है- ॥ संगयात्म विनश्यति ।" का मम्मन्न नामर । गका विनाग की पहल मीढी है। इसलिए उगमा त्याग करना ही उचित है । श्रद्धा को मजबूत बनाने के लिए गमकिन के पांच अतिनागे को जान बार उन्हें छोड़ना चाहिए - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) १ शका: आत्मा आँखो से दिखाई नहीं देता । अतएव आत्मा है या नही? पुण्य-पाप जैसे कोई तत्त्व है भी या नही? कौन जाने परलोक है या नहीं? इस प्रकार की शकाओ के कारण सत्य की प्राप्ति में कठिनाई आती है। २ कांक्षा : मिथ्या मत की इच्छा करना । गुरु या धर्म की सेवा करने में स्वार्थ की भावना रखना । इस लोक या परलोक के , सुखो की इच्छा से देव-गुरु की स्तुति-उपासना करना भी काक्षा दोप है। ३ विचिकित्सा - धर्म-क्रिया के फल मे शका करने से यह दोष लगता है। _ 'इम क्रिया का फल मिलेगा या नही?' इस प्रकार की शका करने से भी सच्ची श्रद्धा नहीं टिकती। कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । अर्थात्- कर्तव्य किये जा, फल की परवाह मत कर । यह सिद्धान्त प्रत्येक मनुष्य को अमल में लाना चाहिए । ४ परपाखडप्रशंसा:-- उग अनिचार का नहीं अयं ममझ लेने की आवश्यकता है । बहुत से लोग उन अतिचार का अर्थ-- दूसरो की प्रशसा पन्ना' एना करते है। पावडी का अर्थ है-दगावाज, कपटी । ऐगे आदमी की प्रशंसा कैसे की जा सकती है ? ऐसा Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D ३० ) ( तृतीय भाग ? 1 अर्थ करने मे 'पर' शब्द रखने को क्या आवश्यकता इसलिए ऐसा अर्थ करना ठीक नही । जैन आगमो आत्मा के लिए 'स्व' शब्द और पुद्गल के लिए 'पर' का व्यवहार किया जाता है । पाखड शब्द व्रत के अर्थ मे है । जो लोग सुख पाने के लिए व्रत, नियम या प्रत्याख्यान वगैरह करते है, ऐसे ( पुद्गलानदी वेपधारी) लोगो की प्रशंसा नही करनी चाहिए । ऐसे लोगो की प्रशसा करने से उनकी पुष्टि होती है, इस कारण समकिन में दोप लगता है । (५) परपाखंडसंस्तव ( परिचय ) कुदर्शनी के साथ सहवास तथा अधिक घनिष्ठता नही रखनी चाहिए । ऐसे लोगो का बखान करने से तथा अधिव परिचय करने में श्रद्धा में बाधा पड़ती है । इसी कारण य अतिचार है । ऊपर बतलाये पांच दोपो का त्याग कर देना चाहि और जो लोग धर्म-मार्ग से, भूल में पड़े है, उन्हें सन्मार्ग प लाने का प्रयत्न करना चाहिए । माधर्मी के प्रति सगे भाई के समान प्रेमभाव होना चाहिए । सत्य का आचरण और सत्यभाषण करके धर्म की प्रभावना करनी चाहिए । ऐसा करने से धर्म का प्रचार होना है । · Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न पाठावली) पाठ नौवां marlesaran दसण-सम्मत्तं ( दर्शन के अतिचारो की आलोचना का पाठ ) मूलपाठसण सम्मत्तं परमत्थसथवो वा मुदिट्टपरमत्यसेवणा वा वि । वावन्नकुदमणवज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा ।। अरिहतो मह देवो जावज्जीवाए सुसाहुणो गुरुणो । जिणपप्णत्त तत्त इअ सम्मत्त मए गह्यि ।। एअस्स सम्मत्तस्स समणोवासएणं इमे पच अइयारा पाला जाणियन्वा, न समायरियव्वा । तं जता-- (१) सका (२) कंखा (३)दितिगिच्छा (४) परपासंडसंसा (५) परपासंडसंथवो । तस्स मिच्छा मि दुवकडं । अर्थ मूल सणसम्मत्तं देव, गुरु और हिमा, सयम, तप रूप धर्म की गच्ची श्रद्रा । स्त्रियो को 'समणोवामियाए' का पाठ वोलना चाहिए । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ (तृतीय भाग मूल परमत्थसंथवो वा- परमार्थ-जीवादि नी तत्त्वो के पहचान करना और सुदिनुपरमत्थसेवणा- जिन्होने परमार्थ-मिद्धान्त को भलं भांति जाना है उनकी सेवा करन वा वि और वावन्न सम्यक्त्व या चरित्र से ध्रप्ट व्यापर कुदंसण कुदर्शन मिथ्यामत को मानने वाले कं वज्जणा य सगति न करना सम्मत्तसद्दहणा-- (इस प्रकार) समकित की श्रद्धा है अरिहंतो मह देवो-- अरिहत मेरे देव है जावज्जीवाए-- जीवन पर्यन्त सुसाहुणो गुरुणो-- मच्चे साधु (मेरे) गुरु है जिणपण्णत्तो धम्मो-- सर्वज्ञ का कहा हुवा धर्म ( मेरा धर्म है) इअ सम्मत्त-- इस प्रकार का सग्यवत्व मए गहिअं-- मंने ग्रहण किया है एअस्प सम्मत्तस्स- इस सम्यक्त्व के समणोवासएणं- श्रावक को । इमे पंच अइयारा- यह पाच अतिचार पेयाला प्रधान (ब) स्त्रियो को आविका को' एसा बोलना चाहिए । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) जाणियव्वा- जानने योग्य है। । न समायरियव्वा- ' आचरण करने योग्य नही है। तं जहा वे. (अतिचार) इस प्रकार है (१) संका वीतराग के कहे मार्ग मे शका करना', । (२) कंखा- पर मत की चाहना करना, धर्मक्रिया के फलस्वरूप इस लोक परलोक के सुख की आशा करना। (३)वितिगिच्छा - धर्म-क्रिया के फल मे सदेह करना। . (४) परपासंडपसंसा- धर्म के नाम से पाप का उपदेश करने वाले ढोगियो की प्रशंसा करना । । (५) परपासंडसंथवो- वेषधारियो का परिचय करना ।। इस प्रकार समकित रूप रत्न पर अतिचारों द्वारा अश्रद्धा रूप जो रज, मैल दोष लगा हो तो अरिहतो और अनत सिद्ध भगवतो की साक्षी से मिच्छा मि दुक्कड। " १- क्यो कि जाने विना त्याग नही किया जा सकता ।' इमीलिए अतिचारो को सब जगह जानने योग्य कहा है। अज्ञानी हित-अहित को समझ नहीं सकता। ऐसी स्थिति में वह अहितकारी वस्तु को त्याग कर हितकारी वस्तु का आचरण कैसे कर सकता है ? अतएव जानना जरूरी है। - २- अतिचारो को जानकर छोडना चाहिए, आचरण में नही लाना चाहिए। ३- कोई बात ममल में न, आई हो तो गुरुजी के सामने शका- समाधान करने में यह दोप नहीं लगता। - Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (तृतीय भाग पाठ दसवां चारित्र चारित्र क्या है ? : चारित्र का अर्थ है- अपने स्वरूप में रमण करना । जब राग और द्वेष का पूरी तरह नाश हो जाता है और मन, वचन तथा काय में स्थिरता आ जाती है; तभी - आत्मा के. स्वरूप मे ठीक तरह रमण किया जा सकता है। ऐसी स्थिति मे पहुंचने के लिए अहिंसा आदि व्रतों का पालन आर ' हिंसा आदि पापो का त्याग भी सहायक है। अत इसे भी चारित्र कहते है । क्योकि इसकी सहायता से राग द्वेष का नाश किया जा सकता है । इसके नाश से दोषो का त्याग और व्रतो का पालन होता है। 'चारित्र की भूमिकाएँचारित्र के पांच भेद है: १ सामायिक २ छेदोपस्थापनीय ३ परिहारशद्धि ४ सूक्ष्मसम्पराय ५ ययाख्यातचारित्र । १) सव प्रकार के सावध योग (पापकारी प्रवृत्ति) का त्याग करके आत्मोत्यानकारी प्रवृत्ति करना सामायिक है। . छेदोपस्थापनीय आदि चारो चारित्र सामायिक रुप तो है ही फिर भी आचार की कुछ भिन्नता उनमें पाई जाती है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) (३५ इस कारण इन चारो को अलग-अलग कहा गया है । थोडे समय के लिए या जीवन भर के लिए सावध योग का त्याग करना सामायिक चारित्र है। (२) साधु होने के लिए पहले छोटी और बाद में बडी दीक्षा दी जाती है । अथवा साधुपन में कोई बड़ी भूल हो जाय तो फिर से दीक्षा दी जाती है। उसे छेदोपस्थापनीय' चारित्र कहते हैं। (३)जिसमें खास तरह का ऊंचा तप और आचार पालन , किया जाता है वह परिहारविशुद्धि' चारित्र कहलाता है । । आजकल इस चारित्र का पालन नहीं किया जा सकता। (४) क्रोध, मान और माया इन तीनों कषायो का जव , सर्वथा नाश हो जाता है और लोभ का सूक्ष्म अश वाकी रहता है, उस दशा में होने वाला चारित्र 'सूक्ष्मसम्पराय' कहलाता है । ऐसी स्थिति दसवे गुणस्थान में प्राप्त होती है। . . . (५) कषाय का लेशमात्र भी उदय न रहने पर जो चारित्र होता है वह ' यथाख्यात' है। उसे वीतराग चारित्र भी कहते हैं। पाठ ग्यारहवां . पांच आचार यहा तक ज्ञान, दर्शन और चारित्र के सबंध में विचार कया गया है । यह ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप और Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६) । सुतीय भाग वीर्य-ये पांच आचार कहलाते है । जैन शास्त्रो में इन परि आचारो का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है । इन पांच में से तीन आचारो के विपय में पहले कहा जा चुका है। ज्ञानाचार : (१) जिस आचार से कर्म का नाश हेता है और आत्म का ज्ञान मिलता है, वह 'ज्ञानाचार' कहलाता है । ज्ञानाची के आठ नियम बतलाये जा चके है। उन आठ नियमों के ध्यान में रखकर, ' विनय के सथि, गुरु से जो शास्त्र क अभ्यास करता है, उसका ज्ञान अधिक अधिक बढता जाता है और ज्ञान को रोकने वाले दोष नष्ट होते जाते हैं । ज्ञा का अभ्यास करने वालो को चाहिए कि वे उन नियमो को भी न भले । दर्शनाचार: (२) जिससे मिध्यात्व मोह का नाश होता है औ सम्यक्त्व अथवा यथार्थ श्रद्धा प्रकट होती है, उसे 'दर्शनाचार कहते हैं। इसके आठ नियमो के विषय मे भी पहले कहा - 'चुका है। (३) चारित्राचार (३) कपाय आदि की उपशान्ति को तथा व्रत आदि चारित्र को चारियाचार कहते हैं । चारित्राचार में पाच समि तियो और तीनो गुप्तियो का समावेश होता है। इन आटो का प्रवचनमाता, भी कहते हैं। माधुओ को तो आठ प्रवचनमात का पालन करना अनिवार्य है ही, पर बावको को भी इनक शान और यथागवित पालन करना चाहिए। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन पाठावली) पांच समिति : (१) ईर्या समिति (२) भाषा समिति (३) एषणा समिति (४) आदाननिक्षेपण समिति (५) परिष्ठापना समिति । समिति की व्याख्या : (१) किसी भी जीव-जन्तु को दुःख न हो, इस प्रकार सावधानी के साथ चलना "ईर्या समिति" है । (२) सत्य, हितकारी, मधुर. परिमित और सन्देह रहित बोलना "भाषा समिति" है। (३) जीवन के लिए उपयोगी आहार आदि वस्तुएं निर्दोप प्राप्त करना "एपणा समिति" है। , (४) प्रत्येक वस्तू को बराबर देख भाल कर, पूजकर लेना और रखना "आदान निक्षेपण समिति" है। । (५) जीव-जन्तुओ से रहित और किसी को कप्ट न पहुचे, ऐसी जगह मल-मूत्र आदि निरुपयोगी चीजो का त्याग करना परिप्ठापनिका समिति है। गप्ति के भेद और लक्षण गुप्ति के तीन भेद हैं – (१) मनगृप्ति (२) वचनगुप्ति (३) कायगुप्ति। विचारपूर्वक मन, वचन और काय खराब मार्ग से रोकना और अच्छे मार्ग में ले जाना, यही गुप्ति को सार्थकता है। (१) बराय विचार का त्याग करना और अच्छा विचार करना मनोगुप्ति कहलाती है। । । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ३८) ( तृतीय भाग (२) मौन रखना या बोलते समय वचनो का ध्यान रखना अथवा अवसर जानकर मौन रखना वचनगुप्ति है । (३) किसी भी चीज को उठाने धरने में अथवा उठनेबैठने चलने फिरने में शरीर को विवेक के साथ प्रवृत्त करना कायगुप्ति है । समिति में विवेक के साथ क्रिया करने की मुख्यता है ओर गुप्ति में क्रिया को रोकने की मुख्यता है । मुमुक्षुओं के लिए गुप्ति उत्सर्ग मार्ग है और समिति अपवाद मार्ग है । जैसे माता अपने बालक की रक्षा करती है, उसी प्रकार‍ पाच समितिया और तीन गुप्तियां चारित्र की रक्षा करती हैं इसलिए शास्त्र में इन आठो को 'प्रवचनमाता' कहा है । व्रतो का भी चारित्राचार में ही समावेश होता है । प्रति श्रमण भी चारित्राचार का ही अंग है । इस सम्बन्ध में लम्ब विवेचन करने से पहले दो आचारो का तपाचार और वीर्याचार का थोडा विचार कर लेना चाहिए । (४) तपाचार व्याख्या और भेद : ज्ञान के द्वारा आत्मा के स्वरूप को जानना, दर्शन के द्वारा आत्मश्रद्धा प्राप्त करना और आत्मा के स्वरूप में स्थिर होने के लिए प्रयत्न के साथ चारित्र का पालन करना चाहिए । मगर इतना करने पर भी प्राय सराव इच्छाएँ ज्यो की त्यो बनी रहती हैं । उनका जोर कम नहीं होता । इन वासनामो को कमजोर करने के लिए और आत्मिक वल चढाने के लिए शरीर इन्द्रिय और मन को पक्का बनाना चाहिए । यही तप कहलाता है । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली ) (३९ तप के दो भेद हैं - ( १ ) बाह्य ओर ( २ ) आभ्यन्तर । बाह्य तप मे शरीर की क्रिया मुख्य है, अतएव वाघ अतएव वाघ तप द्वारा इन्द्रियो को वश में किया जाता है । आभ्यन्तर तप में मानसिक क्रिया की मुख्यता है । इस तप से विशिष्ट आत्मशुद्धि होती है । बाहय तप, आभ्यन्तर तप में उपयोगी है। इस कारण उसका महत्त्व है । इन दोनो प्रकार के तपो मे सभी छोटेमोटे धार्मिक नियमो का समावेश हो जाता है । बाघ तप के छः भेद : (१) मर्यादित समय के लिए अथवा जीवन के अन्त तक सव प्रकार के आहार को छोड देना 'अनशन' तप है । (२) भूख से कम आहार करना 'ऊनोदरी' तप है । (3) भिन्न-भिन्न प्रकार की लालचो को कम करना 'वृत्ति - 'पक्षेप' तप है । 1 (४) घी, दूध आदि तथा अन्य स्वादिष्ट वस्तुओ का त्याग करना 'रसपरित्याग' तप है । ד को (५) सर्दी से, गर्मी से या जुदा-जुदा आसनो द्वारा शरीर कृश करना, केशलोच करना आदि 'कायावलेग' है । J ( ६ ) इन्द्रियो तथा मन को वश में रखना, सावद्य योग त्याग कर एकान्त स्थान में निवास करना ' विविक्तशय्यासन ( प्रतिसलीनता ) तप है । जाभ्यंतर तप के छः भेद : १ (१) ग्रहण किये हुए व्रती में दोष लगने पर शुद्धि करना । प्रायश्चित्त' है । Page #48 --------------------------------------------------------------------------  Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली ) पाठ बारहवाँ साधना की तीसरी सीढी [ चारित्र का निर्माण और उसके नियम ] (४१ चारित्र के नियम में भिन्नता : जीवन के लक्ष्य- मोक्ष तक पहुचने के लिए ज्ञान और दर्शन के बाद तीसरी सीढी चारित्र है । पूर्ण चारित्र अर्थात् राग द्वेष आदि भावो से निवृत्ति और आत्मा में स्थिरता । चारित्र के इस मूल स्वरूप को प्राप्त करने के लिए अहिंसा सत्य आदि जिन नियमो को स्वीकार किया जाता है, वे सब नियम भी चारित्र कहलाते है, देश काल वगैरह की स्थिति और विचारो में फेर पडने पर दैनिक जीवन के क्रम में भी फेर पड जाता है । यही कारण है कि चारित्र का मूल स्वरूप एक होने पर भी उसके सहायक नियमो की सस्या में और स्वरूप में फेर पड़ता है । इसी कारण साधु और श्रावक के व्रत और नियम भी शास्त्र में अलग-अलग बतलाये गये है । व्रतो की व्याख्या और भेद : । 7 जो नियम श्रद्धा और समय के साथ स्वीकार किया है, वह व्रत कहलाता है । उसे हम अपनी वोलचाल की भाषा में प्रतिज्ञा, टेक, नाखडी आदि शब्दों से पहचानते है | Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२) ( तृतीय भाग हरएक व्रत लेने वाला समान नहीं होता । अतएव योग्यत के अनुसार शास्त्रकारो ने व्रतधारियो के दो मुख्य विभाग किये हैं (१) अगारी और ( २ ) अनगार | अगार का अर्थ है- घर । जो घर के साथ सवध रसत है वह अगारी कहलाता है । अगारी अर्थात गृहस्थ स्त्री-पुरुष ( श्रावक और श्राविका ) । घर के साथ जिसका संबंध नही वह त्यागी - मुनि अनगार कहलाता है । साधु और साध्वी दोन वर्गों के लिए 'अनगार' शब्द का व्यवहार होता है । यद्यपि अगारी और अनगार शब्दो का सीधासादा अर्थ क्रम से 'घर में रहने वाला' और 'घर में न रहने वाला' होता है, फिर भी यहाँ यह अर्थ लेना है कि जो नियमो में छूट रखता हो वह अगारी है और जो नियमो मे छूट न रखे वह अनगार | इसका आशय यह निकला कि घर में रहते हुए भी अगर काई पुरुष अनासक्ति रख सके तो वह भी अनगारतुल्य ही है। इसके विपरीत के पुरुष घर में न रहते हुए भो जगल में रहते हुए भी आमवित रसता है तो वह अगारी के समान है । अगारी और अनगार की यह एक सच्ची परीक्षा व्रत के सेव : व्रतधारियों की योग्यता-शक्ति के अनुसार ऊपर उनके दो भेद बतलाये गये है। दो प्रकार के व्रतधारियों के कारण व्रतो के भी दो भेद है । (1) अणुव्रत (देवन ) -- पापी मे पूरी तरह निवृत्त होने की इच्छा होने पर भी जो गृहस्य सयोग और शक्ति न Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) होने के कारण हिसा, असत्य वगैरह पापो से पूरी तरह निवृत्त नही हो सकता, अर्थात् जो गृहस्थ जीवन की मर्यादा में रहअपनी शक्ति के अनुसार अहिंमा, मत्य आदि व्रतो को मर्यादित रूप में स्वीकार करता है, उसके व्रत अणुव्रत कहलाते हैं। इत अणुव्रतो को धारण करने वाला " अणुव्रतधारी " या गहस्थ श्रावक अथवा अगारी कहलाता है। . .. (२) महावत ( सर्वविरति )-हिंसा आदि पापों को, मन, वचन, काय से न करना, न कराना और न उनका अनुमोदन करना, इस प्रकार की प्रतिज्ञा से पूरी तरह दोपो का त्याग करने और अहिंसा आदि व्रतो का पालन करने के लिए घर-घर को त्याग देना ही आवश्यक होता है । इसलिए ऐसे महाव्रतधारी अनगार कहलाते है। उनकी राग-द्वेष की गाठ ढीली पड़ जाती है या छूट जाती है । इस कारण उन्हे निर्ग्रन्थ भी कहते हैं । ऐसे अनगार पुरुष साधु कहलाते है और अनगार स्त्रिया साध्विया कहलाती है। सक्षेप में कहा जा सकता है कि दोषो की पूरी तरह निवृत्ति को महावत कहते है और थोडे अग मे निवृत्ति को अणुव्रत या देशविरति कहते है । महाव्रत पांच है: अर्थ (१)सव्वाओ पाणाइ:- । मन वचन और काय से सब प्रकार की हिंसा से पूरी तरह वायाओ विरमण वत छूटना अहिंसा महावत है। (२) सव्वाओ मुसावायाओ ( मृपावाद से सर्वथा छूटना, विरमण व्रत : सत्य महावत है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( तृतीय भाग अर्थ (१) सबाओ अदिनादा- | चोरी से सर्वथा छूटना, अचौर्य णाओ दिरमण व्रत :- महावत है । (२) सव्वाओ मेहुणाओ विषयभोग से सर्वथा निवृत्त विरमण व्रत :- होना, ब्रह्मचर्य महाव्रत है । (३) सव्वाओ परिग्गहाओ परिग्रहसेसर्वथा छूटना परिग्रह विरमण व्रत :- त्याग अपरिग्रह-महाव्रत है। अणुव्रत बारह है : वारह अणुग्रतो में पाच मूलयत है । इन मूल व्रतो के रक्षण, उपयोग और शुद्धि के लिए गृहस्थ जिन दूसरे तो को स्वीकार करता है, वे उत्तर प्रत कहलाते हैं। उत्तर प्रत सात है। उनमें से पहले के तीन गुणयत कहलाते है और बाकी के चार शिक्षीव्रत कहलाते है। अर्थ (१)स्थूल हिंसा विरमणवत-हिसा का मर्यादित त्याग करना। (२) , मृषावाद , -अमन्य का , (३) , अदत्तादान , -चोरी का , (४) , मैथुन , -पर स्त्री का त्याग और स्व म्यी की मर्यादा करना । (५) , परिग्रह , -परिगह की मर्यादा कर लेना। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली ) (४५ (६) दिशापरिमाणव्रत ( ७ ) उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत ( ८ ) अनर्थदण्ड विरमणव्रत ( ९ ) सामायिकव्रत (१०) देशावका शिकव्रत ( ११ ) प्रतिपूर्ण पौषधव्रत (१२) अतिथिसंविभागव्रत । व्रती बनने की योग्यता: अहिंसा सत्य आदि व्रतो को लेने की प्रतिज्ञा कर लेने मात्र से ही कोई सच्चा व्रती नही वन जाता । सच्चा व्रती बनने के लिए सब से पहली और बहुत आवश्यक शर्त शल्यरहित होना है । सक्षेप मे शल्य के तीन भेद है - ( १ ) माया अर्थात् दभ, धोखा या ठगने की वृत्ति (२) निदान अर्थात् भोगो की इच्छा और ( 3 ) मिथ्यात्व अर्थात् सत्य पर विश्वास न रखना या खोटे की पकड़ रखना | रूप में, यह मौजूद रहते हैं साधारणतया प्रत्येक मनुष्य में, कम वढ तीनो दोप मौजूद रहते हैं । यह दोष जब तक तव तक हानि ही उठानी पडती है । इनके कारण आत्मा गजवूत नही हो पाती । इसी कारण शल्य वाला मनुष्य अपने व्रतों का हढता के साथ पालन नही कर मकता । उसके व्रत दूषित रहते है । अतएव सच्चा प्रती बनने के लिए ऊपर बतलाये हुए तीनो दोषो का त्याग कर देना ही उचित है । उसके सिवाय एक बात और ध्यान में रखनी चाहिए । यह है कि जैनधर्म भावना को बहुत महत्त्व देता है | Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( तृतीय भा भावना का आशय है मन की टेव। जिसकी जैसी भावर होती है, उसे वैसी ही सफलता मिलती है । इस कारण प्रत्ये व्रत के साथ भावना को पवित्र रखने की भी बडी आवश्यक है । इस बात को ध्यान में रक्खे विना. अणुव्रत या महावर का पूरा मूल्य नहीं रहता। तो के दो बाजू: व्रतो के नाम ऊपर दिये जा चुके है। उन नामों । किसी को यह ख्याल आ सकता है कि दोषो के त्याग को पर का नाम दिया है । यद्यपि यह ठीक है मगर यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वधारी होने का अर्थ निष्क्रिय होकर व जाना है । बन के दो बाजू हैं-एक निवृत्ति और दूसरा प्रवृत्ति निवृनि और प्रवृत्ति के ठं.क-ठोक मेल से ही प्रत मे पूर्णत आती है । बुरे कामो से निवृत्त होने के साथ अच्छे कामो । प्रवृत्त होना चाहिए । निवृत्त होने का व्रत लेने का आग यही है कि उसके विरोधी अच्छे काम में प्रवृत्त होन आवश्यक है। हिमा, असत्य बगैरह दोषो का स्वरूप आगे बतलाय जायगा । उन दोपो का स्वम्प नमन कर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। तभी अहिमा और सत्य आदि का पूर वरह पालन होता है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) १४७ पाठ तेहरवाँ पहला अहिंसाव्रत और उसकी मयादा ( थूल प्राणातिपात विरमणव्रत ) ___ अहिंसा की उपयोगिता : जैसे हमे जीवित रहना प्रिय है, उसी प्रकार सभी को प्रिय है। आत्मा की अमरता समझना इस जीवन का प्रयोजन है । इस प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए शरीर का मोह घटाये बिना छुटकारा नहीं । इस प्रकार की भावना से सयम पैदा होता है । तप उत्पन्न होता है और दूसरे को तनिक भी कष्ट न पहुंचाने की दया का जन्म होता है । जहाँ विचार है वही यह सब उत्पन्न हो सकता है। विचार मनुष्य को हो सकता है, इसलिए अहिंमा मनुष्य का धर्म सावित होता है। प्रत्येक धर्म में दया को स्थान मिला है। दया के बिना धर्म बन ही नहीं सकता और क्या ही अहिंगा है। इसी कारण कहा गया है- " अहिमा परमो धर्म " हिसा या दया मनुष्य के लिए खास तौर से उपयोगी है। हिसा का त्याग करना हिमा है । मगर इतने से काम नहीं चलता । हिमा का त्याग करने के नाथ हिमा का मुकाविला भी करना चाहिए । दुनरे की हिंसा की अपेक्षा आत्मा को हिसा अधिक हानिकारक है । अनाएर उसे नहीं होने देना चाहिए। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८) ( तृतीय भाग इस दृष्टि से देखने पर क्रोध भी हिंसा है, बिना सोचे समझे और देखे-भाले सहसा काम कर डालना भी हिसा है, खराब बर्ताव करना भी हिंसा है, दूसरो को गुलाम बनाना भी हिंसा है । शिकार, मासाहार, शराब और दूसरे छोटेमोट व्यसनो में भी हिंसा है। यद्यपि बनम्पति, अनाज, पाणी और पवन वगैरह मे भो जीव हे, और उनको काम में लेना भी हिसा है, लेकिन ऐसी हिंसा अनिवार्य हिंसा है । मदिरापान या मासाहार की इच्छा को हम समझ सकते है और त्याग भी सकते है। उनका त्याग कर देने से हमारी कोई हानि नही होती । जीवित रहने के लिए उनकी आवश्यकता नही है । कोई कह सकता है-जीव अमर है । वह मर नही सकता फिर हिंसा के पाप का प्रश्न हो पैदा नहीं होता। बात सही है । पर जीव के साथ लगे हुए शरीर का छेदना-भेदना होता है , और ऐसा करने का हमें कोई अधिकार नहीं है । इस सिवाय जीव मरता भले ही न हो, पर मारने की इच्छा मे त हिंसा की भावना है ही। यह ही आत्मा का नाश करती है फिर मारने वाला अगर समझता है कि जीव की मृत्य नह होती तो वह किसी को मारनं. की खोटी इच्छा ही क्यों करत है? और प्रयत्न मी क्यो करता है? पाओ को इतना ज्ञान नहीं होता, पर मनुष्यो मे ज्ञान होता है । विवेक मनुष्य का मरर गुण है । अतएव 'जीवो जीवस्य भक्षणम्' के बदले 'जीवो जीवस रक्षणम्' यह मनुप्य का आदगं होना चाहिए । इसीलिए तं सभी धमंगास्त्रो मे 'अहिंसा परमो धर्म' माना गया है। . Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली ) अहिंसा का स्थान : और सब व्रतो मे अहिंसा व्रत मुख्य है। अतएव उसका स्थान पहला है । जैसे धान्य की रक्षा के लिए वाड की जरूरत होती है, उसी प्रकार दूसरे व्रत अहिंसा की रक्षा के लिए ही है। अहिंसा का स्वरूप : अहिगा का स्वरूप समझने के लिए यह आवश्यक है कि पहले उसकी विरोधी हिंसा को ठीक तरह समझ लिया जाय इसीलिए इस व्रत का नाम 'अहिंसाव्रत' न रखकर 'प्राणातिपात विरमणव्रत' रखा गया है । उसके पहले गृहस्थो के लिए 'स्थूल' शब्द भी जोडा गया है। पहला व्रत स्थूल हिंसा से विरत होने का है । और स्थूल हिंसा का अर्थ चलते-फिरते प्राणियों ( स जीवो) की हिंसा किया जाता है । समझदार मनुष्यो को ऐसे प्राणियो की हिंसा से सदैव वचना चाहिए । अलबत्ता, इससे यह नही समझ लेना चाहिए कि गृहस्थो को छोटे जीवो की हिंसा करने की छुट्टी है | वास्तविक बात यह है कि गृहस्थी की जवाबदारियों को पूरा करने में छोटे (स्थावर ) जीवो की हिना हो ही जाती है । फिर भी गृहस्थ पैर की भावना से इन जीवो को नही मारता ओर न शोक के लिए ही मारता है । जीवन को अनिवार्य आवश्यकताओ को पूरा करने के लिए ही इस व्रत मॅ छूट दी गई है । इस छूट का दुरुपयोग न किया जाय, इस उद्देश्य से सातवे व्रत में उपभोग - परिभोग के पदार्थों की ( ४९ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (तृतीय भार म्यादा करने का विधान किया गया है। अगर इतनी छ न दी जाय तो आजीविका के लिए खेती, पारमार्थिक कार्य प्रामाणिक धन्धा वगैरह काम भी श्रावक न कर सके । ऐसे हालत मे श्रावक निकम्मा और निठल्ला वन जाय । दूसरे श्रावक जब स्त्रय काम करता है तो वह यतना से करता है दूसरो से अगर वही काम कराएगा तो अविवेकी होने के कारण । वे यतना नहीं कर सकेगे। इस प्रकार सच्चा श्रावक हिंसा से वचने का पूरा प्रयत्न करता है, फिर भी जो हिसा अनिवार्य है, उसकी छुट उसे रखनी पडती है। प्रश्न हो सकता है कि जब प्रत्येक जीव समान है, जो जीवनशक्ति फूल की पाखुड़ी में रही हुई है वही कीडी और मनुप्य में भी है तो फिर छोटे जीवो की हिंता करने की आज्ञा किस प्रकार दी जा सकती है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि आज्ञा तो किसी भी जीव की हिंसा करने की नहीं है। पर अनिवार्य होने मे लाचारी के कारण ही श्रावक सूक्ष्म हिसा का त्याग नहीं कर सकता। एकेन्द्रिय जीवो के विपय मे इतना विवेक गने की सूचना करने के बाद दो इन्द्रिय आदि जीवो के विषय में इन व्रत में यह छूट रखी गई है कि-रोग या अन्य निगी कारण से इन जीवो की उत्पत्ति हो जाय तो उन्हें पूरा करने के लिए, यतना करने पर भी यदि हिसा हो जाय तो वह भी अनिवार्य है। अब रही पंचन्द्रिय जीवो की बात । उनके विषय में भी नियम है। निरपराध जीवो कोनो नहीं ही मारना चाहिए । साथ ही अपराधी को हिंसा की या वैर की भावना से नहीं Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली ) (५१ मारना चाहिए | परन्तु जैसे वैद्य की कटुक दवाई से रोगी को दुःख होता है, माँ बाप द्वारा लडके को सुधारने का प्रयत्न करने में लड़के को दुख होता है, उसी प्रकार नीति की रक्षा के खातिर सामना करने या बचाव करने में भी हिंसा हो सकती है । इस प्रकार की हिंसा से भी श्रावक का व्रत खडित नही होता | जैनधर्मं श्रावक के लिए उत्तम है | श्रावक ऐसा न करे तो वह अहिंसा के नाम पर कायर कहलाएगा। इसी कारण भावहिंसा का सर्वथा निषेध किया गया है और उसी द्रव्यहिमा की छूट रक्खी गई है जो श्रावक के लिए अनिवार्य है । वैरभाव या विलास की दृष्टि से यह छूट नही है । 1 जहां वैर है, इच्छा है और विलास है वहाँ पाप है । पाप के घधे १५ फर्मादानो में वर्णन किये गये है | श्रावक ऐसे ध सद नही कर सकता । ऐसे धधो में जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओ को पूरा करने की दृष्टि के बदले स्वार्थ की द्दष्टि ही मुग्य है । पन्द्रह कर्मादानो का विशेष खुलासा सातवे व्रत में किया जायगा । अहिंसाव्रत के अतिचार : अहिमावत के उपयोग के विषय में और उसकी मर्यादा के विषय में इतना जान लेने के बाद अब हमें इस व्रत में उगने वाले अतिचारो या दोषो के विषय में विचार करना चाहिए | उस व्रत के पांच अतिचार है । इस व्रत में भूले तो बहुत-सी होती हैं, मगर उन सबका नमावेश इन पांच अतिचारों में ही हो जाता है । पान गतिचार इस प्रकार है \ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२) (तृतीय भाग (१) बंध-कोई प्राणी अपनी इष्ट जगह में जा रहा है तो उसे रोक देना, वाध देना या ऐसा करने में सहायता करना आदि बातो का भी इसमें समावेश होता है । तोता, चूहा, शेर या गाय आदि को वन्धन में बाध देना या मनुष्य को जेल में डालना, पति या सासू के द्वारा बहू को बाँध रखना, सेठ या ऊंचे अधिकारी द्वारा किसी मनुष्य को जकड रखना भी इसी अतिचार में सम्मिलित है। (२) वध--पशु पक्षी या स्त्री-पुरुष आदि को मारनापीटना, चाबुक आदि से मारना, यह सब वध नामक अतिचार है। (३) छविच्छेद -क्रूरता के साथ पशु की चमडी को या अंग को छेदना । मनुष्य के प्रति भी इस प्रकार का क्रूर बर्ताव करने से यह अतिचार लगता है। (४) अतिभार-मनुप्य या पशु मे सामथ्र्य से ज्यादा काम लेना । उन पर शक्ति में ज्यादा बोझ लादना । नोकर से बहुत ज्यादा काम लेना । ऐसा करने से व्रत में दोप लगता है। (५) भक्तपानविच्छेद-मनुष्य या पशु वगैरह मिनी भी जीव के माने-पीने में अतराय डालना । अपने आश्रित पमु आदि को समय पर मोजन पानी न देना। अहिपक का कर्तव्य : अहिमायत लेने वाले को अत की रक्षा करने के लिए नीने लिये कर्तव्य ध्यान में उसने चाहिए : Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) (५३ २ . (१) जीवन मे सादगी बढाते रहना चाहिए और आवश्यकताएँ कम करनी चाहिए । (२) सदैव सावधान रहना चाहिए और इस बात का सध्यान रखना चाहिए कि कमी या कही भूल न होने पावे। a (३) जो कुटेवे घर कर बैठी हैं, उन्हे दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए । maryam पाठ चौदहवां पहला अणुव्रत __ ( सूत्रपाठ-थूलपाणाइवायाओ-वेरमणं ) पढमं अणुव्वयं थूलपाणाइवाय-वेरमणं । तसजीवे बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिय-पंचिदिय-जीवे णाऊण आउट्टीहणणबुद्धीए हणणहणावणपच्चक्खाण, ससरीरसविसेसपीडाकारिणो,ससंवन्धी सरीरसविसेसपीडा. कारिणो, सावराहिणो वा वज्जिऊण । ___ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि मणसा, वयसा, कायसा, एअस्स पढमस्स थलगपाणाइवायवेरमणस्त समणोवासएण पंच आइयारा पेयाला जाणियन्वा, न समायरियव्वा तं जहा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (तृतीय भा लिखते हैं । कितने ही वकील झूठा मामला अपने हाथ में लेक अपने मुवक्किलो को झूठी बाते समझाते हैं। फरियादी झूठं फरियाद करते है । बात को बदल देते है । झूठे गवाह तया करते है । गवाह भी झूठी गवाही देते है । कोई दूसरो की गुप्त बात को जाहिर कर देते है । दूसरों की निंदा करते है। ऐस करने से सत्य की रक्षा नही होती वल्कि हिंसा का भी दो लगता है । अपने शरीर के कोमल भाग में लोहे का काटा चुभः पर जैसी वेदना होती है, वैसी ही वेदना खराव भाषा बोलने। दूसरो को होती है। यह तो हुई लिखने और बोलने की बात । लेकिन असत विचार और असत्य वर्ताव के विषय में भी यही बात समझ लेना चाहिए । खोटी कल्पना करना वगैरह असत्य विचारो भी दोप लगता है । इसी प्रकार हमारे हरेक अनुचित काम दूसरो को हानि पहुचाने वाले कार्य भी असत्य ही हैं। इस वातो को जानकर त्याग करना चाहिए । सत्य व्रती के कर्त्तव्य :- . (१) सच्चा, सभ्य, मधुर, थोडा अर्थवाला, प्रयोजनवाना बोलना, लिसना और विचारना सीखना चाहिए। (२) गन, वाणी और काया के कार्यों में एक हो जाना चाहिए । अर्थात् सत्य हा विचारना और जैसा विचार हो वैस ही कहना या लिखना और बैगा ही अमल में लाना । (3) जहां दूसरों के प्रति अमत्य या अप्रिय मत्य बोल ' झी जरूरत आ पड़े वहां शश्य हो तो मौन रखना । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) (५७ , अगर इन बातो पर अमल किया जाय तो जगत् में बहुतसी हिंसा कम हो सकती है । एक का दूसरे पर विश्वास बैठ मकता है और बहुत-सा वैर-विरोध भुलाया जा सकता है । वहुत से अपराध और क्लेश बन्द हो सकते हैं और आत्मा मुधर सकता है । CASACHAKK पाठ सोलहवां दूसरा अणुव्रत स्थूल मुसावाय वेरमणं मूलपाठ बीयं अणुव्वयं थूलमुसावायविरमण से य मुसावाए पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा-कन्नालीए, गवालोए, भोमालीए, नासावहारे, कूडसक्खिज्जे। इच्चेवमाइस्स महंतमुसावायस्स पच्चक्खाणोजावज्जीवाए दुविहं सिविहेणं-न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा; एअस्स थलगमसावायवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियवा' न समायरियन्वाःतंजहा (१) सहसभक्खाणे (२) रहस्सभक्खाणे (३) x,सदार श्राविका को 'मभत्तारमतभेए' वोलना चाहिए। इन अतिनार के दो रूप विगेप प्रचलित है- (अ) मगारमंतभेएसाकारमपमेद और (आ) सदारमतभेए अर्थात् स्थदारमंत्रभेद । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८) ( तृतीय भाग मंतए । ( ४ ) मोसुवएसे (५) कूडलेहकरणे । तस्स मिच्छामि दुक्कड | अर्थ दूसरा अणुव्रत स्थूलमृपावाद से विरमण । वह मृपावाद पाँच प्रकार का कहा गया हैं । वह इस प्रकार - ( १ ) वर-कन्या सब झूठ ( २ ) पशु संबंधी झूठ ( ३ ) भूमि सबधी झूट (४) धरोहर को हजम करने सवधी झूठ ( ५ ) झूठी गवाही । इत्यादि मोटा झूठ बोलने का पच्चक्खाण | में जीवन - पर्यन्त दो करण तीन योग से मृपावाद (झूठ ) बोलू नहीं, बुलवाऊँ नहीं, मन, वचन, काय से । ऐने दूसरे मृपावाद विरमण व्रत के पाच अतिचार जानने योग्य है, आचर योग्य नहीं है । वे इस प्रकार हैं । मूल (१) सहसव्यक्खाणे - बिना सोचे-विचारे सहसा झूट बोला जाना अर्थ (२) रहग्समाखाणे - किसी की गुप्त बात प्रकट करना । (३) सदारमंतए - अपनी स्त्री या मित्र का गुप्त भेद प्रकट करना । लूटा उपदेश या खोटी सलाह देना झूठा केस - दस्तावेज वगैरह लिसना तत्स मिच्छामि दुक्कडं । (४) मोतुबएसे - (५) कूडलेहकरणे रवा का दूसरा अर्थ लम्बा विचार किये ना बोलना भी दिया जाता है । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९ - - जैन पाठावली) पाठ सत्रहवाँ तीसरा अस्तेय व्रत ' ( स्थूल-अदत्तादान से विरमण ) 'ध्यारमा:___अदत्तादान अर्थात् विना दिया लेना । इसे चोरी कहते है और स्तेय भी कहते है । आज्ञा लेकर लेना अस्तेय है। जिस वस्तु का मालिक कोई दूसरा हो, वह भले ही तिनके की तरह बिना कीमत की ही क्यो न हो, फिर भी उसके मालिक की आज्ञा लिये विना उसे ले लेना म्तेय है। विना हक का धन (परिग्रह) इकट्ठा करना भी चोरी ही है । चोरी पाप क्यो ? चोरी करने से भय उत्पन्न होता है । समाज का अविश्वास बढता है। दूसरं लोगो की गान्ति भग होती है। इसलिए महान् दोप है । चोरी करने में हिमा और असत्य दोनो दोप होते हैं । इसलिए किसी का अदत्त नहीं लेना चाहिए । चोरी की कुटेव : बालक आपस में एक दूसरे की कलम या पैन्मिल, चुरा लेते है । अव्वल नम्बर आने के लिए या पान होने के लिए चोरी करते हैं या देखकर नकल कर लेते हैं। दूसरे की बानगी मे गुप्त बात सुनकर उसका गलत अर्थ करते है । दूसरे का गुप्त Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०) (तृतीय भाग पयादि लेख उसकी आज्ञा के विना चुपके चुपके वाच लेते है। यह सब एक प्रकार की चोरी है। उपदेशक, लेखक या वक्ता किसी के विचारो या लेखो की नकल करके अपना नाम जाहिर करे, व्यापारी एक चीन दिखलाकर उसके बदले दूसरी चीज दे दे, अच्छी दिखाकर खराव दे दे, अवसर से लाभ उठाकर बहुत नफा ले, घोला दे, सट्टा या जुआ खेले, हक से ज्यादा ले, इन सब बातो का चोरी मे समावेश होता है। कारीगर या गुमास्ता पूरा मिहनताना लेकर पूरा काम न करे, दूसरे को मिहनत से आप फायदा उठावे, अधिक लाभ लेकर दूसरे के गुजरान को धक्का पहुंचावे, यह सब छोटी-मोटी चोरी ही है । श्रावक को ऐसा करने का सदा ध्यान रखना चाहिए । अस्तेय का अतिचार : (१) अपनी इच्छा या आज्ञा के बिना कोई आदमी चोर करके कोई वस्तु लाया हो तो उसे ले लेना 'तेनाहडे' (स्तेनाहृत दोप गिना जाता है । ऐसा काम लालच के कारण होता है इस प्रकार चोरी की वस्तु खरीदने से चोरी की आवृत्ति य उत्तेजन मिलता है। (२) किसी भी प्रकार की चोरी के लिए किसी की सहा. यता करना, या दूमरे में चोरी कराना अथवा ऐसे कागो :: गहमत होना, यह सब 'तक्या गपओगे' (नम्करप्रयोग) नाम दोप (अतिचार) है। (c) जुदे-जुदे राज्य माल को निकाम या आयात प अकुम रखते है । आने-जाने वाले माल पर चुगी लगाते हैं Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन पाठावली ) ऐसी व्यवस्था को अपने स्वार्थ के लिए भग करना ‘विरुद्धरज्जाइकम्मे, (विरुद्धराज्यातिक्रम) नामक अतिचार है ! (४) छोटे-मोटे माप-नौल से लेन-देन करना होनाधिकमानोन्मान या कूडतोले कूडमाणे' नामक अतिचार है । (५) असली के बदले नकलो वस्तु चलाना, एक वस्तु दिखलाना और दूसरी दे देना या वस्तु में मिलावट कर देना 'तप्पडिरूवगववहारे' (तत्प्रतिरूपकव्यवहार) दोष कहलाता है । इन पाच दोषो में ऊपर बतलाई हुई सभी प्रकार की चोरी का समावेश हो जाता है। ऐसा समझकर कभी किसी भी प्रकार की चोरी नहीं करनी चाहिए । अस्तेयवतधारी को सूचना : (१) किसी भी चीज की तरफ ललचाने की आदत ___ नही रसना चाहिए। (२) अपनी मिहनत से जो कुछ मिले उमीमे सतोप करना। (३) सग्रह करने की आदत पर और अपनी आवश्यकतओ पर नियंत्रण रखना चाहिए। (४) कुटुम्ब, समाज और देश के प्रति अपनी शक्ति के अनुगार अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए। (५) जब तक लोभ दूर न हो तव तक अपने काम की बस्तु वद ही, नीति के मार्ग से प्राप्त करना चाहिए । MyINE Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२) पाठ अठारहवां तीसरा अणुव्रत थूल अदिण्णादाण - वेरमणं ( स्थूल चोरी का त्याग ) ( तृतीय भाग मूलपाठ तइयं अणुव्वयं थूलभ दिण्णादाण - वेरमणं, से य अदिण्णादाणे पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा -- ( १ ) खत्तखणणं ( २ ) गठिभेअणं (३) जंतुग्घाडणं ( ४ ) पडिवत्युहरणं ( ५ ) इच्चेवमाइस्स अदिण्णादाणस्य पच्चचखाणं ; अप्पाण. य सर्वाधि, वावारसंबधि, तुच्छवत्यु विप्पजहिऊणं । जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं, न करेमि न कारयेमि मणसा वयसा, कायसा, एअस्त तइअस्स नगअदिण्णादाण- वेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समासरियव्या । तं जहा -- ( १ ) तेनाहडे (२) तक्करपओगे (३) विरुद्धरज्जाइक्कमे (४) कूडतुलकूडमाणे (५) तपस्विगववहारे, तस्स मिच्छामि दुवकडं । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैत-पाठावली) ६ अर्थ तीसरा अणुव्रत स्थूल अदत्तादान (चोरी) से विरति । अदत्तादान पाच प्रकार के कहे गये हैं। वह इस प्रकार(१) खात खनना (२) गाठ काटना (३) ताला तोडना (४) पडी हई वस्तु लेना (५) मालिक वाली चीज विना पूछे लेना, इत्यादि स्थूल अदत्तादान लेने का पच्चक्साण । जीवन पर्यन्त दो करण तीन योग से चोरी करूँ नही, कराऊँ नहीं, मन वचन काय से । ऐसे तीसरे अदत्तादान विरमण व्रत के पाच अतिचार जानने योग्य हैं, आचरण करने योग्य नही हैं । वे इस प्रकार - अर्थ (१) तेनाहडे- चोरी का माल लिया हो । (२) तक्करप्पओगे-- चोर को उत्तेजन दिया हो । (३) विरुद्धरज्जाइक्कमे- (चुगी-चोरी आदि ) राजविरुद्ध काम किया हो। (४) फूडतुलकूडमाणे- झूठा नाप तोल किया हो। (५) तप्मडिरूवगववहारे-वस्तु में मिलावट की हो। तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४) ( तृतीय भाग पाठ उन्नीसवाँ चौथा ब्रह्मचर्यव्रत ( स्वस्त्री संतोष-परस्त्री विरमण ) व्याख्या : जो ब्रह्म न हो वह ब्रह्म कहलाता है । जिसका पालन करने या अनुसरण करने से सद्गुण वढे उसे ब्रह्म कहते हैं । और जिससे सद्गुण न वढकर दोप वढे वह अब्रह्म है | अब्रह्म का त्याग करके ब्रह्म का आचरण करना ब्रह्मचर्य कहलाता है । अपनी समस्त इन्द्रियो पर काबू रखना, किसी भी इन्द्रिय को विपयो की ओर जाने से रोकना ब्रह्मचर्य है | 2 ब्रह्मचर्य की महत्ता : मनुष्य का जीवन सत्य का आचरण करने के लिए ही है। जो सत्य के लिए मिहनत करता है, वह किसी भी दूसरी वस्तु की अगर इच्छा करे तो व्यभिचारी ठहरता है । ऐसी स्थिति में विकार की आराधना तो की ही कैसे जा सकती है? एक भी ऐसा उदाहरण नही मिल सकता कि किसी ने भोग-विलाम से सत्य की प्राप्ति की हो । अहिसा का पालन भी सत्य के बिना अशक्य है। हमा अर्थात् जगत् के प्राणी माय पर प्रेम । जहाँ एक स्त्री को मुत्य के लिए प्रेम हो और पुरुष को स्त्री के लिए प्रेम हो, यहाँ दूसरो के लिए क्या बच रहा ? वे दोनों अगर किसी Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ना तृतीय भाग ) तीसरे से ही प्रेम रक्खेंगे तो उनमे जगत् की भलाई का कोई भी काम नही हो सकेगा। उनसे ब्रह्मचर्य व्रत भी पालन नहीं किया जा सकता । अहिंसावत का पूरी तरह पालन करने वाला विवाह नहीं कर सकता । फिर दुराचार का सेवन तो कर ही कैसे सकता है ? ( गाधीजी के व्रतविचार से ) - ब्रह्मचर्य की मर्यादा :। तव प्रश्न खडा होता है कि विवाह क्या वर्ज है ? अथवा ' विवाहित को सत्य की प्राप्ति कभी हो ही नहीं सकती ? वह । अपना बलिदान नही कर सकता ? इसके लिए एक ही मार्ग । है, और वह यह है कि विवाहित को अविवाहित बन जाना । चाहिए । विवाहित स्त्री-पुरूप, एक दूसरे को भाई-बहन सम बने लग जाय । ऐसा करने से सब चीजो से छुटकारा मिल __जाता है । जगत् की स्त्रीमात्र बहिन है, माता है, लड़की है, यह विचार ही मनुष्य को एक दम ऊँचा ले जाने वाला है। - इसमें पति-पत्नी को कुछ खोना नहीं पड़ता, उलटे उनके स्नेह में वृद्धि होती है। जहा म्वार्थ से भरा मसार होता है वहाँ कलह होता है। (गाधीजी के व्रतविचार गे) लेकिन जो लोग इस आदर्श तक भी नहीं पहुंच सकते, उनके लिए दूसरा आदर्श बतलाया गया है । वह आदर्श है 'स्वस्त्रीसतोप' । अर्थात् अपनी पत्नी को छोडकर संसार की समस्त स्त्रियों को माता एव वहिन के समान समझना । स्त्रियो के लिए इने यो कह सकते हैं अपने पति को छोडकर ससार के पुरुष मात्र को पिता, भाई या पुत्र के समान समझना । इम आदर्श का आशय यह है कि श्रावक नीतिपूर्वक स्वीकार की Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (तृतीय भाग हुई अपनी स्त्री के सिवाय और श्राविका नीतिपूर्वक स्वीकार किये हुए अपने पति को छोड़कर किसी दूसरे की ओर बुरे भाव से न देखे । स्वनारी-मर्यादित ब्रह्मचर्य पालने का आदर्श बहुतों के लिए उपयोगी सावित हुआ हैं। साधु और साध्वी तो पूरा-पूरा ब्रह्मचर्य पालते हैं । इसलिए वे देव, पशु या मनुष्य जाति के किसी भी व्यक्ति के साथ मैथुन का सेवन नहीं कर सकते । श्रावक और धाविका को भी इस पथ पर चलना है । अगर सतान प्राप्त करने की इच्छा के कारण एकदम इस मार्ग पर वे न चल सके तो धीरे-धीरे चलने की छूट उन्हे दी गई हैं। इस मर्यादा में भी अगर थोडी सतान मे सतोप न कर लिया जाय और जब तक इन्द्रियां शिथिल न हो जाएं तव तक अब्रह्मचर्य सेवन करता रहे तो से स्वस्त्री या स्वपुरुप के साथ व्यभिचार ही गिनना चाहिए। ब्रह्मयं व्रत, दूसरे व्रतो की तरह मन, वचन और काय से पालन किया जाता है। जो अपने शरीर को काबू में रखता जान पड़ता है लेकिन मन में खराव इच्छा रखता है अथवा खराव वत्रन चोलता है, वह मूट मिथ्याचारी है। मन में खराब इच्छाएं होने देना और शरीर को दबाने की कोगिरा करना यह हानिकारक है । जहाँ मन होगा वहाँ गरीर को भी वह घसीट ले जाएगा। ब्रह्मचर्य का पालन करने में गरीर को बहुत लान होना है। उन लामो का वर्णन गरने की आवश्यता नहीं है । गभी जानते हैं कि ब्रह्मचर्य पालो से शरीर बलवान होता है, मन Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली ) (-६७ दृढ होता है, आसो का तेज वढता है, उम्र लम्बी होती है, चेहरे पर चमक आती है, और परलोक भी सुधरता है । इसलिए ब्रह्मचर्य की तरफ पूरी तरह ध्यान देने की आवश्यकता है । बालकों के जीवन - विकास के लिए : बालक अर्थात् कोमल पौधा । उसे छूटपन से हो मलीभाति सभाला जाय तो सुन्दर फल मिल सकते हैं। कोमल पौधे को जिस ओर झुकाया जाय उसी ओर झुक सकता है। इसी तरह बालक में जैसे सस्कार डालना चाहे वैसे डाल सकते है । मगर बालको का सुधार माता-पिता के ऊपर निर्भर हैं । इसलिए श्रावको को अपने तथा अपनी संतान के जीवनविकास के लिए इस व्रत की ओर पूरा ध्यान देना चाहिए । ब्रह्मचर्य व्रत के अतिचार : अपनी विवाहिता किन्तु छोटी कच्ची उम्र की स्त्री के साथ कामभोग का सेवन किया हो तो " इत्तरियपरिग्गहियागमण " दोष लगता है । (२) जिस स्त्री के साथ शादी नही हो चुकी है सिर्फ सगाई हुई है, उसके साथ काम - क्रीडा की हो तो " अपरिग्गहियागमण " दोष लगता है । क्योकि जब तक समाज के सामने विवाह नही हुवा है, तब तक उसके शरीर का उपयोग करना नीतिविरुद्ध है । इसके अतिरिक्त सगाई हो जाने पर भी, कारण- विशेष उपस्थित हो जाने पर दूसरी जगह विवाह Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८) (तृतीय भाग पारने का कन्या का जो अधिकार है, वह भी जोखिम में पह जाता है । इससे समाज में अव्यवस्था होती है । (३) सृप्टिविरूद्ध काम करना या केवल खराव इच्छार करना इससे भी " अनंगक्रीडा " दोप लगता है। जैसे जन्नत आग में घी डालने से आग भडक उठती है, उसी प्रकार सरा भावना रखने से बुरी इच्छाएँ और ज्यादा भडकती है । इस 'स्वस्त्री-मर्यादा' या 'स्वपति-मर्यादा का पालन करना अशव हो जाता है । सन्तान भी खराब होती है । . (४) दूसरी बार विवाह करना दोप है और दूसरो । विवाह कराने का धधा करना भी दोप है । क्योकि ऐसा घधा करने से सराब टेव पड़ जाती है । इससे ब्रह्मचर्य की अपेक्षा अब्रह्मचर्य होने का ज्यादा भय है । (५) कामभोग की खूब इच्छा रखना भी अतिचार है। यद्यपि यह मन का दोष है, मगर मन की इच्छा ही गरीर और वाणी के विकार का मूल है। इसी में सव दोष उत्पन्न होते हैं स्त्री और पुरुष दोनो के लिए अपने-अपने तरीको ऊपर कहे दोप लगते है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - जैन पाठावली) पाठ बीसवाँ चौथा अणुव्रत [थूल मेहुण वेरमण ] मूलपाठ चउत्थं अणुव्वयं थुलमेहुणवेरमणं, 'सदारसंतोसिए अवसेसमेहुणविहिपच्चवखाणं', जावज्जीवाए दिव्वं दुविह तिविहेणं न करेमि न कारवेमि, मणसा क्यसा कायसा, मणुस्सतिरिक्खजोणिय एगविहं एगविहेणं न करेमि-कायसा। एअस्ससदारसंतोसस्ससमणोवासएणं पंच अइयारा जाणियन्वा, न समायरियव्वा । तंजहा (१) इत्तरियपरिग्गहियागमणे (२) अपरिग्गहियागमणे (३) अणंगकीड़ा (४) परिविवाहकरणे (५) कामभोगतिव्वामिलासे, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। अर्थ चौथा अणुव्रत-रयूल मैवन (मभोग) में विरमण , अपनी -श्राविका को "ममत्तारसनोगिए" कहना चाहिए। २-आजीवन ब्रह्मचारी को इस प्रकार पाना चाहिए - 'जेमि परिसाण (इन्थीण)कायाए सब्बाओ मेहणाच्नक्खाण तेमि दिवमाणुम्सतिरिवाजोणियसंवधि मेहुणस्स पच्चक्लाण' ३-धाविका को गमतारमतोसम्म' बोलना चाहिए । ४-माविका को 'नगणोवामिएणं' बोलना चाहिए। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 ७४ ) पाठ बाईसवां पाचवा अणुव्रत ह ( थूलपरिग्गह-- वेरमणं ) ( तृतीय भाग मूलपाठ पंचमं अणुव्वयं थूलपरिग्गह- वेरमणं (इच्छापरिमाणं ) । खेत्तवत्थूणं जहापरिमाणं, हिरण्णसुवण्णाणं जहापरिमाण, धणनाणं जहापरिमागं, दुपय-चप्पाणं जहा परिमाणं कुम्पस्म जहापरिमाणं, एवं मए जहापरिमाणं कयं तओ इरितम्त परिग्गहस्स पच्चक्खाणं । जावज्जीवाए एविहं तिविहेां न करेमि मणसा वयस फायसा एअम्स पंचमस्स थूलगपरिग्गह- परिमाणवयस्स समणोवासएणं पंच भइयारा जाणियव्वा, न समायरियन्वा तंजहा (१) सेत्तवत्यु - पमाणाइक्कमे (२) हिरण्ण-सुवाणाइक्कमे (३) धणधन्न - पमाणाइत्रक मे ( ५ ) दृश्यचश्य पमाणाइयकमे (५) कुविय -- पमाणाइक्कमे । तरस मिच्छामि दुक्कई Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली ) अर्थ पांचवां अणुव्रत स्थूल परिग्रह से विरमण । १ खेत्त क्षेत्र, वाडी, बगीचा आदि, २ वत्यु ( वस्तु ) - मकान, बगला, दूकान, वखार वगैरह । ३ हिरण्ण-चांदी और चांदी के जेवर, ४ सुवण्णसोना और सोने के जेवर, ५ घण-रोकडी रुपया, नोट, बॉन्ड, - शेयर, कैश सर्टिफिकेट आदि, ६ धन चोवीस प्रकार का धान्यअनाज, ७ दुपद - मनुष्य दास, दासी, पक्षी आदि दो पैर वाले ८ चउप्पय- पशु, ढोर आदि चार पैर वाले, ९ कुप्प - तावा, पीतल आदि धातुओ की चीजें, फरतीचर वगैरह । इन नौ प्रकार के परिग्रह का मैने इच्छा परिमाण किया है । इसके उपरांत अपने उपयोग के लिए संग्रह करने का में त्याग करता हूँ । + (७५ मै जीवन पर्यन्त एक करण तीन योग से, मर्यादा उपरात परिग्रह क्लूगा नही, मन, वचन, काया से परिग्रहपरिमाण के पाच अतिचार शेय है, इस प्रकार मूल (१) खेत्तवत्थु - पमाणाइक्कमे ऐसे पांचवे स्थूल उपादेय नहीं । वे अर्थ संत, मकान, आदि के परिमाण का उल्लघन किया हो । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६) (तृतीय भाग (२) हिरण्णसुवण्ण- पमाणाइक्कमेचादी, सोना, जवाहरात आदि के परिमाण ना उल्लंघन किया हो । धन-धान्य के परिमाप का उल्लंघन किया हो। (४) दुपपच उप्पथ पमाणाइक्कमे द्विपाद, चतुष्पाद के परि माण का उल्लंघन किया हो । (३) धणधन्न - पमाणाइक्कमे (५) कुविध - पमाणाइक्कमे वर्तन - वासन, फरनीच आदि घर वखरे मे 'परिमाण' का उल्लघन किया हो तो वह मेरा पाप. मिथ्या हो । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व विभाग अनुक्रमणिका ३-पुण्य-तत्त्व ८-बन्ध-तत्त्व ४-पाप-तत्त्व द्रव्यकर्म और भावकम पुण्य-पाप तथा धर्म-अधर्म कर्मवाद का सिद्धान्त, पुण्य के प्रकार और फल ईश्वरवाद की समीक्षा, पाप के प्रकार और फल कर्मवन्ध के प्रकार, ५-आसव--तत्त्व कर्मों के लक्षण, प्रकार व आरव के कारण ( २५ स्थिति, आठ कर्मों की कियाएं ) प्रकृतियाँ। ६-मंवर तत्त्व ९-मोक्ष-तत्त्व २२ परीपह, १२ भावना | सिद्धति आदि • मोक्ष-प्राप्ति की पालना ७-निर्जरा-तत्व ता का विवेचन Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तल्ल-विभाग जीव के समान जिममें उपयोग अथवा भाव नहीं हो है, वह अजीव तत्त्व कहा जाता है। ज्ञानादि शक्ति से रहित 'ई' कहा जाता है। अजीव तत्त्व में पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मानिकाय, आकाशास्तिकाय और काल का विवेचन दूसरी पाठावली में हो गया है। पुद्गलास्तिकाय मे से कर्मवर्गणा के पुद्गरों को जीव माह की चिकनाई वश खीचता है जिसमे जन्म-मल होता है, यह विचार भी कर चुके । अब पुण्य, पाप, मानव मवार, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष तत्त्व का वर्णन इसमें विषा जायगा। जीव के साथ पुद्गलो का आकर्षण होता है वह दो प्रकार का है-१ शुभ और २ अगुभ । गभफल का दाता पुण्य है। और अगमफल का दाता पाप है । वह पुण्य और पाप क्या है। कर देगना है। ३-पुण्यतत्त्व और ४-पापतत्त्वसामान्य व्यारया पुष्प अर्थात् पवित्र, 'गुण्य अर्थात् अच्छा । जैनतत्त्वज्ञान में भागो मी पुण्य कहा गया है । शुभ क्रिया का परिणा बम ही हो जाता है, पर नहीं भूलना चाहिए । यह स्वाभावित Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) (७९ ही है कि शुभ क्रिया मे नीति, प्रामाणिकता, परहिन बुद्धि और ऐसे ही अन्य सात्विक कार्य हों। प्रश्न-नीति और प्रामाणिकता को समझने का मापदद क्या? उत्तर-अपने न्यायानुकूल कर्तव्य का अधिक प्रतिफल नही लेना, असत्य नही बालना, कपट व्यवहार-धोखेबाजी नहीं करना, अन्य की वस्तु नही लेना, अन्य की धरोहर-अनामत नहीं दवाना, कुटुम्ब, ग्राम, देश अथवा राष्ट्र के प्रति अनुकूल होना आदि रूप से सामान्य नीति का पालन करना, यही नैतिकता और प्रामाणिकता है। ' इसके अतिरिक्त दूमरो का भला करना, दूसरो के दुख दूर करना, आत्म-भोग देना, दूसरो को सुखी देख कर सुखी होना एय दुःखी देखकर दुख अनुभव करना, ये भी पुण्य के ही लक्षण है । मेघकुमार की आत्मा ने हाथी के भव मे खरगोग को रक्षा के लिए अपने प्राण दे दिये, उसी के परिणाम से राजा श्रेणिक । के यहाँ मेघकुमार के रूप मे वे पुत्र हुए, हाथी से मनुष्य हुए एक । योग्य वातावरण तथा साधनसपन्न हुए । यह पुण्य का ही परिणाम है। पुण्यशाली और पापी? रसी प्रकार नीति द्वारा प्राप्त किये हुए मवध और साधन भी पुण्य अथवा पुण्य से ही परिणाम कहे जा सकते है । कितने ही मनुष्य धन को ही पूण्य मानते है, किन्तु इगसे धनवान पुण्य " वाले ही है, यह मत्य नहीं है । नीति और प्रामाणिताना द्वारा * भाजीविका चलाते हुए धन एकम करके उसका उपयोग वय Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ) ( तृतीय भाग क्तिक स्वार्थ के लिए अथवा परिग्रह रुप मोह के लिए नहीं होनाचाहिए, किन्तु समाज, धर्म व देश हित के लिए होना चाहिए। केवल धनवान होने के कारण से ही किसी मनुष्य को कोई पुण्यशाली कहे तो यह सत्य नहीं है, किन्तु यदि वह मनुष्य परहित के लिए धन का व्यय करे तो वह नीतिसपन्न और प्रामापिक है एव पुण्यात्मा है । आज यदि कोई मनुष्य नीति का उल्लघन करके धन एकत्र करता है, इस प्रकार उसके अधिकार में धन होने के कारण से ही यदि हम उसे पुण्यशाली मान ले तो चोरी और लूटेरों को ( जिनके अधिकार में खूब धन होता हैं ) भी पुणशाली मानना पडगा । पुण्य और पाप की परीक्षा करने को यह प्रणाली सर्वथा विपरीत है । मिथ्या है । पुण्य का जो लक्षण प्रारंभ में ऊपर बतलाया है, उस लक्षण को देखते हुए मट्टा-फाटका, राक्षसी मंत्र, वर-कन्याविक्रय, जुवा, व्याजमोरी, दगाबाजी, नफाखोरी, अनिष्ट वस्तुओं का व्यापार, सराव नोकरी आदि सभी बुरे मागों द्वारा आने बाला धन पुण्य का नहीं किन्तु पाप का ही परिणाम है, हि वह अनीनिमय और पावर्धक है, अतएव वह अशुभ (पाप) कर्म का कर्ता है। कारण मद्गुण प्राप्त करने का प्रारम्भ तो शुभ कियाओ द्वारा ही करना पड़ेगा। रिमी भी दिन पुण्य ( धर्म-साधन ) विना धर्म फल मिलने या नहीं है, ऐसा विचार करके ही ज्ञानी पुरुषों ने कितने ही मार्ग बतलायें है । उनमें दान का मार्ग प्रथम है, यह जथवा प्रतिफल की बिना आया रिये ही निः भाव से दान दिया जाना चाहिए । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन पाठावली) (८१ दान के पात्र-- मुपात्र साधु-माध्वियो को अन्न, वस्त्र आदि देने का सर्व प्रथम कयन किया गया है । पच महाव्रतधारी साधु प्रभु की भक्ति अथवा धर्मोपदेश द्वारा उसका सुन्दर प्रतिफल देते हैं । ये दान भी इस प्रकार लेते है कि जिससे दाता के सयम और भक्ति में उन्नति हो, यही कारण है कि दाता को इच्छा की अपेक्षा मे लेने वाले की इच्छा की जबाबदारी शास्त्रकारो ने अधिक बतलाई है। मिक्ष की महत्ता किस लिए-- उत्तरदायित्व को समझने वाले ऐसे पच महाव्रतधारी भिक्षु के दर्शन और सहवास से भी दाता का सयम, भक्ति एव सत्य के प्रति प्रेम बढ़ता है, इसीलिए 'अतिथिसविभाग' नामक वारहवे व्रत में भी इसकी महत्ता बतलाई गई है। यहां पर दान को केवल अच्छी क्रिया ही नहीं समझना किन्तु आत्मसुधार का मार्ग समझना चाहिए । गास्न मे ऐसे दान को निर्जरा तप कहा गया है, यदि सयमभावना के दृष्टिकोण को त्याग कर किसी अन्य दृष्टिकोण से दान दिया जाय तो वह केवल अच्छा काम मात्र ही माना जायगा। पुण्य के ९प्रकार १ अन्नदान, २ जलदान, ३ आश्रय (मकानादि) दान, ८ आनन, पाट आदि का दान, ५ वस्नदान, ६ मन द्वारा किसी का भी इप्ट चितन, ७ वचन द्वारा नात्त्विक शब्दोच्चारण, ८ शरीर द्वारा संवा करना और ९ नमस्कार करके विनीतभाव प्रगित करना। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ('तृतीय भाग पुण्य का फल क्या ? पुण्य के संयोग से धर्म करने के ४२ साधन प्राप्त होते है । वे कर्मभेद के शुभ विभाग में बतलाये गये है । उनमें मनुष्यगति, देवगति, सुन्दर और शरीर अच्छा व्यक्तित्व आदर्श प्रभाव आदि पुण्य के ही फल है किन्तु यदि इनका उपयोग धर्म के लिए नहीं दिया जाय तो ये पाप अथवा अधर्म के कारण बन जाया करते हैं । लिए पुण्य को फल नही मानते हुए गाधन ही मन नाहिए इन्हें मोक्ष नगरी मे नही पहुंच जाय वहां तक सरक्षक ही मानना चाहिए और उन्हें केवल फल मानकर भोगविलाम में हो बासक्त नहीं रहना चाहिए । ८२) अन्त में तो साधन ( पुण्य ) त्याज्य ही है-- हेय ही है और ऐना रामजन पर ही इने छोड़ा जा सकेगा । पाप क्या है ? नी तत्त्वों में पुण्य और पाप को स्वतंत्र तत्व के रूप में स्थान दिया गया है किन्तु धर्म और अधर्म की स्वतंत्र तन्त्र रूप में स्थान नहीं दिया है, धर्म का समावेश संबर में और धर्म का गमावेश आयव तत्त्व में हो सकता है और कितने ही आगार्यो ऐना किया भी है, उनकी दृष्टि में पुण्य यह 'शु आश्रय' है और वह 'अशुभ आश्रव' है । के अनुसार यदि पुण्य क्रिया धर्मानुलक्षी हो तो किया जानन के स्थान पर सबर के लिए साधन कोनियाओं की शुभकर्म अथवा या गया है। यदि ये ही क्रियाए । धर्म दक्ष्य कर मी जेवतो व पुण्य भी गवर का निमित्त बन जाता है । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली ) (८३ हो जाती है । किन्तु यदि पुण्य क्रिया धर्मानुलक्षी न हो तो वह किया बन्धरूप बन जाती है । तत्त्व के रूप था कि जन जिन आचार्यों ने पुण्य तथा पाप को स्वतंत्र में निर्देश किया है, उनकी दृष्टि में यह तात्पर्य साधारण पुण्य और पाप दोनो को आश्रव रूप मान लेने पर पाप से भी निवृत्त नही होगे, कारण कि दोनो आश्रवस्त हैं तो फिर पुण्य करो अथवा पाप करो, इसमें क्या अनर है ? ऐसा समझ लेगे । साधारण पुरुषो को पाप से पुण्य की ओर ले जाने के लिए दोनों तत्त्वों को भिन्न-भिन्न वतला कर कहा कि यदि पुण्य आत्मानुलक्षी नही होगा तो वह आश्रवरूप वन जायगा, इसलिए आत्मानुलक्षी बनने का ध्यान रखखो, आदर्श खखो, वाह्य दृष्टिकोण से तो पुण्य शुभ क्रिया है और पाप अशुभ किया ही है । साराश यही है कि बाह्य क्रियाओ से या तो पुण्य होगा अथवा पाप, इन दोनो में से एक ही रहने वाली है । पाप के भेद पाप अर्थात् अशुभ कर्म । निकृष्ट पुद्गलो में अथवा अनिष्ट आदतों में यदि आत्मा मलग्न हो तो वह पापी ही बनती है । पाप के १८ प्रकार सक्षिप्त रूप से प्रतिक्रमण में बतलाये गये हैं, इन ठारह पापस्थानों का आचरण नही करना चाहिए। जो नावरण करता है उसको पाप का फल भोगना पडता है । पाप का फल - पाप का परिणाम भाविकाम के सावनो में कठिनाइयाँ पैदा होना है। आत्मविकास में महायक कारणों की प्राप्ति Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ८४) (तृतीय भाग पुल के कारण से होती है । पुण्य के फल से सर्वथा विपरीन और अतितुच्छ ऐसा पाप का फल ८२ प्रकार से भोगना पन्ना है। उन ८२ भदो का सार इस प्रकार है - ८ः प्रकार के कर्म-वर्णन गे अनिष्ट आदतो को देव लेना चानिए । न कगति, तिर्यच की नीचगति, न्यून इन्द्रियो को प्राप्ति, अज्ञान, अति निद्रा, दुख, मोह, अति क्रोध, मान, माया, लोभ आदि, कुरूप शरीर, रोगी गरीर, दुर्वल गरीर, दुगध गरीन, अपचग वाली दगा, कठिनाइयाँ आदि अनिष्ट और तुन्छ नाधन पाप के ही परिणाम है , इसलिये प्रत्येक स्थिति में पाप तो छोटने योग्य ही है । आश्रव कर्म को नाधारण व्यास्या तो कही जा चुकी है और विशेष जागे कही जाएगी । आश्रव अर्थात् आत्मा के पास कर्म का आगमन । शुभकर्म का आगमन पुण्य अर्थात् शुम आघव और मवम का आगमन पाप अर्थात अशुभ आश्रव । पुण्य, कर्मों में आश्रय रूप है फिर भी एकान्त स्प से पोरने योग्य नहीं है, पारण कि यह भी कमरहिन अवस्था (ग्राादमा) ना पहनाने में माधन प है, साध्य को दृष्टि में गाने हा नाधन नप पुष्य का अच्छा उपयोग करने योग्य ही है । जो गुप्य से ही माध्यम्प में मानकर बैठ जाय' उने पुरानो नाम में नहीं मानने के लिये समझना चाहिये, किन्तु गमावां देने के लिए नहीं कहा जा सकता है । जगे नोट:-रण्य में आत्मा प्रगन ने वग गे होता है, जब धर्म गदर में दुगा, मामा के यम में होता है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली.) (८५ लघन करने का विधान स्वस्थ होने के लिये ही कहा जाता है, किन्तु इसका अर्थ सर्वथा भोजन त्याग देना नहीं है, अन्यथा अर्थ के स्थान पर अनर्थ की सभावना हो सकती है, वैसे ही ' "पुण्य हेय है" का कथन उसी दगा को लक्ष्य में रखकर कहा गया है न कि सर्वया त्याग करने के लिये । हां पाप तो सदैव के लिये छोडने योग्य ही है। इस लिये पाप ज्ञेय (जानने योग्य) कहा जा सकता है किन्तु एकत्र करने योग्य नहीं कहा जा सकता। तुलनात्मक दृष्टि से यदि एक ओर अधर्म हो और दूसरी और पाप हो, तो अधर्म की अपेक्षा पाप को ठीक माना जायगा जैसे, मनुष्य कायर बने तो यह अधर्म कहा जायगा इसकी अपेक्षा तो आक्रमण करने वाले का सामना करे और ऐमा करते हुए कोई अनिष्ट काम कर डाले तो भी वह भागने वाले कायर की अपेक्षा ऊंचा है । माहन के साथ सामना करने के लिए जो सडा रहता है वह प्रजपनीय होता है, किन्तु अनिष्ट मिया करने वाला प्रशमनीय नही होता है वह तो हेय ही माना जायगा । किन्तु कोई विरतापूर्वक सामने सडा रहा और समगाय स्थिति बराबर कायम राखी तो वह धर्म पर स्थिर रहा, ऐमा गाना जायगा । यही नर्वोत्तम ब-है, ऐमा धार्मिक पुरुष जो क्रिया करेगा यह गास्म में उन्लेखनीय होगी अर्थात दह ऐलो क्रियाएँ करता हआ भी कम-बन्धनी को काटता रहेगा। किन्तु पनी स्थिति में रहने वाले पुरा में पदि समभावो का माय रहा और भिमान भाव जागृत हुआ और जहकार किया तो उसने पुण्य कमाया नहीं माना जायगा, किन्तु धर्माचरण नहीं नहा जाएगा। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (- तृतीय भाग ऐसे पुण्यशाली को पुप्य के प्रताप से शुभकर्मों का आश्रव होगा और उनके फलरूप में उसको अच्छे साधनो की प्राप्ति होगी किन्तु साधनो की प्राप्ति के बाद वह विकास करेगा या हास की और जायगा यह निश्चयरूप से नहीं कहा जा सकता है, यदि वह समदृष्टिशील होगा तो उन साधनो का उपयोग आत्मविकास के लिए करेगा एव पुण्य को धर्म का निमत्त बना देगा । यदि किसी ने अभिमान नही करते हुए समभाव रखे हो और साथ में कोई आदर्ण क्रिया नही की तो उसके लिए वह 'सवरदशा' कही जायगी । इसी प्रकार यदि कोई समभावना के साथ कोई भी आदर्श क्रिया करे तो वह निर्जराशील ' कहा जायगा। आश्रव के कारण :___ 'जब तक दुर्गुणो का त्याग नही होगा, तब तक आश्रव नही रुकेगा' इस सिद्धान्त के अनुसार आश्रव के स्वरूप को समझते हुए कुछ एक साधन अथवा क्रियाएँ साधारण रूप से आश्रव स्वरूप हैं, उनका विचार कर लेना चाहिए । अज्ञान ( वास्तविक ज्ञान का अभाव ) पाच, अथवा बारह व्रतो का अपालन, पाच प्रमाद, चार वषाय, मन, वचन और काया सवधी कुअ.दते, राग-द्वेष के आधीन होकर पाचो इन्द्रियो को स्वछन्द कर देना, हास्य, कुविनोद तथा हिसा आदि ये सव आश्रव के निमित्त कारण हैं। हिंसाजन्य २५ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली ८७ क्रियाएं भी आथव के कारण रप.ही है, इस प्रकार आश्व के कुल ४२ भेद हैं । ( पाच अनन, पाच इन्द्रिय-विषय, चार कापाय, तीन अशभयोग और २५ क्रियाएँ ।) २५ क्रियाओं का वर्णन इस प्रकार है:(१) कायिकी क्रिया-अविवेक अथवा दुर्भावना पूर्वक काया (गरीर) द्वारा होने वाली हिंसा । (२) अधिकरणिका किया- शस्त्र द्वारा की जाने वाली ह्मिा । (३) प्रादोपिकी क्रिया-प्रोध के कारण उत्पन्न होने वाली हिंसा। (४) पान्तिापिनी क्रिया-वुद को अथवा दूसरे को ताप-क्लेग पहुंचाने से उत्पन्न होने वाली हिसा । (५) प्राणातिपातिका क्रिया-प्राण दस हैं- पांच इन्द्रियों, पांच बलप्राण, मन बलप्राण, वचन वलप्राण, काया बलप्राण, आयुष्य बलप्राण और स्वानोच्छ्वास बलप्राण, जीव के इन प्राणों में से किमी भी प्राग को नाट करने अथवा कष्ट देने से उत्पन्न होने वाली हिमा। (६) आरम्भिगा किया-आरम्भ के कारण होने वाली हिंसा । (७) परिग्रहिका किया--परिगह के कारण होने वाली हिंसा । (८) मायावत्तिया प्रिया-गाई करने से उत्पन्न होने वाली हिना। (९) अप्रत्यारयान किया-त्याग करने योग्य का त्याग नहीं करने से होने वाली हिंसा । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८) (तृतीय भाग (१०) मिथ्यादर्शनशल्य क्रिया- अज्ञानरूपी--मिथ्यात्वरूपी शल्य से होने वाली हिंसा । ' (११) दृष्टिका क्रिया-द्वेषदृष्टि से अथवा वैरभाव से देखने पर होने वाली हिंसा। ' (१२) स्पष्टिका क्रिया-कोमल अथवा कठोर स्पर्श होने पर पैदा होने वाले विकार अथवा दुर्भा वना जनित हिंसा । (१३) प्रातीतिकी क्रिया-ईर्पा से-पर उन्नति के प्रति असहि ष्णुता से उत्पन्न होने वाली हिंसा । (१४) सामतोपनिका क्रिया-अपनी प्रशसा से अहकार करने पर उत्पन्न होने वाली हिंसा । (१५) न्यस्तिका क्रिया-जीव अथवा अजीव को फेकने से लगने वाली हिंसा । (१६) स्वहस्तिका क्रिया-अपने हाथ द्वारा अथवा अन्य रीति से शिकार द्वारा लगने वाली क्रिया । (१७) आज्ञापनिका क्रिया अन्य को आदेश देकर कराई जान वाली क्रिया । (१८) विदारणिका क्रिया-जीव आदि को विदारण करने से । अथवा अन्य किसी के पाप को प्रका शित करने से लगने वाली क्रिया। (१९) अनाभोग प्रत्यया-अकारण ही वस्तुओ को उठाने अथवा रखने मे अविवेकता जाहिर करने से । लगने वाली क्रिया । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन पाठावली) (२०) अनवकाक्ष प्रत्यया-सिद्धान्त का अनादर करके अपनी अथवा अन्य की जिंदगी को जोखिम में डालने की साहसपूर्वक क्रिया अथवा शास्त्र के ज्ञान का विरोध । . (२१) प्रेम प्रत्यया-रागमय प्रेम के कारण उत्पन्न होनेवाली किया। (२२) द्वेप प्रत्यया-द्वेप जन्य क्रिया । (२३) प्रायोगिकी क्रिया-मन, वचन और काया की अगुभ प्रवृत्ति के कारण लगने वाली किया । (२४) मामुदायिकी क्रिया-अनेक मनुष्य मिलकर एक माध कर्मों का बन्धन करे ऐसी क्रिया । जैसे कि एक कुटुम्ब दूसरे का अनिष्ट सोचे, बोले अथवा करे, इसी प्रकार समाज अथवा देश को भी समझ लेना चाहिए। ऐसी प्रिया का फल भी प्रत्येक को भोगना ही पड़ता है। जहाज का डूब जाना अनेक मनुष्यो का एक साथ ही दुखी होना, भूकंप होने पर पृथ्वी में अनेको का एक साथ घुस जाना इत्यादि नयोगों का कारण ऐसी ही क्रिया का फल है । ये चौवीस प्रियाएँ भयकर है। (२५) ऐपिथिकी क्रिया-मार्ग गे चलने से होने वालो प्रिया। जहाँ तक प्रमाद रहे वहाँ तक यह प्रिया संसार को कलाने वाली है और प्रमाद का नारा हो जाने पर सतार को पनाने वाली नही होती है । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( तृतीय भाग इस प्रकार आश्रव के कारण का मूल अज्ञान है | ज्ञान होने पर उपर्युक्त कितनीक क्रियाएँ तो नही लगती हैं और कुछ एक होती हैं वे पाप अथवा अधर्मरूप नही होती हुई धर्मरूप बन जाती हैं । भावना आश्रित कर्मबन्धन - ९०) यहाँ शका होती होगी कि अज्ञान के दूर हो जाने प जो थोडी बहुत क्रियाएँ होती हैं, वे धर्मरूप कैसे बन जाती है। इस सबंध में पहले हेतु दृष्टान्तो से हम देख चुके हैं वि धर्म अधर्म, पाप और पुण्य का वास्तविक कारण अपना म है । रोग निवारण के लिए ऑपरेशन किया जाय तो वह पा नही कहा जाता है । इसके विपरीत यदि ऑपरेशन करने वाल समभावी होगा तो उसकी यह क्रिया धर्म ही कही जावेगी । आत्मा के इन पवित्र विचारो के कारण से देहदुख का विचार करते करते वह कर्मो की निर्जरा भी करेगा । जब कि शत्रुभावना से किया जाने वाला शस्त्रप्रहार भले ही खाली जावे, तो उस हिंसक - मनोवृत्ति वाले को - पापबन्धन होगा ही ओर यदि उसकी आत्मा गभीर वैरभाव मे सलग्न हुई होगी तो वह अधर्म का भागी भी होगा । 7 इस प्रकार प्रत्येक स्थिति में समझ लेना चाहिए | इसके उपरान्त जो क्रियाएं व्यक्तिगत, कुटुम्बगत, समाजगत, देशगत व्यापकरूप से खराब होती है उन क्रियाओ का उल्लेख अथवा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली ( ९१ यहाँ पर किया जा चुका है । हास्य, कुविनोद से कैसा पाप होता है? इनकी साक्षी पाडव कौरव का युद्ध देता है । द्रौपदीजी के एक ही सराव वचन के कारण दुर्योधन ने भरी सभा में द्रोपदी का अपमान करने का प्रयत्न किया था । इन्द्रियाँ रूपी घोडो को लगामरहित रखने से, वाणी पर विवेक नही रखने से तथा मन के अनिष्ट विचारो को नहीं रोकने से जो अनर्थ होता है, इस सम्बन्ध मे अपन अनेक दृष्टान्त देख चुके है इसलिए आश्रय को रोकने का प्रयत्न करना ही चाहिए । संवर तत्त्व व्याख्या Wh ara के निरोध का नाम संवर हे अर्थात् नाश्रव के प्रकरण में कहे हुए द्वारो को रोकना ही मवर है । समभाव चनायें रमना ही सवर है । सद्धमं सवर है, समकित सवर है । जिन प्रकार किसी एक कुएं को खाली करना है तो सर्व प्रथम उनके जनप्रीत को बन्द करना पडता है, इसी प्रकार पापों ST दूर रहने के लिए, पापो से रहित होने के लिए सर्वप्रथम उनको रोकना पडता है । चिरकाल से जीव जिन-जिन क्रियाओ को करता है उनको नार को वागना ने करता है । उसे वास्तविक मार्ग का किनने के लिए वासनाओं का परित्याग करके आत्मा को Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (तृतीय मान स्थिर करना चाहिए । तभी " सत्य क्या है ?" ऐसा वह सोच सकता है और असत्य के पथ का परित्याग करके सत्य को प्राप्त कर सकता है। __ ऐसी स्थिरता का उद्देश्य ही निवृत्ति धर्म है। सामायिक व्रत से इसका प्रारम्भ होकर श्रमणसन्यास व्रत इसका आदर्श बना । इसीलिए यहाँ पर सवर में आश्रव द्वारो को रोकने की बात कहने के अतिरिक्त साधुधर्म के कितने ही अग भी इसके अन्तर्गत किये गये है। वे इस प्रकार हैं - पांच समिति, तीन गुप्ति, बाईस परीषह, दश यतिधर्म वारह भावना और पाच चारित्र । असलियत यह है कि ये अग सवरतत्त्व तक ही मर्यादित नही रहते हैं किन्तु ये अग निर्जरा मे भी कारणभूत बन सकते हैं। पाच समिति और तीन गप्ति के सवध में पहिले कहा जा चुका है । वाईस परीपह के नाम इस प्रकार हैं :- । - (१) भूख, (२) प्यास, (३) ठण्ड, (४) गरमी, (५)डासमच्छर का वास.(६) वस्त्र सवधी परीषह, (७) सयम मे किसी समय उत्त्पन्न होने वाली कठिनाइयो सबधी दुख अथवा अति, (८)रूप-सौन्दर्य देखकर मोह-उत्पत्ति सबधी दु ख अथवा स्त्री परीषह, (९) सोने का अनुकूल स्थान नही मिलने पर तत्सवध दुःख, (१०) रहने के लिए अनुकूल स्थान नही मिलने पर तत् संवधी दुख, (११) पैदल चलने से पाद-विहार करने पर उत्पन्न होने वाले दु ख (१२) कोई खराव शब्द कहे उस सबधी दुरू Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( जैन पाठावली (१३) कोई मारे वह दुस, (१४) भिक्षाचारी के कारण उत्पन्न होने वाला दुख, (१५) वस्तु की प्राप्ति नही होने पर होने वाला दुप,(१६) रोग सबधी दुख, (१७) तृण-घाम आदि की शय्या होने पर गरीर मे चुभने से होने वाला दुख, (१८) शरीर पर मल होने पर तत् सवधी दुख, (१९) निंदा अथवा स्तुति के मोके पर समभावना न रहे, इस सबधी दुःख (२०) बुद्धि का अहकार उत्पन्न हो इस सवधी दु ख (२१) बुद्धि में विकास न हो इसके लिए उत्पन्न होनेवाला दुख (२२) श्रद्धा के विचलित होने का प्रसग उत्पन्न होने पर तत्सवधी दुःख। । __स्वीकृत धर्म के मार्ग मे स्थिर रहने के लिए और कर्मों के बन्धन को काटने के लिए ऊपर जिन-जिन दु खो का, परीपही का वर्णन किया गया, उनको सरल भाव से सहन कर लेना ही उत्तमा है। उनके अतिरिक्त १क्षमा, २ रातोप, मरलता, ४ नम्रता, .. ५ ब्रहाचर्य, ६ मत्य, ७ सयम, ८ तप, त्याग, १० अपरिग्रह ये दा यतिधर्म कहे गये है। पहिले धर्म ध्यान में कही गई चार भावनाओं को अधिक विन्तत करकं बारह भावनाबो में अनुपित होना यह भो माधुधर्म है । से चारह भावनाएं ग प्रकार कही गई है--- (१) अनिन्य भावना, (२) अपारण भावना, ()नमा भावना, (४) एकल भाना, (५) अन्यत्व भावना, (६)अनि भावना, (७) आश्रय Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४ तृतीय भाग) भावना, (८)सवर भावना, (९) निर्जरा भावना, (१०)लोक भावना, (११) बोध भावना और (१२) धर्म भावना । भरत चक्रवर्ती 'अन्यत्व भावना' की आराधना करते २ ही केवल ज्ञानी हो गये । ये भावनाएँ कर्म-बन्धन को रोकने वाली हैं। पांच चारित्रो का वर्णन चारित्राचार में किया जा चुका है। तात्पर्य यह है कि सावद्य कामो का परित्याग कर देना और अनिवार्य कामो को करना पड़े तो समभाव के साथ करने से नये कर्मो का आगमन रुकता है । सवर तत्व का यही सार है। सवर तत्त्व के आराधन से नये कर्म तो रुक जाते हैं किन्तु आत्मा ने जिन कर्मों का बन्धन पहिले कर लिया है उनका क्या ? इस प्रश्न का विचार करते समय उत्तर में जिस तत्त्व की प्राप्ति हुई वह निर्जरा तत्त्व है । इसके ऊपर अपने को विचार करना है। निर्जरा तत्व व्याख्या निर्जरा अर्थात् कर्म अलग हो जाना-झर जाना, हट जाना । सवर से नये कर्म रुकते है और निर्जरा में पुराने कम पहिले बाधे हुए कर्म अलग होते है। कर्मों से मुक्त होने के लिए निर्जरा की इतनी और ऐसी आवश्यकता है कि इसके विना मुक्ति कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती है । सवरहित निर्जरा में अज्ञान होने से उसको अकाम निर्जरा कहते है। इसमे कर्म Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) - अलग होते हैं परन्तु नये आकर चिपकते भी हैं। जहाँ तक अज्ञान है वहाँ तक आश्रव ( कर्मो का आगमन ) रुक नहीं सकता है इसीलिए निर्जरा के पहिले सवर तत्त्व रक्खा गया है। सवर ( कर्मो का आना रुक जाने ) के बाद आचरण की जाने वाली निर्जरा सकाम निर्जरा है। सकाम निर्जरा वाला-आत्मज्ञानपूर्वक कर्मों का क्षय करने वाला होने मे पुन कर्मों के चिपकने की सम्भावना नहीं रहती। कारण अथवा मार्ग कर्म रोकने के (सवरके) जो कारण कहे गये है, वे केवल संबर के लिए ही कारणभूत हैं, ऐसा नही, वे ही कारण कर्मों का क्षय करने में (निर्जराम) भी सहायक होते हैं। इनके सिवाय अन्य मार्गों द्वारा भी कर्मो की निर्जरा हो सकती है। वे इस प्रकार हैं-बाह्य और आभ्यतर तप । दोनो प्रकार के तप निर्जरा __ के कारण कहे गये है। वाद्य नप ६ प्रकार का है-१ अनदान, २ उणोदरो, ३ रसपरित्याग, ४ वृत्तिसक्षेप, ५ सलीनता और ६ कायक्लेश । आतरिक तप भी प्रकार का है- प्रायश्चित्त, २ विनय, बंगावृत्य, (सेवा) ४ स्वाध्याय, ५ वायोत्सर्ग और ६ ध्यान । तप का वास्तविक अर्थ वासना में उत्पन्न हने वाली इच्छा को रौंदना--- रोपना हो तप है । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (तृतीय भाग तप की यह वास्तविक प्रणाली विवेक-ज्ञान के विना कभी भी परिपूर्ण नही हो सकती है। इसलिए ज्ञानपूर्वक तप किया जाय, तभी सकाम निर्जरा हो सकती है, नही तो जैसे अन्य साधनो मे धर्म के स्थान पर पुण्य, पाप अथवा अधर्म की सभावना है वैसे ही इसमे भी हो सकती है । साधन की सिद्धि का आधार साधन चाहे जितना उन्नत हो तो भी आखिर मे है तो वह साधन ही । इसलिए साधन को साधन ही मानकर उसका उपयोग करना चाहिये । साधन द्वारा साध्य तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब कि मनोवृत्ति शुद्ध हो । ___ तप, यह निर्जरा का साधन है किन्तु यदि मनोवृत्ति शुद्ध न हो तो वह तप निर्जरा का साधन नही बन कर आश्रव क निमित्त भी बन सकता है । इस सम्बन्ध मे एक उदाहरण द्वार अपन समझने का प्रयत्न करे । एक कैदी को कमरे मे बन्द कर उसे · सारे दिन खानपीने न दे और एक ज्ञानी अपने आत्मध्यान मे मग्न होक सारा दिन बिना अन्न-जल के निकाले, इन दोनो-में सामान्यतया अनाहार के कारण तप करना कहा जायगा । बाहय द्दष्टि से दोनो की ( नही खाने रूप ) क्रिया समान ही है, परन्द भावना की दृष्टि से- दोनो की स्थिति मे आकाश-पाताल क अन्तर है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ decrease | RE पहिले के लिए दो पूर्व होने के क यदि वह अविवेकी हों कुत्रा वो कर्मो का बन्छ।सेर पनि कोई लौज मजा के अपवर कोने के च के मंक क है।न्छे विचार रहे करता है. हो निर्जक कार नहीं होती है। ܐ कहने का तात्पर्य यही है कि के लिए मन्धतत्व के लिए जय जि सकती काकरण करने है तो इसी तरह से गोड शिप का सेवन करते किया जाय तो वह भी है.लए इस केस में जरूर इनकी शिद्धि आधार भी हुआ है। ह को मुख्य आधार परिधान और इसीलिए अतित है । ि जब आप वहाँ तक है कार लोक पने और जाल को इतिजब है शरीर और के सम्बन्धित है कोई पर " एव मनुष्याणान् कारणं बन्धमोक्षयोः "ड् से भी : Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( तृतीय भाग, कि चेतन आत्मा अनन्त शक्तिशाली है, तो फिर अनन्त शक्तिशाली आत्मा के ऊपर इन जड तत्त्वो का जोर कैसे चलता है ? __उत्तर-कर्म अर्थात् जीव के साथ चिपके हुए पुद्गल, यह अर्थ लिया जाय तो वह जीव कर्मवाला हुआ। कर्मवाले जीव की अनन्त गक्ति भले ही सत्ता रूप (अस्तित्वरूप ) हो, किन्तु वह प्रकट रूप मे नही है, इसीलिए कर्मों की शक्ति उसके ऊपर प्रभाव डाल सकती है। द्रव्यकर्म और भावकर्म कर्म को केवल जड ही नही कहा जा सकता है, वे जीव के साथ मोह की चिकनाहट के कारण चिपके हुए है । जी मोहग्रस्त हुआ, यही कर्म को आमत्रण देने की स्थिति हुई, इर्स का नाम भावकर्म है और भाव कर्म के बल पर ही पुद्गल पर माणु आत्मा के साथ सबन्धित हुए इसका नाम द्रव्यकम है इसीलिए कर्म को अन्य पुद्गलो के समान केवल जड ही नहं कहा जा सकता है । उनमे भावकर्म का सम्बन्ध तो सीधा मोह वशात् जीव के साथ ही है, इसीलिए उसकी सत्ता चलती है जीव और पद्गलों का सम्बन्ध कैसे हुआ जीव और पुद्गल दोनो परस्पर मे भिन्न-भिन्न धर्म वाले है; दोनो स्वतन्य द्रव्य हैं, दोनो मे से क्सिी भी एक का अस्तित्व नष्ट हो जाय ऐसा होने का नही। ऐसा होने पर भी दोनो का मगम कैसे हुआ? यह आश्चर्य की बात है। मोह के वश से हा अथवा अज्ञान के कारण, से हुआ, ऐसा माना जाता है " Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) 'परन्तु यह मोह न तो जीव का मूल स्वभाव है और न पुद्गल का मूल स्वभाव है, तो फिर यह आया कहाँ से? और कब आया? इसका कोई उत्तर नहीं है। बुद्धि द्वारा यह नहीं जाना जा सकता है। सर्व प्रथम इसके उत्तर की भी आवश्यकता नहीं है। श्रद्धा द्वारा इतना स्वीकार कर लिया जाय कि ससारी जीव मोहवशात् ही ससार में परिभ्रमण करता है यही स्थिति यथार्थ है, इसमे कब ? और कैसे ? का उत्तर भले ही नहीं मिले, किन्नु मोह से ससारी आत्मा आवृत्त है, आत्मा की यह विभाव‘दशा है और इसमे से मुक्त होना चाहे तो हो सकता है, ऐसी शक्ति वाला और स्वभाव वाला आत्मा है। . इतनी स्वीकृति के बाद मोक्ष के कारण और बन्ध के कारण जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है और ऐसी जिज्ञापा की उत्पत्ति के साथ ही नव-तत्त्वो के ज्ञान का इतिहास आरम्भ होता है। इनमें से सात तत्त्वो का विचार तो आपन कर चुके हैं, अब तो "जीव का किस प्रकार कर्मबन्धन होता है ?" इसी बात का यहाँ पर मुख्य रूप से विचार करना है । आत्मा के बन्धन की चर्चा को “कर्म का तत्त्वज्ञान" भी कहा जा सकता है। इस तत्त्वज्ञान के ऊपर ही जैन-दर्शन का मुख्य आधार है। . कर्मवाद का सिद्धान्तजैन तत्त्वज्ञान और ईश्वर-- जैन तत्त्वज्ञान में ईश्वर को स्थान है । ईश्वर कर्तृत्ववाद Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( तृतीय भाग को स्थान नही है। अर्थात् जैन ईश्वर को सृष्टि का कर्ता नह मानते है, ईश्वर तो निरजन, निराकार और सच्चिदानन रूप है। ईश्वरवाद का आधार-- ईश्वरवाद अर्थात् इस सृष्टि का कर्ता अथवा व्यवस्था पक ईश्वर है ऐसी मान्यता । जैसे घर, समाज अथवा देश की व्यवस्था चलाने के लिए | किसी नेता की आवश्यकता हुआ करती है। दुकान अथवा व्यवसाय मे व्यवस्थापक की आवश्यकता हुआ करती है, उसी । प्रकार नियमित और व्यवस्थित रीति से गति करनेवाली इस सृष्टि की व्यवस्था का भी कोई शक्तिशाली नायक अथवा व्यवस्थापक अवश्यमेव होना चाहिये। दूसरी बात यह जैसे कि' घट-पट आदि पदार्थों का बनाने वाला हम अपनी आँखो से देखते है वैसे ही इस चराचर जगत का भी रचयिता कोई अवश्य होना चाहिए और जो रचयिता है, वही ईश्वर है। इन दो तर्कों के आधार पर ही जगत्-कर्तृत्ववाद की मान्यता अपना अस्तित्व रखती है । जैन तत्त्वज्ञान क्या कहता है ? जैन तत्त्वज्ञान कहता है कि (१) ईश्वर का अर्थ वीतराग लिया जाय तो वीतरांग के साथ सृष्टि रचने रूप जजाल का सबंध नही बैठता है। रागा के साथ ही यह सव जम सकता है और यदि रागी को ही ईश्वर मान लिया जाय तो उसे" ईश्वर" कसे कहा जाय? जिसके Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __जैन पाठीवली) ___ राग का क्षय हुआ वही ईश्वर है, इस रीति से ईश्वर होने का प्रत्येक आत्मा को अधिकार है। सत्ता की दृष्टि से जीवमात्र ईश्वर ही है । जैसे सूर्य का प्रचण्ड प्रकाश वादलो द्वारा बैंक जाता है, वैसे ही आत्मा का प्रकाश भी अज्ञानरूपी आवरण से ढका हुआ है और आत्मा को इन आवरणो को तोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए। (२) इस प्रश्न की मीमासा करते हुए जैन-दर्शन कहता है कि" जगत् नियमित और व्यवस्थित चलता है इसका कारण वस्तु का स्वभाव है, वस्तु के स्वभाव अनुसार काम हुआ ही करता है।" इस प्रकार विवेचन करके वह कर्मवाद का बयान करता है और कहता है कि - ईश्वर (कर्तृत्व) वाद मानने की आवश्यकता नही है, किन्तु कर्मवाद मानने की आवश्यकता है । शुभकर्म करेगा तो उसका फल शुभ मिलेगा और अशुभ कर्म करेगा तो उसका फल अशुभ मिलेगा । शुभाशुभ के फल मे विमोहित नही होते हुए यदि आत्मा मूलस्वभाव की ओर प्रगति करेगा तो अन्त मे ईश्वर होगा। कर्म-रहित होकर निर्मल होकर, सिद्ध होगा। ऐसे अनेक सिद्ध हो गये हैं, होते है और होगे, इसलिये सत्यमार्ग पर पुरुषार्थ करो और कर्म के वधनो को काटो। भगवद्-गीता के पाचवे अध्याय का १४ वा और १५ वा श्लोक भी ऊपर के सिद्धान्त का ही समर्थन करते है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२) ( तृतीय भाग न कर्तृत्वं न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं, स्वभावस्तु प्रवर्त्तते ॥१४॥ ईश्वर लोगो के कर्त्तापन, कर्मों और कर्मों के फल के मयोग की रचना नही करता, किन्तु स्वभाव से ही यह मव बनता रहता है ॥ १४ ॥ नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृत्तं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ १५ ॥ ईश्वर (परमात्मा ) - न किसीका पाप लेता है, न पुण्य । ज्ञान पर अज्ञान का पर्दा पडा है, इससे जीव मोहित हो रहे हैं १५ क्या ईश्वरवाद व्यर्थ है ? स्याद्वाद को मानने वाला जैनदर्शन किसी भी दृष्टि को एकान्त झूठ तो कभी कहता ही नही है, वह इनको विभिन्न श्रेणियो की योग्यता की अपेक्षा से योग्य स्थल पर सभी मतो को योग्य स्थान प्रदान करेगा । स्याद्वाद दृष्टि अर्थात् अपेक्षावाद | प्रत्येक वस्तु में विभिन्न दृष्टि के कारण विभिन्न गुण दोप रहे हुए हैं और दृष्टिभेद से वे सब सत्य है । एक ही वस्तु किसी एक “दृष्टि से उपयोगी है तो किसी दूसरी दृष्टि से वह अनुपयोगी भी हो सकती है, अर्थात् सभी विभिन्न दृष्टिकोणो से किसी एक वस्तु का एक साथ अवलोकन करना इसी का नाम स्याद्वाद दृष्टि अथवा अपेक्षावाद है। जैनदर्शन अपने इस मौलिक सिद्धान्त द्वारा विभिन्न अनेक दर्शनो की मान्यताओं के बीच मे होने वाले Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___जैन पाठावली) संघर्ष को शात करता है, और वास्तविक वस्तु-स्थिति की स्थापना करता है। ____ इस दृष्टिकोण से ईश्वरवाद भी निरुपयोगी तो नही कहा जा सकता है, जो आत्माएँ सामान्य भूमिका से आगे प्रगति करती हुई आत्म-विकास के लिये प्रयत्न करती है, उनके लिये “ईश्वर का आलबन सर्वप्रथम सरल उपाय है, आत्मा के परिपूर्ण विकास की साधना करके परम ध्येय को प्राप्त महात्मा पुरुषो के जीवन का आदर्श मुमुक्षुओ के लिए सहायक होता है, इस रीति मे ईश्वरवाद व्यर्थ नही है । किन्तु जिन्होने कुछ प्रगति की है, ऐसे पुरुषो के लिये केवल ईश्वरवाद से कुछ नही होने का, उनको तो अपने मे रहे हुए ईश्वरत्व को ( आत्मधर्म को ) याने परमतत्त्व को पहिचानना होगा। यही कर्मवाद का तत्त्वज्ञान पचेगा। इस भूमिका के पश्चात् जैनदर्शन का आरभ होता है, इसीलिए यहाँ कर्मवाद के तत्त्वज्ञान का विवेचन किया गया है । ईश्वर के बिना भी कर्मफल की प्राप्ति कैसे हो अज्ञानी जीव कर्म का अनुसरण करता है, इस बात को स्वीकार कर लेने पर भी फल कैसे प्रदान करता है ? यह प्रश्न उत्पन्न होगा ही। इसका समाधान ऐसा है कि मनुष्य जहर पीता है, उस जहर को पीने वाले के प्रति जहर का द्वेष नही है जहर तो कर्मों की अपेक्षा सर्वथा भिन्न जडरूप है तो भी वह पीनेवाला तो मरता ही है, इसका कारण जहर का स्वभाव है, यही बात कर्म के लिये भी समझ लेना चाहिए-1 . . Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४) (तृतीय भाग लोहे का टुकडा चुम्बक की ओर आकर्षित होता है दोनो जड हैं चैतन्यरहित है फिर भी आकर्षित होते है । उसक कारण दोनो का उसी प्रकार का स्वभाव है। इसी तरह से " जो जैसे कर्म करता है, उसको उनका प्रतिफल स्वयमेव प्राप हो जाता है।" यह वस्तु-सिद्धान्त सत्य है । जैसे पागल मनुष्य अग्नि के स्तम्भ से चिपट कर "जलत हूँ" की चिल्लाहट करता है, किन्तु स्तम्भ से चिपटना नहं छोडता है और जहाँ तक नहीं छोडता है" वहाँ तक अग्नि अपन स्वभाव का परिपालन करती रहती है अर्थात उसको जलात रहती है। उसी प्रकार अज्ञान जीव का पागलपन है । जीट कर्मों से स्वतत्र होने की इच्छा रखता है किन्तु वास्तविक मार के लिए प्रयत्न नही करता है, और कर्मो को बाधता रहता है, ऐस स्थिति मे उसको वैसे फल भोगने ही पडते है। आश्रव और बंध जैसे चिकनाहट पर सुखे रजकण आ-आ कर चिपकत है, वैसे ही मोह की चिकनाहट के कारण पुद्गल चिपकते है। "पुदगलो का आना" इसी का नाम आश्रव है। मोह के वश म होने पर कमों का बन्धन होने का नाम बन्ध है। इस प्रकार बन्धतत्त्व को अलग माना है । कर्मबन्ध के प्रकार १ प्रकृति, २ स्थिति, ३ अनुभव और प्रदेश ये चार भेद कर्मबन्ध के हैं । इनकी व्याख्या निम्न प्रकार है Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली ) (१०५ ( १ ) प्रकृति अर्थात् स्वभाव | आत्मा के साथ चिपककरें - कर्म पुद्गलो में जो ज्ञान को आवृत्त करने का, दर्शन को आवृत्त करने का, सुख-दुख का अनुभव कराने का आदि -आदि स्वभाव निश्चित होता है वह 'प्रकृतिबन्ध' कहा जाता है । } (२) स्थिति अर्थात् कालमर्यादा | स्वभाव निश्चित होने - के बाद वह जितने समय तक आत्मा के साथ टिक कर रहे, उस काल मर्यादा को 'स्थितिबन्ध' कहा जाता है । (३) अनुभव अर्थात रस । प्रकृतिबन्ध होने के बाद वह * मन्द, तीव्र आदि फल का जैसा अनुभव कराता है बही अनुभागवन्ध' अथवा 'रसबन्ध' कहा जाता है । { (४) प्रदेशबन्ध - बधे हुए कर्म पुद्गलो का विभिन्न स्वभाव अनुसार अमुक-अमुक परिमाण में विभाजित हो जाना इसी का नाम 'प्रदेशबन्ध ' है । कर्म के भेद कर्म मूल तो एक ही है परन्तु अध्यवसाय अर्थात् इच्छाओ की विचित्रता के कारण कर्मों के स्वभावो का निश्चय होता है और ये स्वभाव आत्मा के ऊपर अपना-अपना भिन्न २ - प्रभाव पहुँचाते हैं, ऐसे प्रभाव कई प्रकार के है, इसी प्रकार ऐसे प्रभाव उत्पन्न करने वाले स्वभाव भी अनेक प्रकार के होते हैं, यह स्वाभाविक ही है । फिर भी इन स्वभावो का विभाजन करके इन सभी को आठ भाग में विभाजित कर दिया है, इनको 'पकृतिबन्ध' कहा जाता है । वे आठ प्रकृति भेद इस प्रकार हैं Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६) ( तृतीय भाग; ( 2 ) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयुष्य ( ६ ) नाम, (७) गोत्र और (८) अन्तराय | आठ कर्मो के लक्षण ( 9 ) जिसके द्वारा आत्मा का ज्ञान गुण आच्छादित हो जाय, वह कर्म 'ज्ञानावरणीय' है । ( २ ) जिसके द्वारा दर्शन अथवा सामान्य ज्ञान आच्छा - ' दिन हो जाय, वह कर्म 'दर्शनावरणीय' है । (३) जिसके द्वारा सुख दुख का अनुभव हो अथवा इष्ट अनिष्ट का सयोग प्राप्त हो, वह कर्म ' वेदनीय' है । ( ४ ) जिसके द्वारा आत्मा मोहग्रसित हो अथवा विषयकषाय, राग-द्वेष की प्राप्ति करावे, वह कर्म 'मोहनीय' है । (५) जिसके द्वारा भिन्न-भिन्न भव धारण करने पडे, दह कर्म 'आयुष्य' है । (६) जिसके द्वारा आत्मा को ऊँच नीच गति प्राप्ति हो अथवा एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय आदि रूप जाति की प्राप्ति हो और जो जीव को शरीर आदि की प्राप्ति करावे, वह ' नामकर्म' है । । 1 ( ७ ) जिसके द्वारा उच्च गुणो अथवा नीच गुणो का सयोग आत्मा के लिए प्राप्त हो, वह 'गोत्रकर्म' है । (८) जिसके कारण से आत्मा की वीर्य शक्ति अथवा लेने ★ देने की शक्ति सकुचित हो, उस कर्म का नाम ! अन्तराय' है । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन पाठावली) (१०७ आठ कर्मों के दृष्टांत१) जिस प्रकार बादल सूर्य को ढाक देते हैं, उसी प्रकार आत्मा के ज्ञानसूर्य को ज्ञानावरणीय कर्म ढाक देता है । (२) जैसे राजा की . कचहरी में जाते समय द्वारपाल रोक देता है और राजा मे भेंट नही की जा सकती है, वैसे ही आत्मा रूपी राजा की भेट को दर्शनावरणीय द्वारपाल रोकता है। ऑग्व के होने पर भी आँख पर-पट्टी बांध देने से दिखाई नही देता है, उसी प्रकार शक्ति के होने पर भी दर्शनावरणीय कर्म के कारण से आत्मा की शक्ति के प्रति श्रद्धा नही होती है । (३) वेदनीय के दो भेद है-(१) साता वेदनीय और (२) असाता वेदनीय । तलवार की धार पर लगा हुआ शहद चाटने पर मीठा लगता है परन्तु सावधानी नही रवखी जाय तो जीभ कट जाती है। इसी रीति से सातावेदनीय समझ लेना चाहिये। इस. शरीर द्वारा अनुभव किये जाने वाले सुख के अथ्वा हर्प के प्रसगो में आत्मा असावधान रहे तो दण्डनीय होती है। असातावेदनीय तो शक्कर के समान सफेद पत्थर जैसा ही है, जिामें मधुरता नहीं है । ज्ञानी इम अवस्था मे विशेष दुख नही मानता हआ विवेकपूर्वक शाति के साथ असातावेदनीयजनित दुखो को सहन कर लेता है। (४) मोहनीय शराब जैसा है। जैसे शराव मनुष्य के विवक को भुला देता है, इसी प्रकार मोहनीय आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्रगुण को आच्छादित कर देता है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -(तृतीय भाग १०८) (५) आयु लोहे की बेडी के समान है, जहाँ तक इसरे छुटकारा नही मिले वहाँ तक मोक्ष की प्राप्ति नही हो सकती। (६) जैसे चित्रकार विभिन्न चित्रो की रचना करता है, वैसे ही नाम कर्म के आधार से ही आत्मा पुद्गलो द्वाग शरीर की रचना करता है, पाचो प्रकार के शरीरो की रचना का आधार यही कर्म है। (७) कुम्भकार जैसे मिट्टी में से छोटे बड़े आकारों की रचना करता, वैसे ही गोत्र कर्म उच्च अथवा नीच का भर उत्पन्न करता है। (८) दान-दाता जैसे किसी याचक को देना चाहता है किन्तु भडारी रोक देता है, वैसे ही आत्मा अपनी शक्ति में परि वर्तन चाहता है, परन्तु अन्तराय कर्म के कारण से शरीरधान जीव के उपयोग मे वह नही आती है। जैसे बीमार मनुष्य पास भोजन तैयार है, परन्तु वैद्य खाने की आज्ञा नही देता उसी रीति से इस कर्म को समझना चाहिये। । (२) स्थिति वंध- ___ इन आठ कर्मों का आत्मा के साथ बधन होने के ६ आत्मा के साथ इनकी कम से कम समय की सगति जघ स्थिति कहलाती है और अधिक से अधिक समय की मर उत्कृष्ट स्थिति कहलाती है । निम्न कोष्टक द्वारा इमका ज्ञान सकेगा। मोहनीय आठो कर्मों का राजा है, इसकी रियति मा । से अधिक है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली ) नाम कर्म १ ज्ञानावरणीय २ दर्शनावरणीय - ३ वेदनीय ४ मोहनीय ५ आयुष्य ६ नाम - ७ गोत्र ८ अन्तराय जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त 1. वारह मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त 11 आठ मुहूर्त्त 11 अन्तर्मुहूर्त्त उत्कृष्ट स्थिति ३० कोडाकोडी सागरोपम "} ३० " ७० ३३ सागरोपम २० कोडाकोडी सागरोपम 33 ( १०९ 11 " (३) अनुभव बन्ध- जैसे किसी मिठाई में घी अधिक होता है तो किसी में कम होता है, वैसे ही कर्मकर्ता कोई जी कम शक्ति वाला होता है, तो कोई अधिक शक्ति वाला होता है, इसी प्रकार कोई-कोई एक ही जीव आत्मा - अमुक काम मे और अमुक स्थान पर कम शक्ति वाला होता है, जब कि किसी अन्य काम में और अन्य स्थान पर अधिक शक्ति वाला होता है, तदनुसार वही पद्धति फल देने की शक्ति के संबध मे भी है । जैसे चिकने परमाणु समान चिकना - हट वाले परमाणुओं के साथ नहीं चिपकते हैं, किन्तु चिकनाहट की मात्रा कम अथवा अधिक परिमाण में होने पर चिपक जाते हैं उसी प्रकार आत्मा में मोह की चिकनाहट यदि बढती है तो कमप्रदेश भी अधिक चिपकते है और वह अधिक मात्रा वाली चिकनाहट आत्मा के गुणो पर अपना प्रभाव डालती है, यही Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ) ( तृतीय भाग कारण है कि मोह की अधिक चिकनाहट वाला अर्थात् अधिक आसक्ति वाला जीव कर्मों से भारी बनता है और जन्म-मरण के भवचक्र मे घूमता है । जब आत्मा से संबधित कर्मों का फल - अनुभव बन्ध अनुसार और स्थिति बन्ध अनुसार भोग लिया जाता है, तब वे कर्म आत्म-प्रदेशो से मुक्त हो जाते है, इसी का नाम कर्मों की निर्जरा है, । फल भोगने के बाद कर्मों की निर्जरा स्वयमेव हो जाती है, इसी प्रकार तप द्वारा भी कर्म फल देने के पूर्व ही आत्म-प्रदेशो से अलग हो सकते हैं । प्रदेश बन्ध प्रदेश अर्थात् क्या ? यह द्रव्य के प्रकरण में कहा जा चुका है । प्रदेश अर्थात् इतना सूक्ष्म अश, कि जिसके अन्य अंगो की कल्पना बुद्धि द्वारा नही हो सकती है, ऐसे कर्म पुद् - गलो के प्रदेशो का आत्मा के साथ आकर दूध-पानी के समान मिल जाना ही प्रदेश बंध कहलाता है । इतने विवेचन द्वारा समझ में आ गया होगा कि वन्ध का याने आश्रव का मुख्य आधार आसक्ति ही है । स्थिति और अनुभव बन्ध का सम्पूर्ण आधार कषाय पर है, कारण कि रागद्वेष ओर क्रोध अ.दि कपायो की सूक्ष्मता और परिमाण पर ही स्थिति बन्ध और अनुभाव वन्ध की न्यूनाधिकता रही हुई है, इसी प्रकार प्रकृतिवन्ध और प्रदेशबन्ध का आधार योग की भाशुभ वृत्ति से सम्वन्धित है । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन पाठावली) एक रीति से शुभयोग और अशुभयोग आश्रव का कारण ! है तो दूसरी रीति से आत्मा की कषायमय स्थिति त्वन्ध का कारण है ऐसा कहा जा सकता है ।। आठ कर्म का विस्तार (१) ज्ञानावरणीय कर्म की पांच प्रकृतियां: ज्ञान पाँच है-मति, श्रुत, अवधि, मन पर्याय और केवल । इन पाचो पर आवरण होता है इसलिए ज्ञानावरणीय के पाँच भेद हो जाते है, वे निम्न प्रकार है (१) मति अर्थात् आत्मानलक्षी बुद्धि का विकास, ऐसे विकास को रोकने वाला कर्म' मतिज्ञानावरणीय' है।। - .. (२) श्रुत अर्थात् सच्चा शास्त्रज्ञान । ऐसे ज्ञान को जो नहीं होने दे, वह 'श्रुतज्ञानावरणीय' है । = (३) अवधि अर्थात् मूर्त पदार्थों का आत्मानुलक्षी ज्ञान, उसको नही होने दे वह 'अवधिज्ञानावरणीय' है। (४) मन पर्यायज्ञान-सज्ञी जीवो के मन के भावो को जानने वाला ज्ञान, ऐसे ज्ञान को जो कर्म नही होने दे, वह 'मन पर्यायज्ञानावरणीय' है _ (५) केवलज्ञान-सपूर्ण ज्ञान, इसको जो प्रकट नही होने दे, वह केवलज्ञातावरणीय' कर्म है । इनमे से प्रथम तीन सम्यक्त्वी आत्मा मे हो सकते है। चोथा ज्ञान अन्तरग साधुता वाले सयमी पुरुष को ही हो । सकता है, एव केवलज्ञान वीतरागी ही प्राप्त कर सकता है ।। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२) (तृतीय भाग (२) दर्शनावरणीय कर्म की ९ प्रकृतियां: (१) नेत्र द्वारा होने वाले सामान्य बोध को जो कर्म आच्छादित करे, वह चक्षुदर्शनावरणीय है। (२) नेत्र के सिवाय शेष इन्द्रियो और मन द्वारा होने वाले सामान्य बोध को जो ढाके, वह अचक्षुदर्शनावरणीय, है । (३) दूर रहे हुए रूपी पदार्थो को इन्द्रियो की विना सहायता के ही जाननेवाला जो सामान्य बोध है ऐसे बोध को जो कर्म ढाक दे वह' अवधिदर्शनावरणीय' कर्म है । (४) केवल लब्धिद्वारा होने वाले सामान्य बोध को जो कर्म ढाक दे वह केवलदर्शनावरणीय' कर्म है। इनके सिवाय (५) निद्रा (ऊंघना), ६)निद्रानिद्रा (वार वार ऊघना),(७) प्रचला (बैठे बैठे ऊघना).(८) प्रचला प्रचला (चलते चलते ऊघना) और (९)स्त्यानगृद्धि (ऊघ अवस्था में ही कोई कार्य करने पर भी ऊघ नही उडना) इस प्रकार इन पाँचो निद्राओ के मिलाने पर दर्शनावरणीय कर्म के नव भेद होते हैं.।.. (३) वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियां (१)सातावेदनीय और (२) असातावेदनीय । (४) मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियां- . . ___ मोहनीय के दो काम है। (१) आत्मा के सम्यक्त्व का घात करे वह दर्शनमोहनीय है और (२) चारित्र गुण का जो नाश करे वह चारित्र मोहनीय है। दर्शनमोहनीय के ३ और Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) चारित्रमोहनीय के २५ (१६ कषाय चारित्रमोहनीय और ९ नौ कषाय चारित्रमोहनीय ) इस प्रकार कुल २८ भेद गुणस्थानक के प्रकरण में लिखे गये हैं । (५) आयुष्य कर्म की चार प्रकृतियां आयुष्य कर्म के उदय से १ देव, २ मनुष्य, ३ तिर्यञ्च, और ४ नरकगति मे यथावधि आयुष्य पूरा करना पड़ता है। नामकर्म की ४२ अथवा ९३ प्रकृतियां: नामकर्म की ४२ प्रकृतियाँ है । १४ पिंड प्रकृतियां (१) सुख-दुख को अनुभव कराने योग्य देव आदि चार गतियो को प्राप्त कराने वाला कर्म गनि नामकर्म है, इसके चार भेद हैं। (२) एकेन्द्रिय से पचेन्द्रिय तक की जाति का अनुभव कराने वाला- कर्म जाति नामकर्म है, इसके ५ भेद हैं। (३) औदारिक आदि गरीरो को प्राप्त कराने वाला कर्म शरीर नामकर्म है, इसके पाँच भेद हैं। (४) शरीरगत अग उपाग का निमित्त बनने वाला कर्म अगोपाग नामकर्म है, इसके ३ भंद हैं । (५) पहिले प्राप्त किये हुए शरीर पुद्गलो के साथ अन्य । पुद्गलो का सबध जुडाने वाला बन्धन नामकर्म है, इसके ५ भेद हैं । (६) बाँधे हुए पुद्गलो को शरीरानुसार आकार में सयोजित करने वाला सघात नामकर्म है, इसके ५ भेद है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४) ( जैन पाठावली (७) गरीर की हड्डियों के बन्धनो की विशिष्ट रचना करने वाला सहनन नामकर्म है, इसके ६ भेद है । (८) शरीर की विभिन्न आकृतियो का जो कर्म निमित्त रूप है, वह सस्थान नामकर्म है और इसके ६ भेद हैं । " ( ९ ) शरीरगत पाच वर्णों ( काला, नीला, लाल, पीला और सफेद ) का जो नियामक है, वह वर्ण नामकर्म है और उसके ५ भेद हैं । (१०) गरी रगत दो गध ( सुगंध और दुर्गंध ) का नियामक गंध नामकर्म है और इसके २ भेद हैं । ११) शरीरगत ५ रस ( कडुआ, कसायला, तीखा, खट्टा और मीठा ) का नियामक रस नामकर्म है, और इसके ५ भेद हैं । ( १२ ) शरीरगत ८ स्पर्श ( हलका, भारी, ठढा, गरम, रूक्ष, चिकना, खरदरा, मुलायम ) का नियामक स्पर्श नाम कर्म है और इसके ८ भेद है । (१ नवीन जन्म ग्रहण करने वाले जीव को आकाशप्रदेश की श्रेणी अनुसार गमन कराने वाले कर्म का नाम आनुपूर्वी नामकर्म है । उसके ४ प्रकार है । (१४) अच्छी अथवा बुरी चाल का नियामक कर्म विहायोगति है और इसके २ भेद है । ܐ १५ से २४ त्रस दशक ( १ त्रस, २ बादर, ३ पर्याप्त, ४ प्रत्येक ५ स्थिर, ६ शुभ, ७ सुस्वर, ८ सुभग, ९ आदेश, १० Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५ तृतीय भाग)- . यशोकीर्ति ) नामकर्म है। २५ से ३४ स्थावर दशक ( १ स्थावर, २ सूक्ष्म, ३ अपर्याप्त, ४ साधारण, ५ अस्थिर, ६ अशुभ, ७ दुस्वर, ८ दुभंग, ९ अनादेय, १० अयशोकीति नामकर्म हैं। ___३५ से ४२ तक आठ प्रत्येक प्रकृतियाँ हैं.-१ अगुरुलघु, २ उपघात, ३ पराघात, ४ श्वासोच्छ्वास, ५ आतापनाम, ६ उद्योत, ७ निर्माण और ८ तीर्थङ्कर नामकर्म । उपरोक्त १४ पिण्ड प्रकृतियो के अवान्तर भेद ६५ होते हैं। इनके साथ अस दशक, स्थावर दशक, और आठ प्रत्येक प्रकृतियो के मिलाने पर नामकर्म की कुल ९३ प्रकृतियाँ होती हैं। (७) गोत्र कर्म गोत्रकर्म की दो प्रकृतियाँ हैं, (१) उच्चगोत्र और (२) नीच गोत्र । (८) अन्तराय कर्म की पाँच प्रकृतियां - (१) दान देने में अन्तराय देनेवाला कर्म दानातराय है। (२) लाभ मे विघ्न उपस्थित करनेवाला कर्म लाभातराय है। (३) भोग की सामग्री होने पर भी जिसके कारण से उसे नही भोग सके, उसका अच्छा उपयोग नही किया जा सके वह भोगातराय कर्म है। (४) उपभोग की सामग्रियो का सदुपयोग जिसके कारण से नहीं किया जा सके, वह उपभोगातराय कर्म है । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६) ( जैन पाठावली (५) जो आत्म-शांति का उपयोग नही होने दे, वह वीर्यान्तराय कर्म है । ये कर्म किन कारणों से बंधते है और कैसे छूटते ? मूल कारण तो यह है कि ये कर्म आत्मभान भूलने से और मोहग्रस्त होने से बन्धते हैं । इसके विशेष कारण निम्न प्रकार है- (१) ज्ञानी और ज्ञान के साधनो में बाधा पहुंचाने से ज्ञानावरणीय कर्म बँधते हैं । बाधा नही पहुँचाने पर इसका वन्धन नही होता है तथा ज्ञान-साधनो मे अन्य को सहायता देने से पूर्व मे बन्धे हुए ज्ञानावरणीय कर्म छूट जाते हैं । ( 2 ) यही बात दर्शनावरणीय कर्म के सम्बन्ध मे भी है । इस सम्बन्ध मे ज्ञानाचार और दर्शनाचार में विस्तारपूर्वक कहा गया है । (३) वेदनीय- सातावेदनीय और असातावेदनीय का पुण्य, पाप एवं अगुभध्यान से बन्धन होता है । सवर से रुकता है, निर्जरा से दूर होता है, सातावेदनीय की साधनरूप में आवश्यकता है । तीथङ्करो के भी सातावेदनीय कर्म है । ( ४ ) मोहनीय कर्म का मोह से बन्धन होता है । आठो कर्मों का यह मूल है, यह सवर से रुकता है और पूर्वकाल में TET हुआ यह कर्म चारित्र द्वारा निर्वल होता है । इसके लिए चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) (११७ पालन किया जाना चाहिए(५) आयुकर्म (१) बहुत परिग्रह, बहुत आरम्भ और महती हिंसा तथा महान् खराव आदतो ( मद्य-मासाहर आदि ) से नरक के आयुष्य का बन्धन होता है । २) कपट, धोखा, स्वर्थ, छल, अधिक नफाखोरी, अधिक ब्याजखोरी आदि से तिर्यञ्च के आयुष्य का बन्धन होता है। (३) देवो मे सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वी दोनो प्रकार के... होते हैं । सम्यक् तप, सम्यक् त्याग और सम्यक् सयम में कुछ मोह-भावनाओ के उत्पन्न होने पर उच्च देवगति की प्राप्ति होती है। दान, किंचित् त्याग और परोपकार करते समय कुछ लौकिक भावनाएं आ जाने पर मध्यम देवगति की प्राप्ति होती है। परतत्ररूप से अथवा अन्धानुकरण रूप से कुछ-कुछ __ शुभ कार्य करने से सामान्य देवगति की प्राप्ति होती है। (४) स्वाभाविक सरलता, स्वाभाविक नम्रता, न्याय, दया, उदारता, सत्य प्रियता, परोपकार, अल्प परिग्रह मे सतोप आदि गुणो द्वारा मनुष्य गति की प्राप्ति होती है । इन चारो गतियो को रोकने में ज्ञान मदद करता है और , चारित्र द्वारा ये दूर होती हैं । मनुष्यगरीर द्वारा ही चारित्र का . UG Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८) (जैन पाठावली परिपालन किया जा सकता है । अतएव मनुष्यभव प्राप्त करके मोक्ष के मार्ग को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न किया जाना चाहिये। (६) नामकर्म-काया, वचन और भाव की सरलता से शुभ नामकर्म का बधन होता है, तथा कपट, मायाचार आदि द्वारा अशुभ नामकर्म बधता है । शुभाशुभ से दूर होने के लिये ममभाव पूर्वक प्रयत्न करना चाहिये । (७) गोत्रकर्म-अभिमान करने से नीचगोत्र और नम्रता से उच्चगोत्र का बध पडता है, समभाव से रुकता है एव चारित्र से कर्मबन्धन निर्बल होता है । (८) अतरायकर्म-दान, लाभ, भोग, उपभोग और पुरुषार्थ में बाधा डालने से, शक्ति होने पर भी पुरुषार्थ नही करने से, शक्ति का अनिष्ट मार्ग मे उपयोग करने से, योग्य मार्ग में शक्ति का उपयोग नही करने से, अतरायकर्म का बन्धन होता है, मवर से कर्मवध रुकता है और चारित्र से क्षीण होता है । घाती अघाती कर्म: (१) आत्मा की शक्तियो का जो घात करते हैं, वे घाती कर्म कहे जाते है, वे चार हैं - (१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शना. वरणीय, (३) मोहनीय, (४) अन्तराय । इन चारो का मुख्य आधार मोह ऊपर ही है। मोह का नाश होते ही इन चारो ही कर्मो का नाश हो जाता है ।। (२) गेप चार अघातीकर्म है, ये आत्मा को आधारभूत हानि पहुंचानेवाले नही हैं। शरीर के साथ सम्बन्ध रखने वाले Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग ) ( ११९ हैं, घातीकर्म नाश होने पर देह-आयु के क्षय के साथ ये चारो ही मघातीकर्म क्षीण हो जाते है । जो एक मोह को जीतता है, वह सभी को जीत लेता है । मोक्षतत्त्व: मोक्ष अर्थात् कर्मों से मुक्त होना | सभी वासनाओ से छूटना यही मोक्ष है । मोहनीय आदि चारो कर्मों के सपूर्ण क्षय होने पर केवलज्ञान और वीतरागभाव प्रकट होता है किन्तु उस समय में वेदतीय आदि चार अघातीकर्म अत्यन्त सामान्य अवस्था में रह जाने पर भी मोक्ष की प्राप्ति नही होती है । जिस समय सम्पूर्ण कर्म क्षीण होते है, उसी समय जन्म-मरण का चक्र बन्द हो जाता है । यही मोक्ष है । जैसे पानी मे डूबा हुआ तुवा लेप छूटने पर पानी की सतह पर तैरता हुआ आ जाता है, वैसे ही कर्मों से मोक्ष प्राप्त आत्मा भी अपने मूलस्वरूप को प्राप्त कर लोक के सर्वोच्च भाग पर पहुँच जाता है, यही ऊँचा भाग 'मोक्ष' अथवा 'सिद्ध शिला'कहा जाता है । सिद्धगति कैसी है ? वहाँ पर शरीर नहीं है, कर्म नही है, बुढापा नही है, मरण नही है, निराकार निरजन केवलज्ञानमय स्वरूप है, अक्षय आनदमय स्वरूप है । सिद्धगति प्राप्ति के पश्चात् क्या ? सिद्धगति प्राप्त करने के पश्चात् अन्य कुछ भी प्राप्त करना Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ) ( जैन पाठावली शेष नही रहता है । वहाँ जाने के पश्चात् ससार में । पश्चात् ससार में पुन आने का काम भी नही रहता है । यह मोक्ष पहिले भी था, आज भी है और भविष्य में भी रहेगा ही । भूतकाल मे भी अनन्त सिद्ध हुए, वर्त्तमानकाल मे भी होते है और भविष्यकाल मे भी होगे । इसलिये कर्मों से मुक्त होने के लिये आत्मशुद्धि के लियेप्रयत्नशील होना चाहिये । - मोक्ष किसको प्राप्त होता है ? स्त्री को, पुरुष को, साधु को, गृहस्थ को, अपने आप धर्म-तत्त्व के ज्ञाता को, गुरुद्वारा प्रतिपादित धर्म मार्गानुसार काम करने वालो को, चाडाल को, क्षत्रिय को, ब्राह्मण को, वैश्य को, याने सभी प्रकार के पुरुषो को मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है । मोक्ष प्राप्त करने के लिए जाति के, वर्ण के, देश के, अथवा मत-मतान्तर के किसी भी प्रकार के वाडे बाधक नहीं हो सकते हैं । केवल पात्रता और प्रयत्न आवश्यक है, जो पात्र तत्त्व को पचावे, वही उसको प्राप्त कर सकता है । मोक्ष प्राप्त करने की पात्रता: मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी मनुष्य तो होना ही चाहिये, क्योकि अन्य गति मे चारित्र का पालन परिपूर्ण रीति से नही हो सकता है । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) शरीर मजबूत होना चाहिये । मजबूत बने बिना इस मार्ग र नही जाया जा सकता है । __ शुक्लध्यान होना आवश्यक है, इसके बिना आत्म-रमणता रूप याने स्थितप्रज्ञता उच्च विकास की प्राप्ति नही हो सकती है। धर्म-ध्यान की आराधना करते हुए शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है और इसके द्वारा उच्चकोटि पर पहुच जाता है, एव तत्पश्चात् मुक्तावस्था प्राप्त होती है। क्षायिक सम्यक्त्व होना आवश्यक है। इस सबध मे विशेष वर्णन गुणस्थान-प्रकरण में किया जायगा । चारित्र निर्दोप होना चाहिए अर्थात् आत्मा अपने मूलस्वभाव मे रमण करती रहनी चाहिये । वर्ण-आतरिक और बाह्यरूप से उज्ज्वल होना चाहिये। मनुष्य में भी कर्मक्षेत्र की भूमि का मनुष्य होना चाहिये । ऐसा मनुण्य ही नवतत्त्वो का ज्ञाता होकर आदरणीय का आदर करे और त्यागने योग्य का त्याग करे, तभी मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( कथा - विभाग सती चन्दनबाला पिता मरा, माता मरी, दासी वन वेचाय, पर रक्खा दृढ धर्म को, रंच न चित्त चलाय । तीन दिवस भूखी रही, मिले वीर भगवान्, कीर्ति बढी, वैभव वढा, पाया पद निर्वाण ॥ ऊँटनी- सवार कोशाम्बी नगरी मे आ पहुँचा । उसने चमुमती को ऊँटनी से नीचे उतारा और बाजार में खडा कर दिया । झुण्ड के झुण्ड लोग वहाँ आये । वसुमती का रूप देखकर मोल करने लगे-' इस कन्या का मोल क्या है - सवार मांग देख कर महँगा होता गया । ܙ ܕ यह वसुमती कौन थी ? उसकी पिछली कथा सुनो । चम्पानगरी के राजा दधिवाहन की वह लडकी थी । उसकी माता का नाम धारिणी था। माता-पिता ने पढ़ा-लिखा कर उसे होशियार बनाया था । राजा शतानीक फोन लेकर चढ आया । आमने-सामने लडाई हुई । अन्त मे दधिवाहून मारा गया । शत्रु के हाथ में न पड़ने के विचार से 1 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) (१२३ धारिणी और वसुमती भाग खडी हुई। रास्ते में मां बेटी को कौशाम्बी का एक ऊँटनी सवार दिखाई दिया । सवार की नीयत बिगडी। अपने गील की रक्षा करने के लिए माता ने ' प्राण दे दिये । देह तो फिर मिल जाता है मगर शील एक बार नष्ट हो जाता है तो फिर नहीं मिलता। बिना माता की अकेली कन्या चीखें मार-मार कर रोने लगी। बारह वर्ष की उसकी उम्र थी, लेकिन समझदार थी। आखिर भगवान पर भरोसा रखकर उसने अपना मन शान्त किया। ऊँटनी सवार धारिणी की मृत्यु से सहम गया था। वह सोचने लगा-इस लडकी का क्या करूं? अन्त में उसे सूझा कि कौशाम्बी के बाजार में ले जाकर इसे बेच देना ही उचित है और इस प्रकार वह बेचने के लिए बाजार में खड़ा हुआ । कहाँ राजा की गुणवन्ती कुमारी और कहाँ सरे बाजार विकने वाली अनाथ दासी । कर्म की गति को कौन समझ सकता है ? 'करम-गति टारी नाहिं टरे ।' सौभाग्य से कौशाम्बी के धनावाह सेठ उसी रास्ते आ निकले । वसुमती पर उसकी नजर पडी । सेठजी सोचने लगेकन्या किसी ऊंचे कुल की और सस्कारी है । कौन जाने, किसी लम्पट के हाथ पड जाय । बेहतर है कि मै ही इसे खरीद लूं। सेठजी के कोई बाल वच्चा नहीं था । उन्होने मुंह माँगे दाम , देकर वसुमती को खरीद लिया । वसुमती की तकदीर इतनी तो सुधरी ! Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ) ( जैन पाठावली 1 धनावाह सेठने अपनी स्त्री मूला से कहा - ' इसे अपनी बेटी समझ कर रखना ।' सेठानी प्रसन्न हुई । सेठ-सेठानी दोनो वसुमती पर, स्नेह रखने लगे । वसुमती आनन्द के साथ अपने दिन विताने लगी। धीरे-धीरे वह अपने माँ के अभाव को भूलने लगी । मगर इतने में तो कर्म ने फिर उछाल मारना शुरू किया । वसुमती पर सेठ का स्नेह दिनो-दिन बढता जाता था । वसुमती चन्दन जैसे शीतल और मोठे वचन बोलती थी । इसीलिए सेठ उसे ' चन्दनबाला' कहकर पुकारता था । चन्दनबाला अव चौदह वर्ष पूरे करके पन्द्रहवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी थी । उसके अग अग में जवानी की छटा फूट रही थी । वह देखकर मूला कभी - कभी सोचने लगती - 'सेठजी अभी तो इसे लडकी की भांति रखते है, मंगर किसी समय इसके साथ विवाह कर बैठे तो ? तब तो मेरी जिन्दगी मिट्टी में मिल जायगी ।' इस प्रकार की आशका मे सेठानी डूबी रहती । कभी कभी ईर्पा की आग उसे सुलगा देती थी । इसी समय आग में घी होमने के समान एक प्रसग बना गया । I सेठ बाहर से आये थे । पैर धूल से भरे थे। नौकर कोई मौजूद नही था । विनयी चन्दनवाला स्वयं पानी लेकर दौडी और सेठ के पैर धोने लगी। उस समय उसकी चोटी छूट गई चन्दनबाला के लम्बे-लम्बे और भौरा जैसे काले बाल कीचड से न भर जाएँ, इस विचार से सेठ ने अपनी छडी से बाल ऊपर कर लिये । चन्दना जब खडी हुई तो स्नेह से उसकी चोटी 1 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __तृतीय भाग) (१२५ बांध दी। चन्दना की चोटी बांधते सेठ को मूला ने, ऊपर छज्जे से देख लिया। फिर तो पूछना ही क्या था ! उसकी आशका पक्की हो गई । अगर उसने सेठ से उसी समय पूछ लिया होता या पूरी घटना देख ली होती तो सेठानी को वहम न होता । किन्तु जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि । वहमी मनुष्य विचार नही कर सकता। बेचारी निर्दोष चन्दना अब सेठानी के दिल मे चुभने लगी । वह सोचने लगी-'इस विघ्न का जल्दी ही सफाया कर डालना चाहिए । अन्यथा यह मेरी सौत होकर जम जायगी। तो क्या इसे जहर पिलाकर मार डालूं? नहीं, ऐसा नही । मार डालने की अपेक्षा कुरूप बना देता ठीक होगा। ऐसा करने से सेठ इसे चाहेगा ही नही ।' इस प्रकार विचार करके और एक दिन मौका देखकर उसो चन्दना को बुलाया । उसे खरी-खोटी सुनाई। सिर मुंड दिया । पैरो में बेडियाँ पहना दी। फिर अन्तिम कोठरी में उसे ले गई। खूब भीतरी मारमारी और कोठरी मे बद कर दी। इतना सब करके सेठानी अपने मायके चल दी। तीन दिन बीत गये। चन्दना को न अन्न मिला, न पानी मिला । उसका गला सूख गया था। शरीर क्षीण हो गया था। मौत ताक रही थी। मगर ऐसी दुर्दशा के समय भी उसके मुंह मे हाय-हाय नही थी। नमस्कार मत्र का वह जाप कर रही थी। आ । कितना भीषण कष्ट | कितना घोर Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६) ( जैन पाठावली झूठा कलक । फिर भी मुला सेठानी पर उसे तनिक भी रोष नही, जरा भी द्वेष नही । ऐसी चन्दना को लाखो धन्यवाद ! धनावाह सेठ बाहर गाँव से लौटकर आये । बहुत ढूंढखोज करने पर चन्दना का पता चल गया । उसकी दशा देखकर सेठ की आँखो से आसुओ की धारा बह निकली । } 4 + यह सब मूला सेठानी की करतूत है, यह जानकर सेठ के क्रोध का पार न रहा । चन्दना कहने लगी- 'पिताजी / दोष माताजी का नही है । उनका तो बहुत उपकार है । दोष मेरे कर्मों का है । आप माताजी को कुछ न कहे !' सेठ वोले- 'धन्य है बेटी । पर तेरे लिए खाने को तो ले आऊँ ।' सेठजी खाना लेने दौडे । पर उन्हे ढोरो के लिये तैयार किये हुए और सूप में रक्खे हुए उडद के बाकले के सिवाय कुछ मिला नही । सेठ सूप उठाकर लाये और चन्दना के पास रख दिया। इसके बाद बेडियाँ काटने के लिये वे लुहार को बुलाने दौडे | चन्दना का एक पैर देहली पर है और दूसरा बाहर है। बेटी बैठी वह सोचती है कि ऐसे समय पर कोई अतिथि सन आ जाएँ तो कितना अच्छा हो । चन्दना इस दुख में और ऐसी' भूख मे भी अतिथि सत को नही भूलीं । इतने में ही एक सत उस ओर पधारे। उन्होने निश्चय किया है कि- ' कोई सती और राजकुमारी दासी की तरह रही Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . तृतीय भाग) (१२७ हो, उसका मस्तक मुंडा हो, पर में बेडी पहने हो, भूखी हो - और सूप में उडद के बाकले पडे हो, वह रोती हो, उसी के हाथ से मै भिक्षा लूंगा।' कितना कठोर निश्चय है | बहुत दिनो से यह निश्चय पूरा नहीं हो रहा है और सत उपवासी हैं । कौशाम्बी के राजा-रानी और नगर-निवासी इसी चिन्ता मे हैं कि किसी तरह इस सत-महात्मा का पारणा हो जाय । यही सत आज चन्दनबाला के पास पधारे। चन्दनवाला के हर्प का पार नही रहा । हैं तो बाकले मगर आज आहारदान देने का लाभ मिलेगा। चन्दनवाला ऐसा सोच ही रही थी कि सत देखकर लौट पडे। उनके निश्चय के अनुसार और तो सभी था, सिर्फ आँख में आँसू नही थे। संत को लौटते देख चन्दनबाला ने सोचा--मै कैसी अभागिनी हूँ कि आगन मे आये सत भिक्षा बिना लिए ही लौट ___ गये । और चन्दनबाला रो पड़ी। रोने की आवाज सुनकर सत ने मंह फेर कर देखा। चन्दनबाला की आँखो मे उन्हे आँसू दिखाई दिये। अब उनका __ निश्चय पूरा हो गया । सत वापिस लौट आये। चन्दनबाला ने भक्ति के साथ उडद के बाकलो का दान दिया । - भिक्षा लेनेवाले सत कौन थे? दूसरे नही, स्वय भगवान् - महावीर थे। उसी समय देवो ने दिव्य फूलो आदि की वर्षा की। बेडियाँ टूट गई । मस्तक पर जैसी की तैसी चोटी हो गई।, Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८) ( जैन पाठावली सेठजी लहार को बुलाकर लाये। पर अब लुहार की क्या आवश्यकता थी ? . चन्दना को पहले जैसी देखकर सेठजी बहुत प्रसन्न हुए। सारे नगर मे चर्चा फैल गई। मूला सेठानी भी आई । वह खराव वर्ताव करने के लिए पछताने लगी। उसने चन्दनवाला से माफी मांगी। मगर चन्दनवाला ने कहा-' माँ | तुमने ऐसा न किया होता तो भगवान् को आहार-दान देने का सौभाग्य कैसे मिलता ? अहा कितनी क्षमा ।' चन्दनबाला को देखने के लिए नगर के लोगो का मेला लग गया। कौशाम्बी के राजा-रानी भी आये । रानी ने पहचान निकाली । पहले की वसुमती और आज की चन्दनबाला उसकी बहिनोती होती थी। कौशाम्बी की रानी चन्दनबाला की मौसी लगती थी। मौसी चन्दनवाला को अपने महल में ले गई । अव चन्दनवाला को रहने के लिए मजे का महल मिल गया । घूमने के लिए सुन्दर बगीचा था और खाने के लिए भाति-भाति के भोजन थे । दास-दासियाँ सेवा के लिए हाजिर । पर चन्दन-- बाला धनावाह सेठ का उपकार नही भूली और उसका ध्यान भगवान् से हटता नही । इसे कहते है आदर्श कन्या । 'महाप्रभु महावीर की सेवा मे रहने को मिल जाय तो । कितना सौभाग्य ।' हमेशा उसकी भावना ऐसी ही बनी रहती है। वह प्रभु महावीर से प्रार्थना भी करती है। मगर भगवान् Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग ) ( १२९ तो अपने ही ध्यान में मग्न रहते है । केवलज्ञान होने से पहले न देना उपदेश और नही बनाना चेला - चेली । यह महावीर स्वामी का निश्चय है । चन्दनबाला राह देख रही है कि कब भगवान् मुझे दीक्षा दे ! आखिर चन्दनबाला की भावना फली । भगवान् महावीर को केवलज्ञान हुआ । उन्होने उपदेश देना आरम्भ किया । बहुत - बहुत लोग आते । पशु भी आते । जो उपदेश के अनुसार आचरण करने लगे उनका सघ बन गया । सघ को तीर्थ भी कहते हैं । -- । तीर्थं चार हैं - साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका । सबसे पहले चन्दनबाला साध्वी हुई । वे ३६००० साध्वियों में अग्रगण्य बनी । 1 चन्दनबाला ने जैसे सयम लिया उसी तरह सुन्दर रूप से पाला । आगे जाकर उन्होने मोक्ष प्राप्त किया । जीवन भर कुँवारी रहकर ब्रह्मचर्य का पालन किया । अनेक दुखो मे से, अनेक कसौटियों पर कसी जाकर वह खरी सिद्ध हुई । t धन्य है सती चन्दनबाला 1 ऐसी वीरागनाएँ ही जैन समाज को उज्ज्वल कर सकती हैं । I Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सती. द्रौपदी (१) mom पति पाच पाकर भी पतिव्रत धर्म को धारण किया, तज भीस्ता जिसने सभा मे धर्म उच्चारण किया। - तेरह विताये वर्षे वन में कष्ट सह पति-संग में । साध्वी बनी फिर राज्य तज, ममता न रक्खी अग में। कपिलपुरी के राजा द्रुपद के दो सतान है-एक लडका ओर एक लडकी । लडके का नाम है धृष्टद्युम्न और लडकी का । नाम द्रौपदी । राजा लडकी को बहुत प्यार करता है । दौपद्री अब जवान हो गई है । उसके रूप का क्या कहना ! उसकी वाणी का क्या कहना । उमकी चतुरता भी गजब की है । कई जगह से दोपदी की मांग आई है, पर अच्छा पति खोज निकालने के अभिप्राय से राजा ने स्वयवर रचा है। स्वयवर मे देश-देश के राजा आये है । द्रपद राजा की गर्न है-'जो राधावेध करे वही द्रौपदी को वरे ।' सजा हुआ मडप है । वीचो-बीच एक रत्नो से जडा हुआ खभा खडा है। उसके दाहिनी मोर और बाई ओर चार-चार चक्र घूम रहे है । ऊपर ही ऊपर रत्नो की एक पुतली Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग ) ( १३१ रक्खी है । नीचे एक धनुष रखखा हुआ है । मुँह नीचा करके, घूमते हुए चक्रो में से उस पुतली को वेध देना राधावेध कहलाता है । मथुरा का राजा उठा। विराट देश के राजा ने भी' उठकर बहुन मिहनन की। मगर वे कुछ भी न कर सके । नदापुर का राजा शल्य अपनी शेखी बघारने लगा -- 'मै क्या नही कर सकता ? देखो, में राधावेध करता हूँ।"" मगर उसकी शेखी धूल में मिल गई । बेचारें शिशुपाल राजा के तो घुटने ही टूट गये । दुर्योधन माथा खुजाता - खुजाता वापिस लौटा । वीर कर्ण भी हताश हो गया । - 1 1 यह देखकर द्रुपद राजा ने कहा- 'अरे । इतने सारे राजा इकट्ठे हुए हैं, पर मेरा प्रण कोई भी पूरा नही कर सकता? स्वयंवर खाली जायगा तो मेरी हँसी होगी, परन्तु दुनियाँ में तो तुम सबो की बेइज्जती होगी । ' इतने में एक नौजवान चमक उठा। उनका नाम था अर्जुन' । वह द्रोण गुरु का प्यारा और प्रथम शिष्य था । युधिप्ठिर और भीम का छोटा भाई था । सहदेव और नकुल का वढा भाई और पाण्डु राजा का पुत्र था । कुन्तीदेवी का लाडला लाल था । उसने देखते ही देखते सावधान होकर धनुष उठाया और राधावेध कर दिया। अर्जुन के जय-जयकार से सभा मण्डप गूंज उठा । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२) (जैन पाठावली ( २) पंचालराज द्रुपद की पुत्री अथवा पाचाली (दौपदी) ने अर्जुन के गले मे माला डाली । मगर कौतुक यह हुआ कि जैसी माला अर्जुन के गले में पड़ी थी, वैसी ही माला उनके चारो छोटे-बडे भाइयो के गले में भी दिखाई दी । यह विचित्र बात . देखकर सारी सभा को अचरज हुआ । द्रुपद दुविधा में पड़ गये। ___उसी समय एक ज्ञानी पुरुष पधारे । उन्होने, खुलासा किया कि द्रौपदी ने अपने पहले भव में ऐसा निदान (नियाणा) किया है । उसी निदान के कारण इस समय ऐसा हुआ । यह पांचो पाडव भाई-भाई हैं। पवित्र वृत्ति वाले हैं। परस्पर प्रेम वाले है। द्रौपदी इन पाँचो की सेवा करेगी । यह पाँचो की प्रीति को जोड़ने वाली साकल बनेगी। यह पाँचो की पत्नी कहलाएगी।। लेकिन इन पाँचो की वह इस प्रकार सेवा करेगी जिससे उसके . सतीपन में कोई बाधा न आए । पांचाली के सयम और चारित्र की छाप पाँचो पतियो पर पडेगी। इसलिए किसी को किसी भी तरह की शका नहीं करनी चाहिए । इतना कहकर ज्ञानी पुरुप अपने रास्ते चले गये । दौपदी पांच पतियो की सती स्त्री वनी । वह सुखपूर्वक अपना समय बिताने लगी। इसी बीच एक विपदा आ पडी। द्रौपदी के स्वयवर में हारा हुआ कर्ण जल-भुन रहा था । पांडवो की चढती देखकर दुर्योधन की आँखो से भी आग बरस रही थी। उसे मामा शकुनि Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - तृतीय भाग) (१३३ की सहायता मिल गई । युधिष्ठिर को बुलाकर जुआ खिलाया। जुआ एक बडी बुराई है। उसकी लत पड़ जाना और भी बुरा है। ___ युधिष्ठिर जुए मे फँस गये । धर्म को भूल गये राज-पाट धन-भण्डार सभी कुछ हार बैठे। पर हारा -जुआरी · दुगुना खेलता है । युधिष्ठिर ने अपने भाइयो को दाव पर रख दिया । और अन्त में अपने आपको भी रख दिया। 'हे द्रौपदी ।' कहकर युधिष्ठिर ने पासा फेका। युधिष्ठिर ने सोचा तो यह कि हारा हुआ सब कुछ वापिस ले लं, मगर हुआ उलटा ही। वे द्रौपदी से भी हाथ धो बैठे। सती द्रौपदी (२) कचहरी सभासदो से खचाखच भरी है। भीष्म पितामह जैसे बड़े बूढे भी बैठे हैं । द्रोण गुरु भी मौजूद हैं। समर्थ कृपाचार्य साक्षी हैं। पिता के समान धृतराष्ट्र भी उपस्थित हैं। रजस्वलादशा मे द्रौपदी को दूत सभा में ले आता है। कर्ण दाँत पीसता है। दुर्योधन हुक्म देता है । दुश्शा सन कहता है-'यह वस्त्र उतार और दासी के कपडे पहन ।' कहाँ महारानी द्रौपदी और कहाँ भरी सभा में यह घोर अपमान' ज्यो ही दुश्शासन सती के शरीर को हाथ लगाता है, ज्यो ही सती का तेज झलक उठता है । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४) (जैन पाठावली. भीम खडा हो जाता है । युधिष्ठिर कहता है-"भैया भीम, इस समय हम लोग पराधीन हैं ।' यह कहकर उमे रोकते है। द्रौपदी तटक कर कहती है-'खवरदार ! मेरे पांच पतियो के सिवाय किसी ने हाथ लगाया तो उसकी खैर नहीं ! गुरुजनो । त्यायनीति के ज्ञाताओ' ।' प्रथम तो में स्त्री और फिर रजस्वला । आप सव के सामने यह दुश्शासन क्या कर रहा है ? तुम्हारा बडप्पन कहाँ चला गया है ___अरे वीरो | तुम्हारी वीरता कहाँ चली गई ? मेरे पति' पराधीन है, पर तुम लोगो को पराई बहिन-बेटी की आबरू जाती देखकर भी लाज नहीं आती ? शरमाओ । जरा तो शरमाओ ।' द्रौपदी की यह ललकार सुनकर सव के मुह लटक गये। द्रौपदी धर्मराज युधिष्ठिर के सामने देखकर कहती है-'देव । आप और सब तो भूल गये | आपने भाईयो को भी दाँव पर चढ़ा दिया । पत्नी को दांव पर चढाते हुए भी आपको विचार नही आया ? मै तो आर्य स्त्री हूँ। यह भी सह लूंगी।' इसके वाद द्रौपदी ने द्रोण और भीष्म की तरफ उन्मुख होकर कहा'महापुरुषो | और सब तो खैर ठीक है, मगर मै आप से पूछती हूँ-युधिष्ठिर जब जुए मे स्वय अपने को हार चुके तो वे मुझे दांव पर किस प्रकार चढ़ा सकते है ? Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __तृतीय भाग) "द्रौपदी के इन वचनो को सुनकर सभा विचार मे पड गई।। द्रापा विदुर मौका पाकर कहने लगे-'शाबाश ! बेटी शाबाश धन्य है तेरी बुद्धि को । वास्तव मे दौपदी का कथन नीतियुक्त है । नीत्तिवेत्ताओ । द्रौपदी के प्रश्न का उत्तर दो।' सभा में सन्नाटा छा गया । इतने में दुर्योधन बोला-- 'यह नीति तो युधिष्ठिर को विचारनी थी। हम द्रौपदी को जीत चुके है ।' कर्ण ने हाँ मे हाँ मिलाते हुए कहा-'ठीक है, दुर्योधन का कहना ठीक है।' दुश्शासन को शह मिल गई। उसने सती द्रौपदी का चीर पकडा । भीम की भुजाएँ फडकने लगी । अर्जुन की आखो से लोहू बरसने लगा । युधिष्ठिर सिर पर हाथ देकर नीचे की तरफ देखने लगे। ऐसे समय भगवान् के सिवाय और कौन बेली है ? सती बोली-'शासनदेव । अगर मैने मन, वचन और काया से पति-- व्रत की आराधना की हो तो मरी लाज रखना ।' पतिव्रत की महिमा अपार है। वस्त्र खीचते-खीचते दुश्शासन थक गया । मगर चीर का कहीं अन्त ही नहीं आता था । .. सती की लाज़ रह गई । सभा मे जय-जयकार हुमा । सती द्रौपदी इस कसौटी पर खरी उतरी।, ; . Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६) (जैन पाठावली इसके बाद भी सती पर अनेक सकट आये। पूरे वारह वर्ष तक पति ने वनवास किया। सती बराबर उनके साथ ही रही । एक वर्ष के अज्ञात-वास मे भी पति के साथ रही। विराट नगर की रानी के पास सैरध्री नामक दासी बनकर रही। रानी के भाई कीचक ने वहाँ भी द्रौपदी को सताने मे कसर नही रक्खी । पर इस वीरागना सती ने प्राणो की परवाह न करके अपने गील की रक्षा की। बहुत से कष्ट सहन करके पाण्डव प्रकट हुए । अव . दुर्योधन को इनका राज्य इन्हे सौप देना चाहिए था। पर उसे तो रावण की तरह राज्य-मद चढा था। श्रीकृष्ण वासुदेव खुद आये और उन्होने दुर्योधन को समप्लाया । विदुर ने कहा-'अरे पाँच गाँव तो पाण्डवो को दे ।' मगर दुर्योधन नही माना, नही माना । - कुरु क्षेत्र मे युद्ध छिडा । लाखो आदमियो का खून वहा । अन्त मे पाण्डवो की जीत हुई । द्रौपदी फिर महारानी बनी। लेकिन सती के मन मे आया-इस रूप की बदौलत न जाने कितने ही नष्ट-भ्रप्ट हुए और इस राज्य के खातिर कितना नरसहार हुआ किस काम का है यह रूप? किस मतलव का है यह राज्य ? इस विचार से चित्त मे वैराग्य जाग उठा। सती त्यागी वनी । इनके सव पतियो ने इन्ही का मार्ग पकड़ा। भगवान् नेमिनाथ के पास दीक्षा ग्रहण की और सभी ने आत्मा का कल्याण किया। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) वन्दन,हो शील की रक्षा करने वाली द्रौपदी को । वन्दन हो विद्या और बुद्धि की भण्डार द्रौपदी को ! वन्दन हो पति की सेवा में परायण द्रौपदी को! - वन्दन हो साध्वी-शिरोमणि महासती द्रौपदी को ! wmhirniw सती दमयन्ती वल-रूप-गुण के धाम नल भूपेश से ब्याही गई, पर चूत में नलराज की सपत्ति हाय चली गई। पति-सग वन में भी रही पर त्याग पति ने कर दिया, पाला सती ने शील-संयम धर्म करके दृढ़ हिया। हो धन्य दमयन्ती सती, हो वन्दनीय सदैव ही, संयम लिया तज राज-वैभव भव-जलधि में ना वही । सती दमयती का नाम तो तुमने सुना ही होगा । कुण्डिनपुर के राजा भीमरथ की वह कन्या थी । अयोध्या के राजा निषधराज के पुत्र नल ने स्वयवर मे उसे वरण किया था । ___नल और कुबेर दोनो भाई थे । नल बड और कुबेर छोटा भाई था। नल रूपवान् तो थे ही, वीर भी थे। वहत्तर कलाओ मे कुशल थे । रसिक थे । गुणी थे । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (जैन पाठावली पिता ने नल को राजगद्दी सौप दी । नल जैसे बड़े थे, . वैसे ही योग्य भी थे। राजगद्दी की शोभा बढाने लायक थे । नल के बाद का अधिकार कुवेर को सौंप कर राजा साधु हो गया । नल अब राजा हो गए । दमयन्ती महारानी हुई । वह सती स्त्री है । दमयन्ती राजा नल की परछाई की तरह अनुसरण करती थी। दोनो में इतना गाढा स्नेह है कि दूसरे गृहस्थो को यह जोडी देखकर डाह होती है । मनुष्य में कोई न कोई ऐब होता ही है मगर ऐव अगर छोटा होता है तो किसी वडे गुण के कारण वह छिपा रहता है या दूर हो जाता है। नल मे भी एक ऐव था और वह वडा ऐव था। उस ऐव का नाम है जुआ । जुआरी झूठा हो जाता है । उसमें चोरी करने का दुर्गुण भी घुस जाता है । वह कुसगति मे पड कर भक्ष्य-अभक्ष्य का मान भूल जाता है और फिर बडे-बडे पाप करने लगता है इस कारण ज्ञानी पुरुप कहते हैं-जुआ एक बड़ा भारी कुव्यसन है । झगडा बढाने वाला है । वर्वादी करने वाला है । जीते जी आवरू को मिट्टी में मिला देता है और मरने के बाद नरक में ले जाता है। कभी-कभी मौका पाकर दमयन्ती अपने पति को यह मव बात समझाती थी। मगर गहराई तक पहुंचे हुए इस कुव्यसन को नल छोड़ नहीं पाता था । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग ) ( १३९ एक बार छोटे भाई कुबेर के साथ जुआ खेलते-खेलते नल राजपाट हार बैठा । कुबेर को डर लगा कि भाई यहाँ भौजूद रहेगे तो प्रजा मुझे राजा नही मानेगी । 1 यह सोचकर कुबेर ने कहा- भाई साहब । राज्य अब 2 मेरा है । मेरे राज्य की हद में आप न रहे तो अच्छा है । नल ने कहा - लो, यह चला ! तू मजे से राज्य कर - 1 नल ने जो कपडे पहन रक्खे थे, उन्ही कपडो के साथ - नल चल दिये । दमयन्ती को खबर लगी कि पतिदेव की यह हालत हुई है ! भिखारी की तरह जा रहे हैं। आखिर वह भी साथ हो गई | नल की छाया नल के बिना कैसे रहती ? स्त्री की परख ऐसे ही हालत मे होती है । नल ने दमयन्ती को बहुत रोका, मगर दमयन्ती अनुनय-विनय करके पति के पीछे-पीछे चलने लगी । दोनो जने दूर से दूर जा रहे हैं । वे चलते ही जा रहे हैं । वे राज्य की हद लौंध गये । अब इस अनजान जगह में कौन उन्हे पहचानता है ? मगर पेट से छुटकारा कैसे मिल सकता है ? इस गइहे को भरने के लिए कपडे बेचे दमयन्ती के आभूषण बेचे । पर कितने दिनो तक काम चलता ? अव उनके पास तन ढँकने को सिर्फ एक-एक ही कपडा बाकी रह गया । 1 J कहाँ निषध का राज्य और कहाँ भूख का यह राज्य कहाँ सुन्दर वस्त्र और कहाँ तन ढकने के लिए पहना हुआ मैलाकुचला कपड़ा .! - Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०) (तृतीय भाग समय की बलिहारी है। कर्म के कटुक बीज बोने में तो मजा आता है पर फल चखते समय नानी याद आ जाती है । ऐसी हालत मे पडे नल और दमयन्ती घूमते-फिरते जगल में जा पहुँचे । जगल में रास्ता भूल गये । रास्ता खोजते है, पर मिलता नही । इतने में साँझ हो जाती है। घोर अन्धकार फैल जाता है । अन्त मे किसी पेड़ के नीचे घास-पात बिछाकर दोनो सो जाते हैं। कही चीते की आवाज सुनाई देती है तो कही सिंह की गर्जना सुन पडती है । कभी नौला क्री-क्री करता हुआ दौडधाम मचा रहा है तो कभी अजगर पाससे निकलता है । ऐसी भयानक जगह मे नल-दमयन्ती लेटे है । थकावट जगह थोडे ही देखती है । इसलिए दमयन्ती पति के भरोसे खुर्राटे लेकर सोती है। पर नल को अभी नीद नहीं आई। वह दमयन्ती की तरफ देखकर सोचने लगे--मेरे खातिर यह सती कितनी कष्ट भुगत रही है ? इस तरह सोचते-सोचते नल की आँखो से आसू बहने लगे। विचार आया--दो जने साथ रहते हैं तो दो के पेट की चिन्ता करनी पड़ती है मै अकेला चल दूं तो ? भूखा आदमी कौन-सा पाप नहीं कर बैठता? ऐसे कठिन मौके पर नल अकेला भाग जाने का इरादा कर रहा है | उसकी मनोदशा तो देखो। नल फिर सोचता है-दमयन्ती को इस भयानक जगल में Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली) (१४१ । अकेली छोडकर जाने को क्रूरता करना क्या उचित है ? नही, ऐसा नही हो सकता। ___ मगर नल की यह दया देर तक नहीं टिकी । नल उठता है । धूल में कुछ लिखता है और दमयन्ती को पता न चले, इस प्रकार चुपके से चल देता है। नल तत्काल दूर और बहुत दूर निकल जाता है । सती दमयन्ती इधर सती दमयन्ती सपना देखती है। सपने में वह डर जाती है । वह चौंक कर कुछ बोलती है, मगर अब सुनने वाला कौन था ? पतिदेव तो नौ दो ग्यारह हो चुके थे । उत्तर न पाकर दमयन्ती 'पतिदेव' 'पतिदेव' कहकर हाथो से टटोलती है। मगर पति कहाँ ? निवटने गये होगे, यह सोचकर वह अन्धेरी रातमे आवाज देती है। उत्तर में बाघ की चीसकी ध्वनि सुनाई देती है। नाथ | इतने कठोर कैसे हो गये ? हंसी करते होओ तो बस करो। बोलो कहाँ हो ? इस प्रकार वडबडाती हुई दमयन्ती न रात पूरी की । प्रभात हुआ । आसपास में बहुत खोजा । मगर नल वहाँ होते तो मिलते । आह । पुरुषो की कठोरताके ? कारण सती स्त्रियो पर कैसी बीतती है ? दमयन्ती रोती-रोती थक गई । वह परमात्मा का स्मरण __करने लगी। तब उसके मन को कुछ शान्ति मिली। अचानक Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२) ( जैन पाठावली उस तरफ नजर पहुंची जहाँ जमीन पर कुछ अक्षर लिखे थे। वहाँ इस प्रकार लिखा था 'देवी ! तुम्हे सख्त आघात लगेगा मगर मै निर्दय होकर जा रहा हैं । तुम कुण्डिनपुर चली जाना । मेरी चिन्ता मत करना । मेरे हृदय मे तुम बसी हो । समय आने पर अवश्य मिलेगे।' ___ नल भले ही निर्दय हो गये मगर सती दमयन्ती अपने प्रियतम को नहीं भूलती । वन में चलते-चलते .एक सार्थवाह मिला। दमयती उसके साथ हो गई और किसी नगर मे जा पहुंची। वह एक तालाब के किनारे बैठी थी । इतने मे वहाँ की रानी की दासी आई और उसने दमयती को देखा । उसे क्या आई । रानी की आज्ञा लेकर वह दासी दमयती को राजमहल मे ले गई। दमयती वही रहने लगी। रानी चन्द्रयशा दमयन्ती की मौसी लगती थी। पर दयमन्ती को यह वात मालम नही थी। दमयन्ती बहुत ही विनयशीला थी। उसके ऊपर सभी को प्रेम उमडता था। विनय से वैरी भी वश मे हो जाते हैं । धीरे-धीरे सारा नगर दमयन्ती को पहचानने लगा। कुछ दिनो के बाद राजा ऋतुपर्ण ने दमयन्ती को अपनी देखरेख का काम सौपा। दमयन्ती भलीभाँति उसे सभालने लगी । वह कैदियो से भी मुलाकात करती और उन्हे अच्छा Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) उपदेश देती थी। वह उनसे चोरी वगैरह के दोपो का त्याग करवाती थी वह रोगियो की भी सेवा किया करती थी ऐसी बाई को भला कौन नहीं चाहता ? समस्त प्रजा के हृदय में उसने अपना स्थान बना लिया। * नल और दमयन्ती जगल में कही निकल गये' है, यह समाचार भीमनाथ को मालम हए । उसने चारो ओर दूत भेजे । .. एक दून खोजता-खोजता वहाँ आया। दूत ने दमयन्ती को पहचान लिया। तव चन्द्रयशा को पता चला कि दमयन्ती मेरी वहिन की बेटी है। फिर किस बात की कमी थी? आखिर दमयन्ती के माता-पिता भी वहाँ आ गये। ऋतपर्ण और चन्द्रयशा ने सेवा करने में कसर नही रक्खी । थोडे दिनो के बाद अपनी प्रिय पुत्री दमयन्ती को माता-पिता साथ ले गये। दमयन्ती को किसी चीज की कमी नही है। फिर भी उसके दिल में नल की ही लगन लग रही है । नल, दमयन्ती से जब अलग हुआ तो उसे एक बार साँप ने काट खाया। मानो सती को जगल में अकेली छोड देने का बदला उसे मिल गया | साँप के काटने से नल बच गया, मगर कुबड़ा हो गया । वह शरीर से चाहे कुबडा हो गया मगर गुणा से वह सुन्दर ही था । गुण हो तो कुबडापन लज्जा की वात नही । अगर गुण न हुए तो रूप किस काम का | ढाक के फूल देखने मे बहुत सुन्दर होते है, और कस्तूरी काली होती Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४) (जैन पाठावली है फिर भी कस्तूरी की कद्र की जाती है । ढाक के फूलो को कौन पूछता है ? सुसुमारपुर के राजा दधिपर्ण के पास कुवडा नल रहने । लगा । वह मजेदार रसोई बनाता है। सूर्य की किरणो से । खीर बनाने की कला भी उसे आती है। किसी तरह दमयन्ती को नल का पता चल गया । उसने अपने पिता से सारी बात कही । पिता ने कोई वहाना करके दधिपर्ण को न्यौता दिया । दधिपर्ण का कुवडा रसोइया भी . साथ गया । वहां पहुंचने पर सब को विश्वास हो गया कि यही नल है। नल और दमयन्ती का फिर मिलन हुआ । धन्य है ऐसे । नल को चाहने वाली सती दमयन्ती । नल ने कुबेर से अपना राज्य फिर ले लिया । दमयन्ती फिर महारानी बन गई । कुछ दिनो वाद उसको एक बालक की प्राप्ति हुई । उसका नाम रक्खा गया-पुष्पकर । कुमार के वडा होने पर उसे राज्यगद्दी सौंपकर राजा नल और महारानी दमयती दोनो ने ही आत्मा का कल्याण किया । सुवाहुकुमार (१) धन्य धरिणी के सु-सुत, कुंवर सुबाहुकुमार, राज तजा तृणक्तु तथा तजी पांच सौ नार । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग ) (१४५ हस्तिशीर्षी नामक विशाल नगर था । वहाँ के राजा का नाम अदीनशत्रु था । उसके धारिणी नामक रानी थी । रानी की कूंख से एक पुत्र उत्पन्न हुआ । उसके लम्बे और मजबूत बाहु थे । इस कारण उसका नाम पडा-सुबाहुकुमार । "सुवाहुकुमार राजा का एकलौता बेटा था । लालन-पालन मे राजा ने कोर-कसर नही की । पढाया-लिखाया और होशियार किया । 1 कुमार जवान हो गया । शरीर जैसा स्वस्थ वैसा ही सुन्दर था । माता-पिता ने उसकी राय लेकर विवाह कर दिया । वह पुष्पचूला आदि पाँच सौ पत्नियो का स्वामी बना। उसे पाँच सौ. महल दिये गये । एक-एक महल मे एक-एक पत्नी रहती थी । सुवाहुकुमार की सभी पत्नियाँ उसे खूब चाहती थी । इस तरह दिन पर दिन बीतने लगे । एक दिन अपनी पाँच सौ पत्नियो के साथ सुबाहुकुमार वन विहार के लिये निकला । वहाँ सरोवर मे छिप कर ढूंढने का खेल चल रहा था । उसी समय सुबाहुकुमार की नजर नगर के दरवाजे की तरफ गई । चीटियो की तरह मनुष्यों का ताता लगा था। सभी लोग जल्दी-जल्दी वन की ओर बढ़े चले आ रहे थे । सुबाहुकुमार सोचने लगा-इतने सारे लोग कहाँ जा रहे होंगे ? इतने में ही सामने से दोडकर आते हुए दूत ने हाँफते - हाँफते कहा / 'युवराजजी ! भगवान् महावीर पधारे है । महाराज, महारानीजी, मत्रीजी, 'महाजन और प्रजाजन सभी भगवान् के 1 3 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (जैन पाठावली दर्शन के लिए गये हैं । महाराजा ने आपको याद किया है और यह सदेश भेजा है।' भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद की यह बात है। केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद भगवान् तीर्थ की रचना कर चुके थे । इस समय वे अपने उपदेश और जीवनव्यवहार के द्वारा प्रकाश फैला रहे थे । सुवाहुकुमार, भगवान् की कीर्ति पहले ही सुन चुके थे। साक्षात् दर्शन नही हुए थे और न उपदेश ही सुना था । सुवाहुकुमार को एकदम जिज्ञासा उत्तन्न हुई। रमणियो के बीच क्रीडा करने वाले सुबाहुकुमार तत्काल सावधान हो गय । दलदल में फंसे हाथी को कोई वाहर निकाल दे तो हाथी को जैमा आन द होत' है, वैमा ही आनन्द सुवाहुकुमार को हुआ । वह भगवान् के पास गय । उम शान्त, दान्त, कान्त और आनन्दकन्द मूर्ति को देखते ही सुबाहुकुमार को पूर्व भव का स्मरण हो आया । उमने जान लिया कि वह पहले भव मे सुमुख नामक गाथापति था । धर्मघोष मुनि के सुशिप्य सुदत्त मुनि के साथ उपका समागम हुआ। उसने भावपूर्वक उन तपस्वी को भिक्षा दो थी। इस दृश्य की स्मृति के साथ ही साथ उसके दिल में वैराग्य भडक उठा । वासना के सस्कार भस्म होने लगे 1 उसने उपदेश सुना । और सव चले गये किन्तु सुवाहुकुमार का जी भगवान को छोड़ने को ही नही चाहता था,।, आँखो से प्रेमाश्रु Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग ) ( १४७ W को धारा बहने लगी । भगवान् ने सुबाहुकुमार की भक्ति देखकर पूछा - 'सुवाहु |" तुम्हारी क्या इच्छा है ? गद्गद कण्ठ से सुबाहु ने कहा- 'प्रभो । आपके सत्सग में निरतर रहकर पूर्ण साधुता का पालन करना योग्य है, लेकिन इस समय में अपनी शक्ति के अनुसार गृहस्थधर्म को स्वीकार करता हूँ ।' भगवान् ने उत्तर दिया- ' जैसी तेरी इच्छा ।' सुबाहुकुमार सपूर्ण दीक्षा लेने के लिए छटपटा रहा था; मगर उसने पहले श्रावक की दीक्षा ली । 7 वह घर गया पर चित्त उसका भगवान् मे ही लगा था । उसकी नस-नस में वैराग्य रम रहा था। उसकी पांच सौ स्त्रियो ने उसे वैराग्य से हटाकर राग की ओर खीचने का प्रयत्न किया । सुबाहु के सामने उन्हीं की हार हुई । वह सासारिक इच्छाओ से उदासीन रहने लगा | उसकी ज्ञानमय श्रद्धा दिनो दिन बढने लगी । tom सुबाहुकुमार (२) f विहार करते-करते भगवान् महावीर फिर उसी नगर में पधारे । सुबाहुकुमार के आनन्द का पार न रहा । वह प्रभु को वन्दना करने के लिए गया । भगवान् के सामने उसने अपनी इच्छा प्रकट की । भगवान् ने उसकी स्थिति देखकर कहा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १४८) ( जैन पाठावली 'यथासुख देवानु प्रिय ! अब प्रतिबन्ध त हो ।' ऐसा कह कर प्रेरणा दी। पत्नियो से आज्ञा लेने में उसे देर न लगी । फिर वह अपने माता-पिता के पास आया और नमस्कार करके बोला'पूज्य माताजी और पिताजी ! मै दीक्षा ग्रहण करके मनुष्यजन्म को पूरी तरह सार्थक करना चाहता हूँ।' पिता ने कहा-बेटा! 'तूं अकेला ही मेरा सहारा है । हमारे बुढापे मे तुझे हमारी सेवा करनी चाहिए। राजगद्दी का भार संभाल कर प्रजा का पालन करना चाहिए। दीक्षा लेने से ही , मनुष्य-जन्म सार्थक होता है और दीक्षा लिये विना कल्याण हो ही नहीं सकता ऐसा- भगवान् का कहना नहीं है। गृहस्थाश्रम मे रह कर कर्तव्य का पालन कर। अभी तूं छोटा है । जब बड़ा हो जाय तो भले सयम धारण करना । तूं पाँच सौ पलियों का स्वामी है । अभी घर में पालना भी नही बंधा है। तेरी मतान देखने पर हमारे नेत्र शीतल होगे । वत्स | तेरे जैसे सपूत बेटे भी मां-बाप को छोड जाएँगे तो दुनियाँ रसातल मे नही चली जायगी ?' इतना कहते-कहते पिता का गला भर आया। कुमार ने कहा- 'पिताजी | आपको दुखी करके में नहीं जाना चाहता । इसीलिये तो आरके चरणो मे गिर कर प्रार्थना कर रहा हूँ। संतान का होना या न होना कोई महत्त्व की बात नही है। फिर सतान होकर भी जिंदा रहे या ना रहे, अच्छी निकले या खराब, यह कौन जानता है ? इसलिए 'सतान का भरोसा करके बैठना उचित नहीं है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - तृतीय भाग) (१४६ गृहस्थाश्रम में रहकर भी कदाचित् कल्याण की साधना हो सकती है । ऐसी साधना करने वाले वेष से गृहस्थाश्रमी होगे मगर भावना से तो वे भी साधु ही रहे होगे। पिताजी! अपका बुढापा मेरी पत्नियाँ सेवा द्वारा अवश्य सुधारेगी। ऐसा कहकर में जबाबदारी से छुटकारा नही पाना चाहता । मैं अपने हृदय के सच्चे वेग का इस अनुपम समय पर उपयोग कर डालने के - लिए कहता हूँ । पिताजी । इस छोटे-से राज्य की धुरा ,को धारण करने के बदले में विश्व-राज्य धुरा को धारण कर सकू, इसके लिए मुझे आप आशीर्वाद दीजिए । ऐसा बनने के लिए मुझे तुरत जाना चाहिए । यहाँ पल भर का भी कहाँ भरोसा है? मौत किसे छोडती है ? और कौन जाने वह कब झपट्टा __मार दे?'' - . . पुत्र के. विनय और वैराग्य से भरे वचन · सुनकर पिता पिघल गये । उन्होने आशीर्वाद के साथ दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी। मगर माता का मन अब भी नही मानता था। माता न कहा-'बेटा | माता के हृदय मे पुत्र-स्नेह का अखड झरना चहत्ता रहता है । तूं इस बात को कैसे समझ सकता है ? इसे अनुभव करने वाला ही समझ सकता है । जव सतान। गर्भ मे जाती है तभी से माता-पिता का सतान के साथ देह और मन के द्वारा सबधा जुड़ जाता है । सतान कैसी ही क्यो न हो, फिर भी मेरा लाल' कहकर पगले, कान-कबडे पुत्र के माथे पराभी माता तो प्यार का हाथ फेरती ही है। तो फिर तेरे जैसे पुत्ररत्न Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०) (जैन पाठावली के वियोग-को हम-किस तरह सहन करेगे ? माता के हृदय का विचार तो कर । उतावल मत कर।' ' यो कहते-कहते माता की आँखें भर आई । माता के आँसू देखकर सुबाहुकुमार कुछ पसीज गया। यह देख माता आगे बढकर कहने लगी-'मेरे लाल ! इतना होने पर भी मैं तुझे सयम से हटाना नही चाहती । ऐसा करूंगी तो मैं अपने कर्त्तव्य से गिर जाऊँगी । इसलिए मै अपने वात्सल्य को हृदय मे दवा कर, मुझे जो कुछ कहना चाहिए वही कहती हूँ। भगवान् महावीर का शासन विश्व की तरह विशाल है । और जितना विशाल है उतना ही कठिन भी है । तूंने श्रावक के व्रतो को दिपाया है मगर साधु का उत्तरदायित्व बहुत अधिक है । तूंने वासना पर तो विजय पा ली है मगर स्नेह को भी तुझे जीतना होगा । समभाव मे स्थिर होने की साधना सरल नही है । एक तरफ क्रोध और मान तथा दूसरी तरफ माया और लोभ । इन सब प्रबल विकारो के सामने टिकने के लिए तप, त्याग, ज्ञान और अखंड ध्यान की आवश्यकता पडेगी । इस तरह आगे बढने पर भय तो अन्त तक खडा हुआ ही है । इस वेडे को पार लगाने के लिए भारी प्रयत्न करना पडेगा । बेटा । भगवान् को सर्वस्व अर्पण करके उन्ही की शरण में रहना । यह समर्पण-वृत्ति तुझे मुसीवत के प्रत्येक मौके पर सहायक होगी। इच्छा है तो जा बेटा । मै अन्त करण से मागीर्वाद देती हूँ ।' Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) (१५१ माता की प्रेरणा और आशीष से सुबाहकुमार मे अद्भुत शक्ति आ गई । सुबाहकुमार की दीक्षा की तैयारी होने लगी। प्रजा ने हृदय से सहकार दिया । बड़े ठाट-बाट के साथ सुबाहकुमार सब के साथ भगवान् महावीर के पास पहुंचे । ___ सुवाहुकुमार ने पाँच महाव्रतो, पांच समितियो और तोन गुप्तियो का पालन करने की प्रतिज्ञा ली। सुवाहुकुमार ने सिंह की तरह ही प्रतिज्ञा ली और सिह की तरह ही उसका पालन किया। पांच सौ रमणियो और राजपाट का त्याग करने वाले सुबहुकुमार धन्य हैं । टिप्पण-उस युग मे राजा और श्रीमन्त लोग अनेक स्त्रियो को व्याहते थे । उस युग में स्त्रियो की संख्या अधिक होगी या प्रजा में अधिक पुत्रोत्पत्ति की आवश्यकता होगी। धार्मिक मान्यता भी उस समय ऐसी थी कि अपुत्रस्य गति स्ति, स्वर्गो नैव च नैव च । अर्थ-पुत्ररहित को सद्गति नही होती और स्वर्ग तो मिलता ही नही। यह झूठी मान्यता भी भगवान् महावीर ने मिटा दी । अत अब 'एक पत्नीव्रत' का ही महत्त्व है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलभद्र +ISHS कोगा में अनुरक्त हो, चेते फिर धीमान् । कोशा के प्रेरकाबने, स्थूलभद्र भगवान् ॥ .. एक था नगर । उसका नाम'' पाटलीपुत्र । वहाँ नन्द राजा राज्य करते थे । वहाँ बहुत से कुएं, बावडियाँ और तालाब थे। पास में ही मजेकी नदी बहती थी। नगर के चहुँ ओर बगीचे थे, वाटिका थी और खेतथे । पानी का सुख था । अनाज का सुख था । उसकी सुन्दरता का क्या पूछना । और वहाँ को आवादा खूब थी । उस नगर में शकडाल मन्त्री रहता था। उसके दो लडके थे। बडे का नाम -स्थूलभद्र और छोटे का नाम श्रयक -था। मन्त्री ने स्थूलभद्र को पढने- भेजा । वह अक्षर विद्या सीख गया । सगीत भी सीख गया । व्याकरण, गणित, साहित्य और तत्त्वज्ञान भी सीखा । इसके बाद उसे नृत्यकला का शौक लगा। उसी नगर में रहती थी एक गणिका । उसका नाम कोशा था । कोशा के गले का क्या पूछना | कितना सुन्दर था उमका आलाप । नृत्य कला में तो कोशा की जोडी ही नहीं मिल सकती थी। प्रथम तो स्त्री और फिर मीठा कण्ठ | उसका सगीत शास्त्रीय ढंग का था। नृत्यकला में कुशल होने से कोई Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) १५३ सर हो नही रह गई थी। भले भले लोग भी कोशा की तरफ ललचाते थे । - जिसने कोशा का नृत्य नही देखा वह अपने मापको अधन्य मानता। स्थूलभद्र इसी कोशा से नृत्यकला तीखने लगा। स्थूलभद्र को नृत्य की वडी धुन लगी। नृत्य की ओर उसकी खूब रुचि बढी। रात-दिन वह इसी विचार में डूबा रहता । कोशा को तो अनेक ग्राहको को रिझाना पड़ता था । रह ज्यादा फुर्सत कैसे पाती ? स्थूलभद्र को नृत्य सीखना था रह कोशा के पास जाकर भी सीखता था। माता-पिता को उसका वहाँ जाना अच्छा नहीं लगता। लेकिन पुत्र के कला म को देखकर और बडा लडका है. इस बात का विचार करके वे ज्यादा कुछ कह नही सकते थे । स्थूलभद्र कभी-कभी रात में भी कोशा के घर पर ही रह जाता था। इस तरह कई वर्ष व्यतीत हो गये। । अब स्यलभद्र के शरीर मे जवानी आ गई थी। अभी तक स्थूलभद्र कोशा के यहाँ कला का पुजारी था। अव वह उसके शरीर की सुन्दरता पर भी ललचाया। कोशा का प्रेम भी स्थूलभद्र पर बढने लगा। स्थूलभद्र भूल गया। कोशा भी भूली। शिक्षिका और शिष्य के बीच की पवित्रता समाप्त हो गई। दोनो पति-पत्नी की तरह रहने लगे। कोशा के पास ग्राहक आते, पर धन्धे मे उसका चित्त Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४) (जैन पाठावली नही लगता । उसका चित्त स्थूलभद्र मे ही लगा था। यह बात जग-जाहिर हो गई थी। कोशा को स्थूलभद्र मे स्वर्ग दिखाई देता और स्थूलभद्र को कोशा के बिना सारा संसार सूना । लगता था। दोनो के दिल साथ-साथ धडकते थे।। कैसी अटूट प्रीति । मगर भीतर मोह था । अमृत के बूदो मे जहर मिला हुआ था। दोनो उस जहर को पीते फिर भी उन्हे सतोष नही था। उनकी आसक्ति वढती गई। आग में घी होमने से आग कमी तृप्त नही होती। मृगजल से कभी प्यास बुझ सकती है ? ___ कोशा के घर रहते-रहते बारह वर्ष बीत गये । एक दिन एक सेवक ने आकर खबर दी कि आपके पिताजी बीमार पड़े हैं । पिता, पुत्र को देखने के लिए तरस रहा था पर भेजे हुए सदेश वृथा जाते थे। गणिका के मोह मे फँसकर स्थूलभद्र ने पिताजी की विमारी की भी परवाह नहीं की। यहाँ तक कि अन्तिम सेवा का लाभ लेने की भी परवाह नहीं की। वीमारी बढ़ गई। मृत्यु का समय आ गया । अब का वार खास आदमी के साथ स्थूलभद्र को बुलावा भेजा गया । पिनाजी ने कहलाया- 'वेटा स्थूल | मिर्फ मुंह दिखाकर वापिस लोट जाना' मगर स्यूलभद्र इस संदेश को भी पी गया । उसके लिए तो कोगा ही सर्वस्व थी। मनुष्य जब मोह से अन्धा हो जाता है तो मनुष्यता को भी भूल जाता है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - तृतीय भाग) (१५५ मत्री शकडाल की मृत्यु हो गई। लम्वी श्मशान यात्रा निकली। कोशा के महल के नीचे से शव गुजरा। इस समय स्थूलभद्र कोशा का संगीत सुन रहा था। रास्ते में लोगो की आवाज सुनाई दी। इस आवाज से अपने मजे में बाधा पड़ी देखकर वह बड़-बडाने लगा लोग कितने मूर्ख हैं । किलविलकिलविल मचा रहे हैं। इस तरह कहता हुआ वह छज्जे मे आया। अपने भाई श्रयक को अर्थी में लगा देखा। पूछताछ करने पर पता चला कि पिताजी परलोक सिधार गये हैं यह जानकर स्थूलभद्र चौंक उठा। उसका हृदय काँपने लगा । सोचा-'हाय ! मै कितना अधर्मी हूँ ? पिताजी का शव श्मशान में जा रहा है और में विषय-रस मे डूबा हूँ। धिक्कार है मुझे ।' बहुत सी समर्थ आत्माएँ ऐसी होती हैं, जो एक ही घटना से जाग उठती है । स्थूलभद्र उन्ही मे से थे । वह जाग उठे। वह कोशा के महल से बाहर निकल कर शव के पास गये । अर्थी में जुडे । दाहंक्रिया में भाग लिया। नन्द राजा को तो अब मालूम हुआ कि शकडाल के दूसरा लडका है । राजा ने शकडाल का मन्त्री पद स्थलभद्र को सौंपने की इच्छा प्रकट की । लेकिन स्थलभद तो जाग चुके थे। दुनिया के राग-रगो की ओर से उनका चित्त हट गया था । उन्होंने मत्री का पद स्वीकार नहीं किया। सभूतिविजय नामक मुनिराज से चारित्र अगीकार करके उन्होने अपने जीवन की दिशा बदल डाली। उन्होने उसी तरफ अपनी शक्ति मोड दी। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन पाठावली. स्थूलभद्र भोगी मिटकर त्यागी बने । देहविलासी की जगह आत्मविलासी बने । उन्होने कला के सच्चे आत्मा को पहिचान लिया । असली सुन्दरता का मूल परख लिया । इस आनन्द का अनुभव करते- करते वे मस्त हो गये। एक दिन उनके मन मे आया कोशा को भी यही आनन्द चखाऊँ तो कितना अच्छा हो ।' उन्होने अपने मन की यह बात गुरु के. सामने कही । गुरु स्थूलभद्र को समझ चुके थे। उन्होने कहाभले देवानप्रिय । यह चौमासा वही बिताओ। आनन्द से जाओ और तुम्हारे निमित्त से कोशा का भी कल्याण हो। ' गुरुजी की आज्ञा मिल गई । अन्त करण का आशीर्वाद भी मिल गया । स्थूलभद्र कोशा के महल में आये । । स्थलभद्र के दीक्षा लेने पर कोशा को बहुत बुरा लगा था। उसके विरह के दुख से वह झुलस-सी गई थी। आज: उसने स्थूलभद्र को साधु के वेष में ही सही, पर देख पाया । उसके हर्ष का पार न रहा । पहले के प्रसंग याद आ गये । दिल उमड आया । पर मुनिके मन में ऐसी कोई बात नही थी । उन्होने आज्ञा लेकर को गा के महल में ही निवास किया । दिन बीतते चले गए । मुनि अपने ता, त्याग और ध्यान में मस्त थे । कोशा की इच्छा पूरी नही हुई, अत वह आकुल-व्याकुल होन। लगी । वह स्थूलभद्र को फिर अपना प्यारा वनान" चाहती है । लेकिन स्थूलभद्र का तेज देखकर उसकी जीभ नहीं खुलती। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) कोशा सिंगार सजती है । हावभाव दिखाती है । सुगन्ध महकाती है । सिंगार-वर्धक चित्र टागती है । वढिया स्वर से शृगारमय गाना गाती है, नृत्य करती है। लेकिन, मुनि” का तो एक भी रोम नही फडकता। - जहाँ भोग भोगे वही ऐसा अद्भुत त्याग । धन्य हैं . मुनिराज स्यूलभद्र । निरख-निरख नव यौवना, लेश न विषय निदान । आत्मा को देखे अहा ! ते भगवान् समान॥ ___स्थूलभद्र सचमुच इस विषय में भगवान् के समान थे। ___ अन्त में कोशा हार गई। मनि ने मौका देखकर उसे उपदेश दिया-'कोशा | इस चमडी मे रम नही है, रक्त या मास में भी रस नहीं है। रस तो आत्मा में है।' इतने-से शब्दो से हो कोशा पिघल गई । आत्मा के तेज के सामने कौंन नहीं पिघल जाता? कोशा अब श्राविका बन गई। वनों. और नियमो का पालन करने लगी । वह आत्मा का ध्यान करनी है और ऊंचीऊंची चढती जाती है । स्थूलभद्र का काम पूरा हो गया। जिस कोशा को शरीर की तरफ खीचा था, उसे अब आत्मा की तरफ खीच लिया । ऋण चुका दिया । स्थूलभद्र को खूब सतोष हुआ। वह गुरु के पास आये और चरणों मे मस्तक' झुकाया । दूसरे शिष्य भी आये। उन्होंने भी गुरुजी को वन्दना Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८) (जैन पाठावली की । कोई गेर की गुफा के पास : चौमासा बिताकर आये थे, कोई साँप की बाबी के निकट रहे थे। किसी-किसी ने कोर तप किया था। गुरुजी ने सब का वृत्तान्त सुनकर कहा-'अच्छा किया ।' स्थूलभद्र के लिए कहा-'बहुत अच्छा किया ।' यह सुन कर दुसरे शिप्यो के चेहरे बदल गए । मन ही मन उन्होने कहा-, गुरु कितने पक्षपाती है । गुरुजी समझ गये । दूसरा चौमासा आने पर उन्हें भी ऐमा ही अनुभव करने का अवसर दिया । सकटो को मह लेना सरल है, पर प्रलोभनो को जीतना बड़ा कठिन है। सिह की गुफा मे रहना सरल है किन्तु जवान कामिनी स्त्री के सामने अडिग रहना कठिन है । अनुभव से सब को इस बात पर विश्वास हो गया। कोशा तो अब अडिग हो चुकी थी। मुनि डिगे पर कोशा नही डिगी। मुनि हार कर लौटे । उनके मुंह से यह उद्गार, निकल पडे - भगवान् स्थूलभद्रधन्य है । उनके स्वर मे स्वर मिलकर हम भी कहते हैं __भगवान् स्थूलभद्र धन्य है ? कोशा के मन्दिर मध्य, रहे मुनि स्थूलभद्र, वेश्या संग वास तो भी हुए नहीं विहारी। - हए नहीं विकारी, उनको वन्दना हमारी, देखो अरे देखो जैनों, कैसे व्रतधारी ।। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेम-राजुल नवयुवक सुन्दर नेमजी, राजमती वरने गये, आक्रन्द सुन पशु-पक्षियों का लौटकर त्यागी हुए ! कल्याण निज-पर का किया, संयम हृदय मे धार कर। कू हू . . हू .....फि.. फी......हि .हि...... ____ अरे । यह तो दिव्य पाञ्चजन्य शख की आवाज है । श्रीकृष्ण वासुदेव के सिवाय और कौन यह शख फूक सकता है ? लेकिन वासुदेव तो कचहरी मे बैठे है । तो फिर किसने यह आवाज की है ? लोग चकित होकर आपस में बाचीत करने लगे। वासुदेव भी सोच-विचार मे पड़े हुए थे । उसी समय हाँफता-हांफता एक आदमी आ पहुंचा। वासुदेव बोले-शखरक्षक । किसने शंख बजाया है ? शखरक्षक ने सास लेने के बाद कहा-श्री नेमिकुमार ने । इन नेमिकुमार का असली नाम अरिष्टनेमि था । लोग इन्हे नेमिनाथ भी कहते थे । उनकी माता का नाम शिवादेवी छोटे भाई का नाम रथनेमि और पिता का नाम समुद्रविजय था। समुद्रविजय, के उनसे छोटे नौ भाई और थे । उनमें सब से छोटे वसुदेव थे । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ) ( जैन पाठावली वसुदेव की अनेक स्त्रियाँ थी । उनमे से रोहिणी की कूंख से बलदेव उत्पन्न हुए और देवकी से श्रीकृष्ण का जन्म हुआ इस प्रकार नेमिनाथ, श्रीकृष्ण चचेरे भाई थे । पाँचजन्य शख को वासुदेव के सिवाय कोई उठा भी नहीं सकता था । वजाने की तो बात अलग रही । इसी कारण जंव नेमिनाथ ने 'शख वजाया तो सब अचरज में पड गये । 'मगर नेमिनाथ के लिये वह खिलवाड था । } एक वार वासुदेव ने अपना हाथ नगाने के लिये कह कर उनके वल की दूसरी बार परीक्षा कर ली । नेमिनाथ न वासुदेव का हाथनमा दिया मगर वासुदेव उनका हाथ नही नमा सके | नेमिनाथ, 'वासुदेव से उम्र मे छोटे थे किन्तु बल में as थे | · नेमिनाथ के बल की सभी जगह प्रशसा होती थी। वह जैसे बलवान् थे, वैसे ही सुन्दर थे । चासुदेव का सत्यभामा आदि स्त्रियो के साथ विवाह हुआ था । नेमिनाथ कुँवारे थे । माता-पिता की पुत्र को व्याहने की लालसा थी । लेकिन पुत्र की 1 # इच्छा के विरूद्ध वे कोई काम करने के लिए तैयार नही थे । अव वासुदेव के मन में आया कि छोटे भाई का विवाह करना चाहिए । एक बार उन्होने अपनी रानियो से इस विषय मे वातचीत की। भोजाइयो ने कई उपायो से देवर को मना लिया । राजा उग्रसेन की पुत्री के साथ सगाई हो गई । पुत्री का नाम था राजीमती । राजीमती तो बस राजीमती ही थी । सरस्वती V Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( तृतीय भाग १६१) भी उसकी शोभा का वर्णन करते-करते थक जाती । राजीमती का लाड का नाम राजुल था । राजुल के गुणो की गिनती नही हो सकती थी । जैसे वर वैसी ही वधू । यह जोडी धन्य है । 1 1 'शुभ मुहूर्त निकलवाया गया । आखिर विवाह का दिन आ पहुँचा। सौरीपुर में आज आनन्द ही आनन्द छाया हुआ था । बरात रवाना हुई । सब से आगे शहनाइयाँ मधुर स्वर मे बज रही थी । ढोल गडगडा रहे थे । तासे अलग ही राग आलाप रहे थे । तरह-तरह के बाजे बज रहे थे । उनके पीछे सेकडो घोडेस्वार कलैया कुमार शान के साथ चल रहे थे । फिर हाथीसवार और पैदलो की विशाल सेना चल रही थी । इस सेना के बीचो-बीच समुद्र के फेन के समान सफेद घोडो वाला और खूब सजाया हुआ रथ था । इस रथ में दूल्हा बने नेमकुमार सुशोभित हो रहे थे । मस्तक पर उत्तम छत्र दीप्त हो रहा था। दोनो तरफ चँवर ढोरे जा रहे थे । उनके सिंगार का क्या पूछना | उनके तेज की बात ही न्यारी है । रथ के पीछेपीछे यादव कुल की नारियाँ तथा नागरिक नारियाँ मधुर और कोमल कुठ से मगल-गीत गाती जा रही थी । कोई-कोई सवारियो पर सवार थी और कोई-कोई पैदल चल रही थी । इनके पीछे यादवो का और नागरिक जनो का विशाल समूह था । बुढियाएँ और नौकर-चाकर अपने-अपने घरोसे वरात को देखते थे । बाकी सारा नगर बरात की शोभा देखने के लिए चबूतरो T C 4 पर खडा था । H Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२) (जैन पाठावली । उधर राजा उग्रसेन ने भी बडी भारी तैयारी की। जहाँ समुद्रविजय जैसे समधी हो और वासुदेव जैसे बराती हो तो उनके स्वागत की तैयारीयाँ भी वैसी ही होनी चाहिए । वरात धीरे धीरे चलती हुई उग्रसेन राजा के महल के पास आ पहुंची। सामने के छज्जे मे, राजीमती सोलह सिंगार सज कर वैठी थी। उसकी सखियाँ भी नेमिकुमार को देख रही थी। उनमें से एक ने कहा-धन्य है सखी, तुम्हारा सफल जीवन धन्य है | नेमिकुमार जैसे नाथ मिलना अहोभाग्य की बात है । दूसरी सखी बोली-जिसने पूर्व जन्म मे बहुत पुण्य किया हो, उसी को ऐसे प्रियतम मिल सकते हैं। तव तीसरी सखी ने कहा-मगर राजुल जैसी प्रियतमा पाने वाला क्या कम पुण्यशाली है ? (इस प्रकार सखियां आपस मे बतचीत कर रही हैं। राजीमती के हर्ष का पार नही है । ) इसी समय नेमिनाथ का रथ वापिस लौट पडा। रग में भग हो गया । राजुल और उनकी सखियां भी हैरान थी। हो क्या गया ? मालूम हुआ-नेमिनाथ पशुओ की पुकार सुनकर विरक्त हो गये है । वे अव विवाह नहीं करेगे। बात यो हुई । वरातियो में कोई मामाहारी भी हो । सकता है । यह खयाल करके उग्रसेन ने पशुओ और पक्षियो को भंगवा कर वाड में और पीजरो मे बन्द कर रखा था। इन Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) पशु पक्षियो की करुण पुकार नेमिनाथ के कानो में पड़ी। उन्होने सारथी को रथ खडा करने की आज्ञा दी। पूछने पर मालूम हुआ कि यह सब पशु-पक्षी बरातियो के भोजन के लिए है। नेमिनाथ ने विचार किया-'अहो ! मेरे निमित्त यह पाप । यह विचारते-विचारते नेमिनाथ का हृदय उमड आया । दया के कारण उनकी आँखो मे आँसू आ गये। __ दूसरो को खुश करने के लिए मनुष्य कितना अनर्थ कर बैठता है । नेमिनाथ यह सोचते-सोचते बहुत गहराई तक पहुँच' गये । मै किस लिए विवाह करता हूँ ? विवाह से मुझको या ससार को क्या लाभ होगा? सतान प्राप्त होगी ? लेकिन सतान के लिये शक्ति लगाने की अपेक्षा आत्मकल्याण में शक्ति क्यो न लगाई जाय ? आत्मकल्याण के मार्ग में स्थिर हुए विना कुटुम्ब, समाज, देश या विश्व का उद्धार कैसे हो सकता है ? इस तरह सोचकर रथ वापिस लौटाया । नेमिनाथ, राजुल के पति बनने के बदले मुक्ति सुन्दरी के पति बनने के लिए तैयार हुए। राजुल यह खबर सुनकर बेहोश होकर गिर पडी । काले भौरे के समान बालो का जुडा खुल गया । वेणी जमीन पर लोटाने लगी । आभूषण फीक पड़ गए। उसकी सखियाँ हवा करने लगी और ढाढस बंधाने लगी। थोड़ी देर मे राजुल होश में आई । इतने में माता-पिता भी आ पहुचे । उन्होने कहाविटिया ! चिन्ता मत कर । हम इससे भी अधिक सुन्दर वर खोज निकालेगे । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (जैन पाठावली राजुल अब उत्तम विचार पर पहुंच गई थी । उसे माता पिता की यह बात नही रुची। वह धीमे स्वर से बोलीमाताजी और पिताजी । विवाह करूंगी तो इन्ही के साथ, नहीं तो नही । ससार के दूसरे पुरुष मेरे भाई और पिता हैं।' अहा । कितनी श्रेष्ठ है यह भाषा | और यह भाषा सिर्फ कहने के लिए नहीं थी। यह तो राजुल का पक्का निश्चय था। . अब किसमें साहस था जो राजल की मगनी कर सके ? माता-पिता ने भी कन्या के विवाह का विचार छोड़ दिया। राजुल कुँवारी रही । राजुल की टेक धन्य है । मुंह में आया कौर छिन गया । फिर भी सतोप मानने वाली राजुल को हजारो वन्दना ! नेमि-राजुल (२) राजुल अब सतियो के सुन्दर जीवन चरित्र पढ़ने में अपना समय बिताती है और कुमारिका-व्रत पालती है। दान ही अव उसका आभूपण है । गील ही उसका सिंगार है। नेमिनाथ ने एक वर्ष तक खुले हाथो दान दिया। उसके बाद दीक्षा ले ली। रैवतक (गिरनार) पर्वत पर बहुत से साधुओ के साथ जाते हैं। नगै पैरो चलते हैं। भिक्षा मे जो कुछ भी रूखा-मूत्रा मिल जाता है उसी से अपना निर्वाह । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) करते हैं । प्राणीमात्र को अपनी आत्मा के समान समझते हैं । सत्य बोलते हैं। ब्रह्मचर्य पालते है। तप और ध्यान में मग्न रहते हैं। इस तरह साधुता का पालन करते रहने से मोह का वृक्ष समूल भस्म हो जाता है। उन्हे केवलज्ञान प्राप्त होता है । अब वे गाँव-गाँव घूमकर लोगो को उपदेश देते हैं। चार तीर्थों की स्थापना करते हैं। इस कारण वे तीर्थङ्कर कहलाते है । वही बाईसवे तीर्थकर भगवान् अरिष्टनेमि हैं। राजुल ने भी अपने पति का मार्ग स्वीकार किया। उसने अपने बडो-बढ़ो और वासुदेव जैसो के आशीर्वाद प्राप्त किये । उसने भगवान नेमिनाथ के पास दीक्षा ली। राजुल के साथ और भी बहुतेरी बहिने दीक्षित हुई। पति के पथ पर विचरनेवाली कुमारी राजुल धन्य है । , इस जोड़ी ने दाम्पत्य की सच्चो सफलता साधी । राजुल साध्वी सैकडो साध्वियो के साथ विचरने लगी। वह तप और संयम से अत्यन्त पावन होकर पृथ्वी को पवित्र करने लगी। - एक बार वह गिरनार पर गई । इतने में वर्षा होने लगी अपने भीगे वस्त्रो को सुखाने के लिए उन्होने एक गुफा का आश्रय लिया। वस्त्र हटा दिये। शरीर उघाडा हो गया । सयोगवश उसी गुफा में रथनेमि बैठे थे। अन्धकार के कारण रार्जुल उन्हे देख नही सकी थी। रथनेमि राजुल का रूप देखकर मोहित हो गए और मोह के वचन कहने लगे। । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६) (जैन पाठावली राजीमती ने उत्तर में कहा-साधुजी ! जरा अपने वेर की तरफ तो देखो। तुम किसके पुत्र हो ? तनिक अपने कुल के मर्यादा को सोचो। तुम उन भगवान् नेमिनाथ के छोटे भाई हो जिन्हे विवाह के समय वैराग्य हुआ था | आज वे भगवान् है गरे हैं। वही मेरे मस्तक के छत्र है । वही तुम्हारे बडे भाई हैं जैसे उन्होने भोग-विलास का त्याग किया है, उसी तरह तुमने भी भर जवानी में त्याग का मार्ग ग्रहण किया है। योगीराज ! इस काया में रखा क्या है ? मल-मूत्र और बदबू से भरी यह देह-रूपी थैली चैतन्य के बिना निकम्मी है । इम चैतन्य के अमली स्वरूप को पाने के लिए ही आप सन्त बने हैं। इसी के लिए मै साध्वी बनी हूँ। हाथी की अम्बारी त्यागकर कौन गये पर सवार होना चाहेगा? एक बार वमन की हुई चीज को कौन खाने की इच्छा करेगा ? कीडे की तरह विपय-भोग मे किलविलाते रहने की अपेक्षा तुम्हारे लिए अपघात कर लेना कही उत्तम है। मुनिराज । यह विपले वचन और विचार आपके पवित्र दिमाग में किस प्रकार घुसे ? अहा } कितनी अद्भुत और तेजस्वी वाणी है । रथनेमि का पतन होते-होते रह गया । वह बार-बार सती का उपकार मानने लगा । उसने कहा-धन्य हो, नारीजाति के कीति-कलश । तुम धन्य हो । साध्वी हो तो ऐसी ही हो। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग ) (१६७ इस प्रकार राजीमती ने अपना भी कल्याण किया और कितने ही दूसरे जीवो का भी कल्याण किया । भगवान् नेमिनाथ ने भी मोक्ष प्राप्त किया । 1 वन्दन हो भगवान् नेमिनाथ को । अगणित वन्दना हो इस प्रेरणा- दायिनी साध्वी गजुल को ! वीर धन्ना (१) * धीरज विनय मति का खजाना वीर धन्ना धन्य है, जाये जहाँ संपद बढे सौभाग्यवान् अनन्य है 1 अपने विरोधी वन्धुओं की भी मदद करता रहा, सामान्य कारण या तपस्वी साधु श्रेष्ठ बना अहा ! - दक्षिण देश मे गोदावरी नदी है । उसके किनारे पौंडन नामक नगर था । उस नगर मे धनसार नाम के सेठ रहते थे । ' उनके चार लड़के थे । उनमें सब से छोटे का नाम धन्ना था । धन्ना बहुत भाग्यशाली था । उसके कदम-कदम मे धन था। वह जहाँ कही जाता, चैन की वशी बजने लगती । 1 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८) (जैन पाठावली धन्ना सवका प्यारा था। बुद्धि का सागर था। विनय मे पूरा था। ऐसे धन्ना का सभी बखान करते थे । मगर उसके बडे भाइयो को उसकी तारीफ नही रुचती थी। वे लोग हमेशा अपने पिता से झगड़ते और कहते-बस, आपतो धन्ना को ही सभी कुछ समझते हैं। आपके लिए अकेला धन्ना चतुर है और हम सब पागल हैं । धन्ना इतना बडा हो गया है, फिर भी उसे व्यापार करना तक तो आता नही। हम व्यापार करते है, कमाते है। इसी से धन्ना खाता, पिता और मौज करता है । लेकिन आप धन्ना की ही तारीफ के पुल बाँधा करते है । पिता ने सोचा-इन सब के चित्त मे डाह है। चलो एक बार परीक्षा कर लूं। तभी इन्हे पता चलेगा कि धन्ना कितना होशियार है। ___ उन्ही दिनो गोदावरी मे किराने का एक बडा जहाज आया। किराना वहुत कीमती था, मगर जहाज का मालिक रास्ते मे मर गया था। अत उस जहाज पर राजा का अधिकार हो गया। राजा ने व्यापारियो को बुलाया। धनमार सेठ को भी कहलाया । धनसार सेठ ने सोचा-मोका अच्छा है। उसने अपने सब लडको को बुलाकर कहा--राजा का जहाज आया है। मव व्यापारी जा रहे हैं। किराने खरीदने के लिए अपने से भी कहा गया है । कहो, कौन जायगा ? Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भागः) ईर्षाल लडको ने कहा-भेजो न अपने धन्ना को, पता 'चल जायगा कि कैसा व्यापार करना जानता है । .पिता ने धन्ना से कहा-अच्छा, बेटा तू ही जा। धन्ना ने पिता की आज्ञा स्वीकार की। साथ मे रकम लेकर वह किराना खरीदने चल दिया । व्यापारी इकट्ठे हुए । ऐसा चढाव-उतार हुआ कि न पूछो वात | केशर, कस्तूरी, कपूर आदि तो बिक गया, रह गया खारी मिट्टी का एक ढेर-सा। व्यापारियो ने उम ढेर को खारी मिट्टी का ही ढेर समझा। किसी ने उसकी तरफ देखा तक नहीं और सब चले गये । धन्ना ने सोचा-'इस जहाज का मालिक बड़ा व्यापारी था। कीमती किराना लाया था। वह इतनी कीमती चीजो के साथ क्या दूर देश से मिट्टी लाया ? जान पडता है, यह भी कोई कीमती चीज होगी?' यह सोचकर उसने मिट्टो को चुटकी में लिया। भाग्य से उसे एक नई बात सूझ आई। वही लोहे के टुकडे पडे थे । उसने दोनो चीजो को साथ मे गर्भ किया तो सोना बन गया। फिर क्या पूछना था । धन्ना ने सारा ढेर खरीद लिया और घर ले आया । ईर्षाखोर राह देखते बैठे थे। ईर्षा कमजोर मनुष्य की निशानी है । जो दूसरे के गुणो की बरावरी नही कर सकता , वह ईर्षा करके सतोष मान लेता है। ईर्षाल पुरुष दूसरे के अव... गुण देखता है। धन्ना के भाई, ऐसे ही थे। मिट्टी के उस ढेर को देखकर वे कहने लगे-'पिताजी, देखिए। आपका धन्ना, Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (जैन पाठावली कितना बढिया किराना खरीद लाया है। हमने पहले ही नही कह दिया था कि हजरत व्यापार मे इतने चतुर हैं ।' पिता ने आकर देखा । वह उस चीज को पहचानते थे। अतएव कहा-शावास बेटा । शावास । तब दूसरे लडके कहने लगे-'हम तो पहले ही जानते थे कि पिताजी धन्ना को शाबाशी दिये बिना नहीं रहेगे। यह तो खारी मिट्टी ही लाया है । अगर मोहरे फैकर रास्ते की धूल उठा लाता तो भी लाडला लडका तो लाडला ही रहता ।' अव पिता से नहीं रहा गया। उसने कहा-नादान लडको । धन्ना तेजतुरी लाया है । तुम तो इसे पहचानते नहीं हो, इसीसे मिट्टी मान रहे हो। जरा इसकी करामत तो देखो। यह कहकर उन्होने सोना बनाकर दिखा दिया। यह करामात देखकर वे लज्जित हुए। धीरे-धीरे व्यापारी भी धन्ना की सलाह लेने लगे । धन्ना की वजह से धनसार सेठ की प्रतिष्ठा बहुत बढ गई। धन्ना की प्रशसा सारे नगर मे होने लगी। लोग कहने-'धन्ना कितना गुणी है | उसकी बुद्धिमता का तो कहना ही क्या है | उसकी विनयशीलता भी तारीफ के योग्य है !' पर ईपखिोर भाई उसकी प्रशसा सहन नहीं कर सकते थे। वे कोई न कोई कारण खोजकर धन्ना से लडते ही रहते। ____धन्ना ने सोचा--'भाइयो को दुख होता है तो मुझे इसके बीच मे से हट ही जाना चाहिए। इन्हे अवसर देना Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) (१७१ चाहिए।' सच्ची चतुराई इसी को कहते हैं। मगर धन्ना का जाना पिता को पसन्द नही था । पिता को उसने बहुत समझाया। आखिर पिताजी भी राजी हो गये। पिता को विश्वास था कि धन्ना जहाँ कहाँ भी जायगा, अपने लिए मार्ग निकाल लेगा। भाइयो ने उसे जायदाद में से कोई हिस्सा नही दिया। धना ने मांग भी नही की। उसे उसको आवश्यकता ही नहीं थी। धन्ना चल दिया। चलते-चलते राजगृह नगरी तक आ नहुंचा। जब वह नगरी में घुसने लगा तो उसने सुना कि राजा का हाथी पागल हो गया है। राजा ने घोषणा की है कि जो पुरुष हाथी को काबू में करेगा, उसकी कद्र की जायगी। धन्ना ने अपनी चतुराइ काम मे ली और थोडे साहस से काम लिया । वह हिम्मत के साथ हाथी के पास गया और स्नेह प्रकट किया । हाथी उसके स्नेह के वश में हो गया। यह देखकर राजा धन्ना पर प्रसन्न हो गया। नगर के लोगो ने उसका नाम पूछा और धन्यवाद दिया। धन्ना एकदम ही सारी राजगृह नगरी में प्रसिद्ध हो गया। राजा ने उसे बहुत सा धन दिया ! योग्य समझकर अपनी कन्या भी व्याह दी। इस प्रकार धन्ना राजगृह मे मौज करने लगा। राज्य में और प्रजा में उसका आदर बढने लगा। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर धन्ना (२) उसी नगर मे गोभद्र नामक एक सेठ रहते थे। उन्होने एक फरियाद की । आरोपी काणा था। काणा उनके गले पड गया था। सेठ करोडपति थे । काणे ने ठग-विद्या चलाई । सेठ से कुछ रकम हडपने की तरकीब रची । एक बार वह सेठ के पास गया और कहने लगा सेठजी, अपनी हजार मोहरे ले लीजिए और मेरी आँख मुझे दे दीजिए, जो मैंने आपके यहाँ गिरवी रक्खी थी। सेठ ने कहा-कही आँख भी गिरवी रक्खी जाती है ?' . पर काणे को तो गले ही पडना था। उसने झगडना शुरू कर दिया। सेठ झगडा झंझट पसन्द नही करते थे। उन्होने उसे दस हजार मोहरे देकर अपना पिंड छुडाया। परन्तु काणे की वन आई। उसेने सेठ को परख लिया। उसने और ज्यादा रकम वसूल करने के लिए ठंगाई आरम्भ की। वह बोला-'मुझे तो अपनी आँख चाहिए । में मोहरे लेकर क्या करूँगा?' इतना कहकर वह रोने लगा। चीखे मारने लगा। लोगो का झुण्ड इकट्ठा हो गया। सेठजी ने सोचा-यह काणा ऐसे माननेवाला नहीं है। अतएव उन्होने राजा के पास जाकर फरियाद की। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तृतीय भाग ) राजा विचार में पड़ गया, क्योकि बात तो साफ झूठी थी, मगर काणे को कैसे समझाया जाय ? आखिर- राजा ने अपने जमाता धन्ना को बुलाया । धन्ना के हाथ में यह मामला -सौप दिया गया। धन्ना ने अपनी बुद्धि लगाकर कहा-काणा भाई । तुम्हारी वात सच्ची होगी। सेठ आँखे गिरवी रखनेका व्यापार करते हैं। इनके यहाँ बहुत-सी आँखें होगी उनमें से तुम्हारी आँख को पहचान लेना कठिन है । इसलिए नमूने के लिए तुम अपनी दूसरी आंख दे दो तो उससे मिलान करके तुम्हारी आँख खोजी जा सके। यह सुनकर काणे का चेहरा फक हो गया। नमूने के लिए अपनी आँख निकाल कर दे तो अधा हो जाय। अखिर काणे की ठगविद्या प्रकट हो गई। ठगाई के बदले उसे दड दिया गया। गाँठ की हजार मोहरे देवर और निराश होकर घर लौट जाना पडा । सेठजी की प्रसन्नता का पार न रहा । चाह रे धन्ना का न्याय । धन्य है धन्ना की बुद्धि । राजगृही नगरी मे धन्ना की बुद्धि का डका वजने लगा। काणे जैसे लोग ठगाई की विद्या भूल गये । नगरी मे वहुत-सा सुधार हो गया। गोभद्र सेठ की एक कुंवारी कन्या थी। उसका नान सुभद्रा था। सुभद्रा का धन्नाके साथ विवाह हुआ। राजकुमारी सेठ-कुमारी तथा दूसरी छह इस प्रकार आठ कन्याओ के साथ उसका विवाह हुआ था। एक बार धन्ना अपने महल के छज्जे मे बैठा था। उसने Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४) (जैन पाठावली रास्ते मे जाते हुए तीन भिखारी देखे । उनके चेहरे उसके भाईयो जैसे थे। धन्ना ने उन्हे बुलाया। वे आये और धन्ना का ऐश्वर्य देखकर चकित रह गये। उन्होने माफी मांग कर कहा-भया, , पिताजी परलोक सिधार गये। धन खत्म हो गया। हमारी यह दशा हुई हैं। यह कर उन्होने अपने दुःख की कहानी कह सुनाई। धन्ना सज्जन था । कुल्हाडा चन्दन को काटता है पर चदन तो अपनी सुवास ही फैलाता है और कुल्हाडे को भी सुगधित करता है। अपने भाइयो के दुख का हाल सुनकर धन्ना की आँखो मे ऑसू आ गये। उसने कहा-'भाइयो । आप लोग यही ररिए । यह आपका ही घर है।' इस प्रकार आश्वासन देकर उन्हे आपने पास रख लिया और सुखी कर दिया। धना की उदार भावना धन्य है। धन्ना के गुणो की सुगन्ध दूर-दूर तक फैल गई धन्ना ने दुनिया का सुख, कीर्ति और सद्गुण प्राप्त किये। मगर उसे इससे भी आगे बढना था। जव मल कारण तयार होता है तो निमित्त कारण भी मिल जाते है । आज सुभद्रा धन्ना को नहला रही है। नहलाते-नहलाते उसे अपने भाई की याद आ गई। पिता गोभद्र सेठ और माता भद्रा का पुत्र शालिभद्र ही सुभद्रा का सगा भाई था । शालिभद्र दीक्षा लेने के लिये तैयार हुए थे। उनके वत्तीस स्त्रिया थी। प्रतिदिन एक-एक का त्याग करते जाते थे। बहिन को भाई बडा प्यारा होता है। वही भाई अव त्यागी बन रहा है। यह सोच Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . तृतीय भाग) (१७५ कर सुभद्रा की आँखो से आसुओ की धारा बहने लगी। थोडी । देर मे उसकी हिचकी बंध गई। . धन्ना ने कारण पूछा। सुभद्रा ने शालिभद्र की बात सुनाई। तब धन्ना सेठ ने कहा-त्याग के मार्ग पर जाना अच्छा ही है। इसके लिये रोना शोभा नहीं देता। लेकिन शालिभद्र को जव त्याग करना है तो एक-एक पत्नी का त्याग क्यो कर रहा है? सुभद्रा-नाथ । कहना सरल होता है, करना कठिन होता है। बस, धन्ना को तो निमित्त चाहिए था। वह निमित्त अब मिल गया। उसने कहा--'अच्छा लो, मैने आठो का त्याग किया ।' सुभद्रा ने बहुत आजीजी की, मगर धन्ना का कथन पत्थर की लकीर था। वह नहीं बदला । धन्ना ने दीक्षा ली । सुभद्रा ने सोचा-अब मै ससार में रहकर क्या करूँगी ? वह भी साध्वी बनी । इसी प्रकार आठो ने दीक्षा ले ली। दीक्षा के लिए तैयार होते समय धन्ना ने शालिभद्र से कहा-'चलना हो तो मेरे साथ चलो। पल भर का भी भरोसा नहीं है और तुम बत्तीस दिनो का भरोसा किये बैठे हो ।' शालिभद्र भी सुपात्र थे । बहिनोई का वचन सुनकर वह भा चल दिये। इसे कहते हैं-साले-बहनोई का सच्चा सबध Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६) (जैन पाठावली त्यागी बनने के बाद धन्ना ने घोर तप किया । उनका गरीर हाडो का पीजरा हो गया । मत्य का समय सन्निकट आने पर आहार-पानी का भी त्याग कर दिया । उसी भव से उन्हे मुक्ति मिली। नमन हो वीर धन्ना को ! नमन हो तपस्वी धन्ना को ! समभावी मुनि मेतार्य मुर्गे में और आप में गिना न किचित् भेट । गये मोक्ष समभाव से मनि मेतार्य अखेद ॥ मेतार्य मुनि महावीर स्वामी के एक गिप्य ये । चाडाल कुल मे उनका जन्म हुआ था। . __ कडाके की धूप पड रही है । सूरज की प्रचड किरणो से धरती तवा की तरह तप गई है। पखी झाडो का सहारा ले रहे है। ऐसे समय मेतार्य मुनि गोचरी करने के लिए निकले है । मुनि के पैर नगे और सिर उधाडा है। उच्च, नीच और मध्यम कुलो मे फिरते-फिरते वे एक सुनार के घर गोचारी के लिए जा पहुंचे। यह सुनार राजगृही में प्रसिद्ध कारीगर था। राजा श्रेणिक Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) (१७७ .मी उसकी कारीगरी पर मुग्ध था। इस समय सुनार अपने घर - की. दहलान मे बैठा, राजा के लिए सोने के जो बना न्हा था । मनिराज को देखकर उसने वन्दना की और श्रद्धा के साथ आमत्रण दिया। फिर वह अपना काम छोडकर मुनि को वहराने के लिए घर मे आहार लेने चला गया । इतने में ही वहाँ एक मुर्गा आया । सोने के जो को असली जो समझकर वह मुनि के देखते-देखते निगल गया और 'कुकडू कुँ' करके उड गया। सुनार द्वारा दिये हुए आहार को लेकर मुनिराज लौट ___ आये । मनि के वैराग्य की सराहना करता हआ मनार अपनी दुकान में गया । वह बैठने को तैयार हुआ ही था कि उसकी नजर गढ़ कर रवखे हुए सोने के जौ की तरफ गई। पर वहाँ एक भी जो दिखाई न दिया। जो गये तो गये कहाँ ? उसने चारो ओर तलाश की। कही नजर नही आये। कही इधर-उधर तो नही रख दिये हैं ? यह सोचकर उसने सारी दुकान ढूंढ ली। फिर भी कही जो दिखाई न दिये। तो फिर जो कहाँ चले गये? अभी-अभी मुनि को आहार देकर आया हूँ। इतनी-सी देर मे कोन ले गया ? मन ही मन सोचकर वह बडबडाने लगा-'अवश्य यह उस मुनि की ही करामत है। वह वैरागी नही कोई ठग होना चाहिए। उसी ने जौ चुराये है।' यह सोचकर सुनार ने मुनि का पीछा किया। इतने मे हा मुनिराज पास के दूसरे घर से आहार लेकर निकले । सुनार उन्हें फिर अपने घर बुला लाया और गाली गलौज करके अपने जो मांगे। --- Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८) (जन पाठावली ___मुनि ने सुनार को जन साधु का आचार-विचार समझाया और कहा-'मैने तुम्हारे जौ के दाने नहीं लिये।' लेकिन सुनार को विश्वास नही हुआ। मुनि सोचने लगे-'मै कह दूंगा कि मुर्गा जौ चुग गया है तो यह मुर्गे को मार डालेगा । मेरा कुछ भी हो, मगर यह बात नही कहूँगा।' मुनिराज को मौन धारण किये देखकर सुनार का बहम और बढ गया। अब उसे गुस्सा भी चढ़ आया। वह गुस्से में पागल होकर मुनि को मारने लगा। कसौटी तो सोने की ही होती है न? मगर यहाँ तो जड । सोने के लिये सजीव सोने की कसौटी हो रही थी। कैसी भयङ्कर कसौटी। सुनार ने सोचा-'यह बावा इतने से नही मानेगा। इसे खूब मजा चखाना होगा, तब इसकी अक्ल ठिकाने आएगी। मार के आगे भूत भागते है, यह तो आदमी ही है। बेचारे सुनार को पता नहीं था कि यह कोई भगोडा भिखारी नही है; , यह दिव्य विभूति है ? सुनार की अक्ल चक्कर में पड़ गई थी। ___ गुस्से में आकर सुनार ने मुनि के मस्तक के चारो तरफ चमड़े की गीली पट्टी लपेट दी और लोहे की कील से बल चढा कर खूब कस दी । मुनि को धूप मे खडा कर दिया । सूरज की धूप से जैसे-जैसे चमडे की पट्टी सूखती गई, वैसे ही वैसे वह मिकुडती गई। मुनि का मस्तक भिचने लगा। नीचे जलती हुई रेती से मुनि के पैरो में छाले पड़ने लगे। - Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) (१७९ और मुनि शान्त चित्त से यह सब सहन कर रहे थे। अभी थोड़ी देर पहले जिस जगह मुनि का भाव-भक्ति के साथ सन्मान हुआ था, उसी जगह उन्हे मरणातिक वेदना सहन करनी पड़ रही थी। फिर भी मुनि समभाव में स्थिर थे। इसे कहते है सामायिक | सुनार मन ही मन कह रहा था-'अब यह साधु जरूर कहेगा कि मैने जो लिये हैं। पर मुनि को कहाँ कुछ कहना शेष रहा था! वे मौन ही रहे । मुनि के लिये मुर्गे का शरीर और अपना शरीर समान था। बल्कि मुर्गे की रक्षा के लिये अपना शरीर दे देना अधिक अधिक उचित लगता था। मुर्गा वेचारा अज्ञान प्राणी ठहरा । उसे देह के प्रति ममता हो, यह स्वाभाविक है, पर मुनि को तो देह की ममता नहीं। उनके लिये मरना और जीना दोनो समान थे इसे कहते हैं समभाव । जव मान ने मुर्गे को अपने समान समझ लिया तो फिर वे उसका नाम कैसे लेते ? मुर्गा बच जाता है तो अहिंसा का पालन होता है और मौन रहने से सत्य की भी रक्षा होती है। तो फिर राशवान शरीर की क्या परवाह ! __ श्री मेतार्य मुनि का यह समभाव धन्य है ! मुनिराज को दुस्सह वेदना हुई, लेकिन क्षमा और दया के सागर मेतार्य मनिराज ने सुनार पर जरा भी क्रोध नही किया घोर वेदना के कारण मनि की आँखे निकल आई। शुद्ध भावना बढ़ती गई और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ । थोडी -- ".." Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०) (जैन पाठावली देर में वे नाशवान् शरीर को त्याग कर, जन्म मरण के चक्र से छूटकर, मुक्ति धाम मे पहुँचे । अव वहा प्राणहीन जड पिंजर मांत्र पड़ा रह गया। इसी समय सुनार के घर एक लकडहारा आया। उसने अपने सिर का गट्ठर जमीन पर पटका । उसकी जोर की आवाज से मर्गाने भयभीत होकर चिरक दिया। सोने के सभी जो उसके मल मे निकल आये । यह देख सुनार के विस्मय का पार नहीं रहा । अपनी मूर्खता के लिए वह बहुत पछताने लगा। बिना कारण एक निर्दोष और सत्यवादी मुनि की हत्या के पाप के कारण वह बहुत दुखी हुआ। महामुनि मेतार्य की दया और क्षमा धन्य है ! श्रेणिक नप प्रसेनजित पत्र यह, श्रेणिक चतर कुमार | राजगृही के नृप हुए, नन्दा के भरतार ।। सती चेलना-सग से, वने वीर के साज । करके जिन-सेवा प्रथम होगे अब जिनराज || अभयकुमार की कथा तुम पढ़ चुके हो । जैसा बाग वैसा वेटा' यह कहावत अपने यहाँ पुराने समय से चली आ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय भाग) (१८१ रही है । इस कहावत मे सचाई मालूम होती है । अभयकुमार बुद्धि का सागर था। उसके पिता भी ऐसे ही थे । उसका नाम था थेणिक । श्रेणिक के पिता का नाम प्रसेनजित था। • मगध विशाल प्रदेश है। दो हजार वर्ष पहले यह हिंदुस्तान का मुख्य भाग था। मगध मे कुशाग्रपुर नामक एक नगर था । यह नगर राजा प्रसेनजित की राजधानी। राजा के अनेक पुत्र थे । माता पिताजी को सभी बालक प्यारे लगते हैं, मगर होशियार होने के कारण श्रेणिक, राजा को अधिक प्यारा था। ___ श्रेणिक बडा हुआ। एक दिन प्रसेनजित ने सोचा-~ यह लडका मगध का राजा होने योग्य है । देश की प्रजा का पालन यही कर सकेगा।' यह सोचकर उसने सब लडको की परीक्षा करने का इरादा किया। खीर का भोजन बनवाकर राजा ने सबको जीमने विटलाया। जीमना शुरू हा ही था कि राजा ने भयानक कुत्ते छोड़ दिये । भयानक कुत्तो को देखकर सब राजकुमार घबराकर भाग खड़े हुए, मगर श्रेणिक नही भागा। वह अपनी जगह पर ही जमा रहा और खाता रहा। वह अपने भाइयो के छोड़े हुए थारु एक के बाद एक कुत्तो के सामने सरकाता रहा। कुत्ते खीर क . कटोरे पाकर लप-लप खाने लगे और श्रेणिक भी मजे मे खी खाता रहा । यह देखकर राजा प्रसेनजित को श्रेणिक के सबध में पूरी खातिरी हो गई। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२) (जैन पाठावलो जिस समय को यह बात है, उस समय वहाँ बडे-बडे जगल थे । लोग लकडियो के घर बनाते और उन्ही में रहते थे। कुशाग्रपुर मे ऐसे बहुतेरे मकान थे। जहाँ लकडी के मकान होते है वहाँ आग लगने की समावना भी रहती है। इसलिए, राजा ने हुक्म निकाला कि जिसके घर मे आग लगेगी उसे नगर छोडकर चला जाना पड़ेगा। दुर्भाग्य से राजमहलं मे ही आग लग गई । राजा ने कहा-अच्छी-अच्छी चीजे निकाल लो और नगर के बाहर चलो। किसी ने लिये रत्न और किसी ने लिये मोती। मगर श्रेणिक ने ली भभा। यद्धविजय का नगाडा भभा कहलाता है। राजा ने पूछा-श्रेणिक, भभा क्यो ली है? श्रेणिक-पिताजी, मैने तो विजय की निशानी ली है। विजय के विना जिंदगी का मजा ही क्या है ? पिता ने सोचा-श्रेणिक अवश्य ही एक बड़ा विजेता होगा। फिर मजाक मे कहा-अव तुझे लोग ‘भभासार' कहेगे । यह 'भभासार' शब्द विगडकर 'भभसार' बन गया, 'भमसार बदलकर 'विवसार' हो गया, इतिहास में विवसार' राजा का नाम आता है। वह श्रेणिक का ही दूसरा नाम है । प्रसेनजित राजा बाहर निकले सो निकले। अन्त तक उन्होने अपने वचन का पालन किया। वह कुशाग्रपुर से थोडी दूर जाकर वही रहने लगे। राजा वचन का पालन करे तो प्रजा भी वचन का पालन करती है । यथा राजा तथा प्रजा। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग ) ( १८३ कुशाग्रपुर के लोग ऐसे न्यायी राजा को कैसे भूल सकते थे ? वे लोग बॉर वार राजा के निवासस्थान पर आने लगे । आपस में कोई पूछता-कहाँ गये थे ? तो लोग उत्तर देते - राजगृह में गये थे । राजगृह अर्थात् राजा का घर । धीरे-धीरे राजगृह के आस-पास बडे-बडे महल और मन्दिर वन गये । वस्ती वढती गई । वह वस्ती एक नगरी हो गई और वह नगरी राजगृही नगरी के नाम से प्रख्यात हुई । राजा प्रसेनजित अब बूढे हो चले । उन्होने सोचा- 'दूसरे कुमारो को थोडे-थोडे गाँव दे दूं और उन्हे सँभालने के लिए तैयार करूँ, श्रेणिक को फिलहाल कुछ भी न देकर कही बाहर भेज दूँ । इससे श्रेणिक का अनुभव बढेगा और दूसरे भाइयो को तसल्ली होगी ।' राजा ने इस विचार पर अमल किया । श्रेणिक, राजा की आज्ञा पाकर बाहर निकला । कहाँ जाना है, यह तो निश्चत था नही, इसलिए वह निरुद्देश्य चलता २ वेणातट पहुँचा । वहाँ वह एक व्यापारी की दुकान पर बैठा । श्रेणिक बहुत भाग्यशाली था । व्यापारी को उस पर बहुत प्रेम उपजा और उसने उसे अपने घर रख लिया, श्रेणिक ने बात गुप्त रक्खी कि वह राजगृही का राजकुमार है । उसने अपने भाग्य के सहारे दुकान बढिया जमा दी। गरीव व्यापारी धनवान् बन गया । व्यापारी की नन्दा नाम की एक कन्या थी । वह विवाह के योग्य हो गई । व्यापारी ने इस कुमार को ही जामाता बनाने का विचार किया । उसने सोचा- इसके समान होशियार और विनयवान् जामाता मुझे और कहाँ मिलेगा ? ' Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पोठावली 1 व्यापारी ने कन्या का विवाह श्रेणिक के साथ कर दिया। उस समय आजकल की तरह जाति-पाति का भेदभाव नही था। श्रेणिक और नन्दा का जीवन आनन्द के साथ बीतने लगा। राजगृही के राजा बीमार पडे । उन्होने बडे-बडे वैद्यो को वुलवाया । वैद्यो ने कहा-'अब आपके अतिम दिन आ गये है।' यह सुनकर राजा ने श्रेणिक की खोज करने के लिये चारो तरफ घुड-सवार दौडाये। एक दूत फिरते-फिरते वेणातट पहुँचा। उसने श्रेणिक को खोज निकाला और राजा की बीमारी का समाचार कहा। 'पिता मृत्यु शय्या पर पडे है और मुझमे उनका मन उलझा है, यह जान लेने पश्चात् विनयी श्रणिक घडी भर भी नहीं रुक सकता था। उसने नन्दा से सब बात कही। नन्दा उस समय गभिणी थी। श्रेणिक ने नन्दा से कहा-'प्रिये । में अपने पिता की सेवा में जाता हूँ। यह चिट्ठी अपने पास रहने दो। ६ भी काम आयगी।' इसके बाद सबकी आज्ञा लेकर श्रेणिक घोडे पर सवार होकर चल दिया। श्रेणिक राजगृही में आया। राजा को बहुत प्रसन्नता हुई। राजा ने तो तैयारी कर ही रखी थी। अच्छे दिन नगर के महाजनो को और मन्त्रियो को बुलाकर श्रेणिक को राज्यतिलक किया गया। अब कुमार श्रेणिक राजगृही का राजा बन गया । उसने पिताजी की खूब सेवा की। आखिर राजा प्रसेनजित, परलोक सिधार गये। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) (१८५ .' अब महाराज श्रेणिक मगध का तन्त्र चलाते हैं। श्रेणिक ने, शत्रुओ को भी अपने अधीन कर लिया है। योग्य मत्रियो की नियुक्ति की है। बुद्धि की परीक्षा करके, जो सबसे ज्यादा बुद्धिमान् था उसे मुख्य मंत्री बनाया है। उसका नाम अभयकुमार । अभयकुमार नन्दा का पुत्र था। वेणातट मे दी हुई चिठ्ठी पर से महाराज श्रेणिक अपनी पत्नी नन्दा और पुत्र अभयकुमार को पहचानता है। श्रेणिक की दूसरी रानी का नाम चेलना था। चेलना के कारण ही राजा श्रेणिक जैन धर्म की तरफ आकर्षित हुए थे। रानी चेलना की बदौलत श्रेणिक का बहुत-से जैन साधुओ के साथ अच्छा परिचय हुआ था। अन्त में श्रेणिक राजा भगवान "हावीर के कट्टर और समर्थ भक्त बन गये थे। नन्दन मणियार पोषध-समय निज धर्म भूला बावड़ी मन में, वसी, अति रम्य पुष्करिणी-सुरचना देखकर मन में लसी। मर भेक नन्दन, था हुआ, जाति स्मरण पर पा लिया, अन्त में शभ भाव से फिर स्वर्ग को था पा लिया.॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६) ( जैन पाठावली जेठ का महीना था। सूरज की धधकती किरणे पृथ्वी पर पड़ रही थी। गरम लू चल रही थी। पक्षी घटदार वृक्षो मे भी अकुला रहे थे। नगर के कोई-कोई लोग ग्रीष्म-गृह के फुहारो का सेवन कर रहे थे और कोई-कोई मकान बन्द करके भोयरे का शरण ले रहे थे। ऐसे समय मे नन्दन मणियार पोपधशाला में बैठा है। वह एक श्रीनत गृहस्थ है । उसके धन का पार नही है। वह जितना धनवन् है उतना ही बुद्धिमान् है। भगवान् महावीर के सत्सग से जैनधर्म के प्रति उसकी रुचि बढ गई थी। उसने श्रावक के बारह बन धारण किये थे। बारह व्रतो मे से ग्यारहवा पोपधवत कहलाता है। चौवीस घटो तक उपवास रखना, शरीर का शृगार न करना ब्रह्मचर्य का पालन करना और धर्मस्थानक में रहकर धर्मक्रिया करना पौषधवत कहलाता है । ऐसे तीन दिन का पोषधवत नन्दन मणियार ने ग्रहण किया था। टेक. व्रत या प्रतिज्ञा लेना धर्म का अग है। यह सत्य है, मगर व्रत लेने के बाद उसका वरावर पालन करना चाहिए साथ में उसके पालन करने में सयम और श्रद्धा होनी चाहिए । श्रद्धा और धीरज सत्सग से बढती है और कुसग से घटती है । नन्दन मणियार कुसगति में पड़ गया था। कहावत है 'सोहबते असर।' सगति का आसर पडे विना नहीं रहता। इम कथन के अनुसार नन्दन की श्रद्धा इन दिनो कुछ कम हो गई थी। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) (१८७ नन्दन ने पौपधव्रत ग्रहण किया था । उसने दो दिन ता कठिनाई से निकाल दिये। तीसरे दिन उसे बहुत प्यास लगी । वह मन ही मन सोचने लगा- ' बावडी हो तो उसे भी खाली कर दू और अपनी प्यास बुझाऊँ ।' यो करते-करते विसी प्रकार तीन दिन निकल गए। उसका शरीर धर्मस्थानक में रहा और मन वावडी में रहा । पौषध पार कर वह राजा श्रेणिक के पास गया । जाकर उसने कहा - 'महाराज | नगरी के बाहर, वैभार पर्वत के पास बावडी खुदवानी है । आज्ञा दीजिए ।' 21 7 राजा ने कहा- मेरी आज्ञा क्यो नही होगी ? खुशी से वावडो खुदवाओ प्रजा पानी पीएगी और आशिर्वाद देगी । थोडे दिनो मे बावडी तैयार हो गई । उसका नाम रक्खा गया- 'नन्दनपुष्करिणी ।' वावडी बडी सुन्दर थी । लोग देखते-देखते अघाते नहीं थे कैसी समचौरस । कैसी काठे वाली । और इसकी सीढियाँ कितनी सुन्दर है । थोडे दिनो बाद उसमे कमल उग गये । रंग-बिरंगे कमलों की सुगन्ध से भौंरे ललचाने लगे। भौंरो की गुजार से बावडी गूंजने लगी | बावडी के किनारे केले का वृक्ष उगा । लोग आते और पानी पीते, फूलो की सेज पर सोते और जल में जलक्रीडा करते । नन्दन मणियार अपनी तारीफ सुनकर फूला 1 न समाता । 1 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ) ( जैन पाठावली थोडे दिन और बीतने पर नन्दन मणियार ने बावडी के चारों ओर सुन्दर बगीचा लगाने का विचार किया । उसने चारो दिशाओ मे चार वन बनवाये । वनो में तरह-तरह के फूल लगे भाति भाति के फल और नाना प्रकार की बेले लगी । नगर के लोग वनों में घूमने आते और स्नान करते । नन्दन मणियार का बखान भी करते यह सब देख सुन कर नन्दन मणियार को गर्व हुआ । नन्दन सोचने लगा- अगर इन लोगो को ज्यादा सुविधा पहुँचाऊँगा तो लोग मेरी और ज्यादा तारीफ करेगे। तब उसके चारो तरफ चार धाम वनाये । एक तरफ चित्रशाला, दुसरी तरफ पाकशाला, तीसरी तरफ वैद्यशाला और चौथी तरफ अलंकारशाला | चित्रशाला में तरह-तरह के और सुन्दर रंगो वाले चित्रों के छोटे-बडे तन्ते सुशोभित हो रहे थे। उसमें लकडी के खिलौने भी थे । गिट्टी की भाति भाति की आकृतियां बनाई गई थी । तरह-तरह का कारीगरी का काम किया हुआ था । संगीतज्ञ लोग संगीत की तान छेडे रहते । नृत्यकार अपना नृत्य दिखलाते नन्दन मणियार ने ऐसी सुन्दर व्यवस्था कर रखखी थी । " पाकशाला मे भाति भाति का भोजन तैयार होता था । वहाँ अतिथियों को भोजन मिलता था । वैद्यकशाला में चतुर वैद्य रहते थे और प्रवासी रोगियो का मुफ्त उपचार करते वे । अलकारशाला मे कुशल नाई और सेवक काम करते थे । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) (१८९ नन्दन माणियार का नाम अब खूब प्रसिद्ध हो गया । लोग उसे धन्य धन्य कहने लगे। इस कारण नन्दन की आसक्ति बढती ही जाती थी। नन्दन मणियार जनता की सेवा करता था, मगर उस सेवा में कीत्ति की कमना थी। . एक बार नन्दन मणियार बीमार हो गया। देश-देश के वैद्य इलाज करने आये । मगर उसकी मृत्यु निकट आ गई थी नन्दन मत्यु के बिछौने पर पड़ा था, मगर उसका मन अब भी पुष्करिणी में ही था । 'मेरी बावडी, हाय मेरी बावडी' करते करते ही उसके प्राण-पखेरू उड गए । ', 'जैसी मति वैसी गति ।' नन्दन मणियार मरकर मेंढक हुआ। वह नन्दन पुष्करिणी में टर्र-टर्र करने लगा। वह कूदता फुदकता और मौज करता ।। वालको । मरते समय जो धन धन करता है, वह मर कर धन की रखवाली करने वाला सांप होती है। भारत मेरा . हिरन, हाय मेरा हिरन' करते-करते ही हिरन हुआ था। इस लिए मरते समय प्रम का भंजन करना चाहिए। अत समय में जो भक्ति रखता है, उसी को मरण सुध नन्दन ने काम तो लोकोपयोगी किया, मगर बावडी में प्रवल ऑसंक्ति होने से तथा कीर्ति की कामना होने से उसे उसी वाबडो में मेढक होना पड़ा। आसक्ति का फल ऐसा होता है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) 3 नन्दन मणियार मेढक के रूप में, बावडी मे फिरता रहता है । एक बार वह मेढक बावडी के किनारे आया । पास में कुछ लोग खड़े थे । उनके वचन मेंढक के कान मे पडे । पर मेढक मनुष्य की भाषा मे क्या समझे । फिर भी उसमें पूर्वजन्म के कुछ अच्छे सस्कार थे । उसने भगवान् के लिया था । निमित्त मिलने पर वह सत्सग लगा कि - ' ऐसी भाषा तो मैने पहले भी कही सत्सग का लाभ फला । मेंढक को सुनी थी ।' इस तरह का विचार करते-करते उसे अपना पिछला भव याद आ गया । 1 नन्दन मणियार ܐ अपने पूर्वभव को याद करके वह भीतर ही भीतर पछताने लगा । वह सोचने लगा- 'एक समय में मनुष्य था । श्रेष्ठ था । भगवान् महावीर का श्रावक था । वावडी की आसक्ति के कारण में मेंढक हुआ । " इस प्रकार पछता कर उसने बावडी में से निकलने का विचार किया । मेढक होकर भी वह यथाशक्य धर्म और सयम का पालन करने लगा । उसने चाहे जिस जतु को मारना और त्रास देना त्याग दिया । अव वह पानी को भी इसे तरह पीता था कि कोई जीव मर न जाय । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय भाग) वह बार-बार उपवास भी करने लगा। इस प्रकार मेढक होने पर भी उसने अपना जीवन सफल बना लिया । एक बार लोगो की बातचीत से उसे मालूम हुआ कि गुणगीलक चैत्य में भगवान महावीर स्वामी पधारे हैं। उसे भगवान् का दर्शन करने की इच्छा हुई और वह उसी समय जल्दी-जल्दी चल दिया। उधर भगवान का दर्शन करने के लिए राजा श्रेणिक ___ की सवारी निकली। बेचारा मेंढक उस सवारी की झपट में आ गया । आंते बाहर निकल पडी । मेंढक मर गया। __इस बार मरते समय उसके मन में बावडी नहीं थी, वल्कि भगवान् महावीर थे । उसने भगवान् को भजते-भजते देह छोडा । इस कारण अब की.बार वह देव हुआ । दर्दुरावतसक विमान में से वह कई बार भगवान् महावार के दर्शन करने आया करता था। उसने मरते समय साता का विचार किया था इस कारण यह देव मरकर महाविदेह क्षेत्र में उपजेगा और मोक्ष प्राप्त करेगा। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बू स्वामी श्री सधर्माचार्य के उपदेश से उपरत हुए, होकर विवाहित युवा भोगों मे कदापि न रत हुए । आप्सरा-सी आठ वधुओं को दिया अवबोध प्रभव जैसे चोर ने भी पा लिया शुभ बोध है । ऐसे त्यागी वीरवर, ज्ञानी जम्बुकुमार, पाकर केवलज्ञान को गये भवोदधि पार ॥ " गुरु गौतम के विषय मे तुम जानते ही हो । भगवान् महावीर के ग्यारह बडे शिष्य गणधर कहलाते थे । साधुओ के गण को - समूह को सँभालने वाले गणधर कहे जाते हैं । उन सव में पहले गणधर गौतम स्वामी थे । गौतम का जब निर्वाण हुआ उससे पहले ही दूसरे तीन गणधर कालधर्म पा चुके थे । इसलिए गौतम के बाद सुधर्मास्वामी सघ के नायक गिने गये । जैसा उनका नाम था वैसे ही उनमें गुण भी थे समता के सागर और ज्ञान के भण्डार थे । सत्य धर्म का करने के लिये उन्होंने कमर कस कर मिहनत की थी । । वे प्रचार एक बार विचरते - विचरते सुधर्मास्वामी वैभारगिरि पर पधारे । वनपाल की आज्ञा लेकर वे वन मे रहे । साथ में हजारो शिष्य थे । कोई ध्यान कर रहा था, कोई तत्त्वचर्चा कर Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय, भाग) - रहा था और कोई गुरुजी से प्रश्न कर रहा था। कोई तपस्वियो । की तथा बड़े मुनियो की सेवा करता था । जहाँ ऐसे सत वसते है, वहाँ स्वर्ग-सा लगता है। राजगृही नगरी यहाँ से बहुत दूर नहीं थी। वहाँ के राजा का नाम कोणिक था । वह श्रेणिक महाराजा का पुत्र था । यह नगरी बहुत विशाल थी । उसमे गुणीजनो का वास था । सेठ-साहूकार भी बसते थे । उनमें से एक का नाम ऋषभदत्त था। उनकी पत्नी की कूख से एक पुत्र का जन्म हुआ । इकलौता पुत्र होने के कारण वह माता-पिता को वहुत लाडला था । उसका नाम जम्बू था। धीरे-धीरे जम्ब कुमार सोलह वर्ष का हो गया । जगह जगह से विवाह की मँगनी आने लगी। माता-पिता ने आठ कन्याओ के साथ उसकी सगाई कर दी क्योकि उस समय कन्याएँ बहुत थी और पुरुपो की कमी थी । 'मेरे घर आठ बहुएँ आएंगी' इस विचार से माता का हर्ष समाता नही था । उसने विवाह की तैयारिया आरम्भ कर दी। लग्न का दिन दिखलाया गया। थोडे ही दिन वाकी थे। मगलगीत गाये जा रहे थे। धूमधाम के साथ तैयारियाँ हो रही थी। आज कुमार हिडोले पर चढकर झूल रहे थे। सोने की खाट है । होरो की डोरी है। उसी समय उन्हे बधाई मिली-~मुधर्मास्वामी पधारे है और नगर के लोग तथा महाजन गुरु के दर्शन के लिए जा रहे हैं। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४) (जैन पाठावली ____ जम्बू भी गुरु के पास गये । अहा | क्या उनका प्रभाव है । कैसा भीतर तक असर करने वाला उनका उपदेश है। उस दिन सुधर्मास्वामी ने ब्रह्मचर्य के विषय में चर्चा की। जम्बू ने उपदेश सुना और एकदम उसका प्रभाव पड़ा उन्हे क्षणिक मोह मे डूब जाना रुचिकर नही हुआ। श्रोता तो बहुत थे । मगर हरएक मे फर्क था । जम्बू ने पूर्वभव में तप किया था, इसी कारण उनके ऊपर अच्छा असर पड़ा। जम्बकुमार घर आये मगर मन उनका फिर गया । उन्हे न अच्छे-अच्छे कपडे रुचे ओर न मजा-मौज ही रुचिकर हुआ। उन्हे तो बस मुधर्मास्वामी ही याद आने लगे । माता-पिता ने पूछा-वेटा । इस सयम तू उदास क्यो है ? जम्बू ने दिल खोलकर कहा-पूज्यो । और कुछ नहीं इस ससार से मेरी तपोयत उठ गई है । विवाह की मुझे रुचि नही है । में ब्रह्मचर्य पालकर अपने जीवन को चमकाऊँगा । माता-पिता ने सोचा-लडके को बुरा न लगने दे और गृहस्थी मे जोड दे । विवाह हो जायगा तो ससार मे मन लगने लगेगा। माता-पिता ने कहा-बेटा । विवाह कर ले । इतनी सी बात हमारी मान ले । फिर हम तुझे नही रोकेगे । अपनी । स्त्रियो की आज्ञा लेकर जो चाहे, करना । जम्बू ने कहा-~~-बहुत अच्छा । मैं आपका कृतज्ञ हू, इसलिए इतनी वात अवश्य मानूंगा। मगर मेरे साथ जो Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - | तृतीय भाग) | कन्याएँ विवाह करने वाली है, उन्हे पहले ही जता देना । विवाह करने वाली आठो कन्याएं सखियाँ थी। यह बात उनके कानी तक पहुँची । कन्याओ के माता-पिता सोच विचार में पड़ गए। - कन्याओं ने कहा--आप चिंता न करे । हम कुमार को समझा लेगी। - इन भोली कन्याओ को पता नही था कि जम्पू कुमार को समझाने जाएंगी तो खुद को ही समझना पडेगा। धूमधाम के साथ विवाह हो गया। विवाह के बाद पहली ही रात है। आठ स्त्रियो के बीच जम्बूकुमार बैठे हैं। जवानी की उम्र है । एकान्त है । अप्सराओ के समान स्त्रियाँ है । मोह पैदा करने वाली कमरे की सारी सामग्री है। स्त्रियों प्रार्थना कर रही हैं। ऐसी परिस्थिति में वडो-वडो का मन डिग जाता । पर धन्य है जम्बकुमार, जिनका मन तनिक भी नही डिगता। कैसा आदर्श सस्कार हैं ! सभी स्त्रियाँ मनाकर थक गई और अन्त मे सो गई। अकेले जम्बूकुमार जाग रहे हैं। प्रात काल ही सुधर्मास्वामी से उन्हें दीक्षा लेनी है। जम्बूकमार को पता चला कि उनके घर में चोर घुसे हैं और गठरियाँ बाँध-बाँध कर धन ले जा रहे है। जम्बकुमार ने सोचा-मुझे धन जाने की तो परवाह नही है। मगर लोग कहेगे कि घर में चोरी हो जाने के कारण हजरत को वैराग्य सूझा Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (जैन पाठावलो है । और इसी कारण माधु बन रहे है । खैर, इस अपवाद की भी चिन्ना न की जाय; मगर लोग अन्याय का यह धन्धा क्यो करते है ' इन्हें समझाया क्यो न जाय ? इस प्रकार सोचकर जम्बकुमार चोरो के पास गये । चोरो के मुखिया का नाम प्रभव था। वात-चीत होने पर प्रभव ने अपनी कहानी सुनाई। उसने कहा- मै एक राजकुमार था। भाई के साथ कलह होने के कारण मैने घर का परित्याग कर दिया और जवर्दस्त चोर बन गया । शक्ति मुझमे थी ही, उसका उपयोग इस दिशा में होने लगा। धीरे धीरे मेरी धाक ऐसी जम गई कि मेरा नाम सुनते ही बालक चुप हो रहते । मेरी ऐसी धाक गाँव भर में जम गई थी, मगर चोर सदा डरपोक होता है। पकडे जाने का डर उसे लगा रहता है। जम्बू, प्रभव के पास गए । प्रभव को भय हुआ कि मैं पकडा जाऊगा । जम्बू ने कहा- भाई, डरो मत | यह बतलाओ कि तुम ऐसा वराव धन्धा क्या छोड नहीं सकते ? ___ जम्बकुमार के यह मधुर वचन सुनकर प्रभव ने अपने अपराध के लिए क्षमा माँगी । उसके साथी भी पोटलियाँ नीचे रख कर बैठ गये । आवाज सुनकर आठो स्त्रियां जाग उठी और फिर जम्कुमार मे कहने लगी-'नाथ । क्या हम सब को त्याग जाओगे ?' जम्बू ने कहा-तुम जब भी चलो न । स्त्रियां बोली-कुछ समय तक ससार में रहकर, मसार Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) म्वन्धी भोग भोगकर फिर दीक्षा ले | . जम्बू - ससार के भोग तो पत्थर के समान है । उसमें बन्दर फँसा और बेचारे को प्राण देने पडे । हम लोग मझदार है । ऐसा करना क्या हमें शोभा देता है ? ( १९७ अव प्रभव और उसके साथी चोरो को भी इसबातचीत मजा आने लगा । जम्बू का सत्सग उन्हे आनन्ददायक लगा । प्रभव ने कहा--जरा बन्दर की कहानी तो सुनाइए ? जम्बू - हाँ, सूनो । एक बन्दर था । वह बहुत-सी बन्द रियो के साथ जंगल में रहता था । फल खाता, झरनो का पानी पीता और मौज करता था । कुछ दिनो बाद वह बूढा हो गया । - एक बार अजनवी जवान व दर वहाँ आया । वह खूब - सूरत था और जवान था । इस कारण बन्दरियो को वह बहुत पसन्द आया । सव ने मिलकर बूढे बन्दर को भगा दिया | वह ' बेचारा जाना नही चाहता था, पर लाचार | करता क्या ? उसे जाना पडा । चलते-चलते उसे पहाड मिला । बूढा बन्दर बहुत प्यासा था । उसने वहाँ शिला रस झर्रता देखा । समझा यह पानी है । विचार किये बिना ही वह पास मे गया और उसमें मुँह लगा दिया । उसी समय उसका मुँह उसमें चिपक गया । उसने हाथ टेक कर मुँह निकालने की कोशिश की तो हाथ भी चिपक गये । पैर भी चिपक गये । अन्त मे हाय-हाय करते मर गया । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८) (जैन पाठावली ससार की माया भी ऐसी ही है । इसमे जो फंस जाता हे सो निकल नही पाता । अब निकलू, अब निकल करतेकरते वह ज्यादा-ज्यादा फंसता जाता है । मौत आने पर वह मरता है और फिर जन्म लेता है। प्रभव ने ऐसी वाते पहली बार ही सुनी थी । उसे वैराग्य हो गया। वह कहने लगा--'आप मेरे गुरु और मैं अ पका चेला । अब जहाँ आप वही मै ।' प्रभव के साथियो ने भी ऐसा ही निश्चय किया। . जम्बकुमार की स्त्रियां भी वैराग्य के रंग में रंग गई ।। अच्छा खासा सघ बन गया । भोर हुआ। माता-पिता से आज्ञा मांगने गये । उन्होने सहर्प आज्ञा दी और खुद भी तैयार हो गये यह बात राजा कोणिक को मालूम हुई । जम्बू जैसे जवान सेठ का दीक्षा लेना कसे पोसा सकता है ? उमने रोकने की वहुत कोशिश की, मगर जम्बूकुमार को अब कौन रोक सकता था? प्रभव के साथी ५०० थे । वे सब मिलाकर ५२७ जनो की एक ही साथ दीक्षा हुई। ऐसा वडा उत्सव राजगृही में पहले कभी नही हुआ होगा। . सब मिलकर सुधर्मास्वामी के पास पहुँचे। सब ने साधुजीवन की प्रतिज्ञाएँ ली। वे इस प्रकार हैं - साधु--जीवन की प्रतिज्ञाएँ १) सभी छोटे-मोटे जीवो को अपने समान समझंगा । २) प्राणपण से सत्य का पालन करूंगा। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) ३) दी हुई वस्तु ही लूंगा। ४) जीवनपर्यन्त पूर्ण शीलवत पालूंगा। ५) किसी भी वस्तु पर मोह नही रक्खूगा और परिग्रह नहीं करूंगा। ६) देख-देखकर पैर रक्खूगा । ७) सोच-विचार कर बोलूंगा। ८) शुद्ध भिक्षा और वस्त्र ही लूंगा। ९) वस्तु के धरने-उठाने में विवेक रक्खूना १०) शुद्धता और आहिंसा का पालन हो, इस प्रकर ___ मल-मूत्र आदि अशुचि पदार्थों का त्याग करूंगा। ११) मन से अच्छे विचार करूंगा। १२) वचन पर अकुश रखकर, वाणी का दुरुपयोग न करके, आवश्यकता के अनुसार ही बोलूंगा । १३) निष्कामभाव से निर्दोष काम ही करूंगा । इन प्रतिज्ञाओ मे पाँच महावतो, पाँच समितियो और तीन गुप्तियो का सार आ जाता है । सभी ने यह प्रतिज्ञाएँ ली । तलवार की धार पर चलना सरल है मगर सदैव इन व्रतो का पालन करना कठिन है। __जम्बूस्वामी ने बराबर इन व्रतो का पालन किया और शास्त्र का खूब ज्ञान प्राप्त किया। सुधर्मास्वामी के निर्वाण के बाद यही सकल जैनसघ के नेता बने । उसके बाद उन्होने भगवान् महावीर के उपदेश का प्रचार किया। अनेको को तारा । इस Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००.) ( जैन पाठावली प्रकार अपना और जगत् का कल्याण करते-करते, शुद्ध ध्यान करते हुए उन्हे केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । अन्त में निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन ग्रथो का कथन है कि सब से अन्त मे जम्बूस्वामी को ही केवलज्ञान प्राप्त हआ। उनके बाद फिर कोई केवली नही हुआ। राज्य सरीखी ऋद्धि के त्यागी जम्बस्वामी धन्य हैं । अप्सरा सरीखी मुन्दरियो से विचलित न होनेवाले धन्य हैं । प्रभव जैसे महान चोर को बोध देने वाले धन्य हैं | धर्मध्यान में मग्न होकर केवलज्ञान पानेवाले धन्य हैं । ऐसे सच्चे त्यागी ही जनशासन को सुशोभित करते हैं । सम्राट् सम्प्रति - ' . नृप अशोक के पौत्र वह, नृपति कुगाल - कुमार, सार्वभौम राजा हुए, सप्रति अति सुखकार । माता के उपदेश से, पाया धौल्लास, आर्य हम्ति की शरण में , पर. हितकिया प्रकाग ॥ पाटलीपुत्र में एक सूरदास आया है । वह ऐसे भजन ललकारता है कि सुनकर आत्मा जाग उठती है । सारा पाटली Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) (२०१ पुत्र उसके पीछे.पागल हो उठा है। अमीर उमराव उसे आमत्रित करके बुलाते है । धनवान् उसका स्वागत करते है। प्रकृति की कैसी देन है। लोग खुश होकर अच्छी-अच्छी भेट देते हैं। तब सूरदास कहता है-'दौलत नही, दिल चाहिए।' और वह मस्ती के साथ नगर में घूमता है। बालक, बूढे और जवान उसके पीछे-पीछे फिरते है। - पाटलीपुत्र के महाराजा अशोक को खबर लगी । अशोक बौद्धधर्म का स्तम्भ था । अशोक अर्थात् नीतिपालक नरपति । - अशोक की ओर से सूरदास को निमत्रण मिला । दोपहर ढल गई है । मत्री, महाराज और नगर जन, सब समय से पहले आ पहुंचे हैं । गजरानियाँ, दासियाँ और नगर की प्रतिष्ठित नारियाँ अपने-अपने स्थान पर अवस्थित हैं । थोडी देर में सूरदास भी दरबार मे आ पहुँचा । महाराज सूरदास से कुछ दूर बैठे थे। सूरदास की मांग के अनुसार बीच में सफेद चादर का एक पर्दा रक्खा गया था। सूरदास ने भजन की शुरुआत की । देखते ही देखते वातावरणं शान्त हो गया। महाराज उसके भजनो में एकतार हो गये। भजनो में न जाने कैसा रस था कि पीते-पीते सतोष ही नहीं होता था। समय पूरा हआ और भजन बन्द हो गए। फिर भी सभी के कानो मे भजनो कानाद गुंजता रहा । राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा-कहो सूरदास ! क्या दिया जाय ?' Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पाठावली सूरदास ने कहा- इस सूरदास को पैसे की भूख नही है। फिर भी अगर, तुम्हे देना ही है तो माँगता हूँ । मुझे 'काकिणी' चाहिए।' मुरदास की इस मांग को सुनकर मत्रीगण चकित रह गये । उल्लास के वातावरण में सहसा उदासी व्याप्त हो गई। काकिणी अर्थात अशोक का साम्राज्य । जैसे विश्वामित्र ऋषि ने गाजा हरिश्चन्द्र की परीक्षा की थी वैसी ही यह परीक्षा तो नही है ? सभी लोग चिन्ता मे निमग्न हो गये। • अव भेद खुल गया था। यह सूरदास और कोई नहीं, सम्राट अशोक का ही पुत्र कुणाल था । सोलहवे वर्ष में वह अधा हो गया था उसने संगीत की विद्या प्राप्त की थी । प्रभु फे भजन में चित्त लगा दिया था। अशोक के दो पुत्र थे। एक कुणाल, दूसरा महेन्द्र । महेन्द्र ने दीक्षा ले ली थी । इमलिए अगोक को चिता बनी रहती थी कि गद्दी पर किसे विठलाया जाय ? अव पता चला कि यह सूरदास मेरा ही पुत्र है । और उसने पुत्र सम्प्रति के लिए ही गज्य की मांग की है । अगोक का मनचाहा हुआ। मेरे लड़के का लडका गद्दी पर बैठेगा, यह जानकर अशोक के हर्ष का पार न रहा । अशोक ने नगर में घोषणा करके सप्रति को गद्दी पर विठलाया। अशोक मगधराज श्रेणिक के समान राजा था । पश्चिम Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) में काठियावाड से लगा कर ठेठ हिमालय की तलहटी तक उसके राज्य की सीमा थी । उत्तर पूर्व में पुरी से लेकर दक्षिण आन प्रान्त तक उसका राज्य फैला था । अशोक ने अपनी मृत्यु से पहले सम्प्रति को अवनीराज बनाया और फिर उसकी मृत्यु हो गई। अवन्तिराज सम्प्रति __ योग्य उम्न होने पर सम्प्रति राजसिंहासन का अधिकारी हुआ। उसने अपनी भुजाओं के बल से राज्य की खूब वृद्धि की ___ नेपाल और भूटान तक का प्रदेश अपने अधिकार में किया । कई छोटे-बड़े राज्यों को जीता । सभी लोग उसकी प्रशसा करते थे। एक बार सप्रति की माता शरदश्री ने संप्रति की प्रशसा सुनी । जैसे और-और माताएं अपने पुत्र की प्रशसा सुनकर प्रसन्न होती हैं उस प्रकार शरदश्री प्रसन्न नही हुई । एक दिन उसने पुत्र से कहा-'बेटा ! बाहर के बहुत से प्रदेशो को तूं ने जीत लिया है, मगर अभी अपने मन को जीतना तो वाकी रह गया है।' महाराजा सप्रति अपनी माता से बहुत प्रेम करते थे। । वह माता की बात को भली-भाँति समझ नही सके । उन्होने ___ कहा-'माताजी । फिर बतलाओ मुझे कौन-सा प्रदेश जीतना रह गया है ? मै उसे जीतने का प्रयास करूंगा।' माता ने हँसकर कहा-'पूर्व । तूं ने राजाओ को अपने Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४) (जैन पाठावली - - आधीन किया है और भूमि-प्रदेशो को जीता है, मगर हृदय-प्रदेश के मोह राजा को तूं ने अभी तक नहीं जीता है ।' सप्रति अव भमझ गया । तभी से उसने धर्म की और ध्यान देना आरंभ किया। ऐसी समझदार माता धन्य है ! और ऐसी .आज्ञापालक मतान भी धन्य है ! माता का आशीर्वाद मानो फलीभूत हुआ और स्थूलभद्र के शिष्य श्रीआर्यहस्ती तथा अन्य मुनिराजो के साथ उसका परिचय हुआ। फूल में सुगध की तरह उसे जैनधर्म के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ। वह साधुसतो की सेवा करने लगा। अपने कर-दाता राजाओ के पास संप्रति ने खबर भेजी कि मुझे तुम्हारे धनभण्डार की आवश्यकता नही है। अपनी प्रजा को धर्मज्ञान दो । साधुसतो को विनय के साथ नमस्कार करो और उनकी सेवा करो। मुझे प्रसन्न करने का एक मात्र यही मार्ग है सप्रति ने अनेक धर्मशालाएँ बनवाई और अन्नशालाएं ग्वोली । वावडियाँ वनवाकर प्रजा का जल-कप्ट मिटाया। उपाश्रय और पोपधशालाओ का निर्माण कराया । मदिर बंधवाय । तालाव का पानी नहर के रास्ते पहुँचाने की, अशोक महाराज द्वारा आरंभ की हुई योजना को कार्य रूप में परिणत किया ।-, मप्रति राजा ने अन्यान्य देशों में भी उपदेशक भेजकर धर्म फैलाया और इस तरह धर्म की महान् मेवा की। ' ऐसे होते है राजा । एमे धर्मप्रेमी राजाओ का स्थान Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) (२०५ प्रजा के मन में रहता है । धन के लोलुप राजा प्रजा के हृद स्थान नही पा सकते । धन के लुटेरे राजाओ के लिए 'रा __ सो नरकेश्री' कहावत लागू होती है । सप्रति अन्त में बीमार और किसी उपाय से न बच सके । सम्राट् सप्रति मरकर भी अमर है । जिसके काम अमर उसका नाम अमर | अशोक राजा बौद्ध-सघ में अमर है । श्रेणिक राजा जैन-सघ में अमर है ! सप्रति राजा सभी की तरह अमर है। धन्य, संप्रति महाराज धन्य हैं ! - सती सुभद्रा • "", . -weजिनदास मन्त्री की सुपुत्री श्रीसुभद्रा नाम है, शम शीलवंती धर्मवंती विनयशील ललाम है । मनि नयनरो कण काढते माथे कलक चटा अहो । पर शील के सुप्रभाव से वह नए क्यों नहिं हो कहो ? सोलह- सतियो के नामो में सुभद्रा सती का भी नाम है। सुभद्रा का अर्थ है-सुन्दर कल्याण वाली ।' सचमुच सुभद्रा में Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न पाठावली नाम अनुसार ही गुण भी मौजूद थे । वसतपुर नमक नगर मे जितशत्रु राजा राज्य करता था उमके प्रधान मत्री का नाम जिनदास था। वह भी यथा नाम तथागुण था । कितने ही लोग कहलाते तो जिनदास है मगर होते है धनदास या लक्ष्मीदास । किन्तु जिनदास वास्तव में जिनदास था । वह सत्य बोलता और सत्य का ही आचरण करता था। दयालु और सतोषी था । राजा और प्रजा के प्रेम की रक्षा करता हुआ न्याय करता । उसका वर्ताव ऐसा शुद्ध था। सुभद्रा में इस तरह के ऊंचे संस्कार थे। शीलका गुण उसके जीवन मे व्यापा हुआ था । मतो और सतियो की सेवा में उसे आनन्द आता था । कन्या वडी हुई तो योग्य घर तलाश कर दिया गया। माता पिता ने गहनो के बदले सस्कार दिये । सुभद्रा समुराल गई । उसके सुसराल मे बौद्धधर्म का । पलन होता था। सुभद्रा के पति की रुचि भी उसी ओर थी। मनुष्य किसी भी धर्म का पालन करे मगर उमका खोटा अभिमान करना और अपने कर्तव्य को भूल जाना बहुत बुरी बात है। सुभद्रा का स्नेह और विनय देखकर सभी उसका आदर करते थे । मुभद्रा और उमके पति बुद्धदास का प्रेम दिनोदिन वटता जाता था। पर सुभद्रा की मामको बौद्ध होने के कारण जैन साधुओ का आना-जाना अच्छा नहीं लगता था । सुभद्रा Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तृतीय भाग) (२०७ को वह कह नही सकती थी इस कारण मन ही मन कुढती और जलती रहती थी। ईर्ष्या और द्वेष मनुष्यता को भी कम कर देते हैं और अन्त मे मनुष्य अपनी मनुष्यता को गंवा बैठता है। एक दिन मौका पाकर बुद्धदास की माता ने उससे कहादेख अपनी स्त्री का चरित । अब तो मानेगा कि नही ? बुद्धदास देहली पर पैर रख ही रहा था। उसी समय माता ने यह वचन-बाण चला दिये । बुद्धदास ने देखा घर मे से निकलनेवाले जैन साधु के कपाल पर कुकुम का दाग लगा हुआ है। माता हमेशा बुद्धदास से झूठी-झूठी बाते भिडाया करती यी। वह कहती सुभद्रा का चालचलन खराब है । पर बुद्धदास यह मान नही सकता था। पर जब उसने साधु के कपाल पर कुकुम का दाग अपनी आँखो देख लिया तो उसे भी सदेह-हो गया । और जब सुभद्रा के ललाट पर भी उसने कुकुम का टीका देखा तो सदेह पक्का हो गया। ___ . सच्ची बात इस तरह थी । तप का पारणा करने के लिए मुनि पधारे थे। सुभद्रा ने बडी भक्ति के साथ आहारदान दिया। आहार देते समय सुभद्रा ने देखा--मनि की आँख से जमीन पर वूद पड़ा है । सुभद्रा ने मनि की आँख की तरफ देखा । आँख म कण पड़ा हुआ था । मनि को अपने गरीर की परवाह नही मगर भक्ति के कारण सुभद्रा मुनि का यह कष्ट न देख Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ( जैन पाठावली मकी । उसने मुनि से प्रार्थना करके, जीभ के द्वारा आँख में से कण निकाल लिया । कण निकालते समय सुभद्रा का कपाल मुनि के नजदिक आ गया और सुभद्रा के ललाट पर लगे हुए कुंकुम का दाग मुनि के कपाल पर लग गया । मुनि तो देह-दशा से मुक्त महायोगी थे। सुभद्रा भी एक गहासती थी । उमन छुने के लिए मुनि को नहीं छुआ था। मगर सास को तो बहाना चाहिए था और वह आज मिल गया । धर्म-द्वेष कितना अनर्थ उत्पन्न करता है ? सुभद्रा को झूठा कलक लगा दिया । बुद्धदास ने भी पूछ-ताछ किये बिना ही कह दिया-~'कुलटा कही की, निकल जा मेरे घर से' और उसने मुभद्रा को जबरदस्ती घर मे वाहर निकाल दिया। सुभद्रा बाहर जाकर खड़ी हो गई । सास ने गाँव भर में ढिंढोरा पीट दिया और लोगों का झुण्ड जमा हो गया। सुभद्रा ने, सच्चे दिल से बुद्धदास को ही अपना पति माना था। उसकी दृष्टि में अन्य पुरुप पिता और भाई के समान थे । एमी पवित्र सती की ऐमी दुर्दशा हुई। और सब कुछ नहन किया जा सकता है मगर कलक कैसे महन किया जाय ? गांव भर में वाते होने लगी। इस तरह की चर्चा में लोगो को बहुत मजा आता है। उन चारों को क्या पता कि दूसरे की गठी निंदा करने से कितना महान् पाप बॅधता है | और उस पाप को भोगते समय कितना कप्ट भोगना पड़ता है । 'सत्य बात Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) (२०९ जानकर खराब आदमी को सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए।' ऐसा नियम तो महान् पुरुष और स्त्रियाँ ही जानती है। पर सुभद्रा समझदार स्त्री थी। उसने अपने भाग्य का ही दोष समझा। उसने किसी की वात पर कान न देकर निर्णय किया--मुझे यह कलक धोना ही पडेगा । जब तक मेरा कलक दूर न होगा, मै अन्न पानी ग्रहण नहीं करूँगी। मस्तक पर धूप गिर रही है। भूक से पेट कुनमुना रहा है। पानी के बिना गला सूख रहा है। फिर भी सुभद्रा शान्ति के साथ खडी है । मन में प्रभु का नाम रट रही है, मुख में भी प्रभु का ही नाम है । सती की परीक्षा पूरी हुई । उसके कानो मे आकाशवाणी सुनाई दी_ 'सती ! तेरा कलक कल धुल जायगा। चिंता मत कर।' सुभद्रा ने शाति के साथ रात्रि व्यतीत की। सुबह हुआ द्वारपाल नगरी के दरवाजे खोलने लगे। उन्होने खोलने की वहुत कोशिश की, सारा जोर लगा दिया, मगर किवाड नही खुले । हार मानकर वे राजा के पास दौडे गये। नगर के लोग भी घबराये । लाख कोशिश करने पर भी नगर के दरवाजे खुलने का नाम नही लेते । थोडी देर में आकाशवाणी सुनाई दी-'कोई सती स्त्री, कच्च सूत से, चालनी से, कुएँ का पानी खीच कर दरवाजो पर छिडकेगी तो दरवाजे खुलेगे । राजा ने इसी आशय का ढिंढोरा पिटवा दिया । सुभद्रा Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ) ( जैन पाठावली क्रोध के मारे पागल अपनी सास से आज्ञा मांगने गई तो सास हो उठी । वह आग उगलने लगी- कुछ कसर रह गई हो । जा, उसे भी पूरी कर आ । तूने मेरे कुल को धब्बा लगाया कुलच्छिनी । ' कितने कठोर शब्द हैं। सुभद्रा ने विनय के साथ मस्तक झुकाया और का माताजी | आप आज्ञा दें तो मैं जा सकती हूँ । आपको खरे-खोटे का पता लग जायगा ।' क्रोध ही क्रोध में सास बोला तो चली जान, किस तुझे वाध रक्खा है ? . सुभद्रा जाने को तैयार हुई। हजारो आदमी देखने लिए इकट्ठे हो गए । शील के प्रभाव से शोभित सुभद्रासती रवान हुई। कुएं पर पहुँची तो वहा सव सामग्री तैयार थी उसने शासन देवी का नाम लेकर चालनी उठाई और कुएँ मे डाल दी । उस जव जल भर चुका तो कच्चे सून से जल भरी चालनी खीच ली उसने दरवाजे पर जल छिड़का और छिड़कते ही दरवजा खुल गया । इसी तरह दूसरा, तीसरा और चौथा दरवाजा खुल गया । यह सब देखकर राजा और प्रजा में अनन्द छा गया । सती सुभद्रा का जय-जयकार होने लगा । सती सुभद्रा की निन्दा करने वाले भी अव प्रशसा करने लगे । धिक्कारने वाले धन्य धन्य' कहने लगे । के सुभद्रा की सास ने आकर माफी मांगी। वह सुभद्रा मैरो मे पडने लगे, पर सुभद्रा ने उसे पकड लिया । फिर सुभद्रा Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) (२११ । ने कहा-माताजी, मै तो आपकी लडकी हूँ।' फिर कहा-मां । अब किसी को कलक मत लगाना । सास की आँखो से आँसू झरने लगे। चारो ओर सती का जय-जयकार हुआ । उसकी खूब कोत्ति फैली । धन्य है प्रभावशाली सती सुभद्रा को ! जो स्त्री अपनी आपको निर्बल-अबला समझती है, वह कुछ भी नही कर सकती। शैलक ऋषि राज्य त्याग त्यागी बने, शैलक ऋषि सुकुमार , वर्षों पाला त्याग-तप, अन्त हुए बीमार । पाई फिर नरोिगता किया न किन्तु विहार, देख शिथिलता तज गया, सकल शिष्य-परिवार । गुरु-सेवा करता रहा, पंथक गुण की खान, देख चरित उसका, हुआ शैलक ऋपि को भान || सेलकपुर मे शैलक राजा राज्य करता था। उसकी रानी ज नाम पद्मावती और पुत्र का नाम मडूक था। उसके पाँचसौं त्रिी थे। पथक उन सब मे बडा था। वह बहुत बुद्धिशाली और विनयवान् था। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२) (जैन पाठावली जहाँ मत्री अच्छे होते है वहाँ प्रजा सुखी होती है। वहाँ राजा और प्रजा मे प्रेम होता है। इसी कारण सेलकपुर के राजा और प्रजा के प्रेम की सब जगह प्रशसा होती थी। एक वार भगवान् अरिष्टनेमि के शिष्य थावच्चाकुमार विचरते-विचरते वही आये । उनके साथ बहुत से शिप्य थे। नगर के वाहर सुभूमिभाग नामक बगीचे मे उन्होने निवास किया। राजा और प्रजा वहाँ गये और उनका उपदेश सुना । मुनिराज का उपदेश शैलक राजा को बहुत प्रिय लगा। वह थावच्चाकुमार मुनि का श्रावक-शिष्य बना । पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षानत-यह श्रावक के बारह व्रत कहलाते है । पथक वगैरह मत्रियो ने भी यह व्रत धारण किये। सव भोग-विलास की मर्यादा करके आत्मा का कल्याण करने लगे। मुनि थावच्चापुत्र ने वहाँ मे विहार किया । उपदेश देते और विचरते-विचरते वे सौगधिका नगरी में पहुँचे और नीलाशोक नामक बगीचे मे उन्होने वास किया । उसी नगरी में एक सेठ रहता था। उसका नाम सुदर्शन था। सुदर्शन को शुक परिव्राजक पर श्रद्धा थी। वहुत-से लोग थावच्चापुत्र मुनि का उपदेश सुनने गये । सुदर्शन सेठ भी वहां गया। मुनि के उपदेश का उस पर बहुत असर पडा। प्रवचन पुरा हो चकने के बाद सुदर्शन सेठ ने बहत-से प्रश्न पूछे । उसके, मन का समाधान हो गया । अत मुनि पर उसकी श्रद्धा और बढ़ गई। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - तृतीय भाग) (२१३ यह बात शुक परिव्राजक को मालम पडी । उसने सोचामेरे शिष्य पर ऐसा प्रभाव डालने वाला कौन है ? वह अपने एक हजार तापसो को साथ लेकर थावच्चापुत्र मुनि के पास पहुंचा। उसने मुनि से कुछ प्रश्न किये ठीक उत्तर सुनकर उसे लगा कि ऐसे ही मुनि जगत् का कल्याण कर सकते हैं। अपने हजारो तापस शिष्यो के साथ शुक सन्यासी ने थावच्चापुत्र मुनि के पास दीक्षा लेली । उन्होने पांच महाव्रत स्वीकार किये और वह विहार करने लगे । विहार करते-करते वे शैलकपुर पहुंचे। कोई मुनि पधारे हैं, यह समाचार सुनकर राजा भी वहाँ गया । उपदेश सुनकर राजा ने भी त्याग का मार्ग ग्रहण करने का निश्चय किया। राजमहल में आकर मत्रियो की सलाह ली और मडूक को राज्य सौंपने की इच्छा प्रकट की। उसके पाँच सौ मत्री भी दीक्षा लेने के लिए तैयार हुए। शैलक राजा अब शैलक ऋषि हो गये। शैलकऋषि ने ग्यारह अगो का अभ्यास किया और बडे विद्वान् हो गये । शुकदेव गुरु ने पाच सौ मत्रियो को शैलक का शिप्य बनाया। शैलकऋषि अब पांच सौ शिष्यो के परिवार के साथ विचरने लगे । शैलक के आत्मबल और तप का क्या कहना । रूखा-सूखा खाते । वह भी कभी मिलता, कमी नही मिलता । यो करते-करते उन्हें पित्तज्वरका रोग हो गया। गांव-गाँव-विचरते हुए एक वार वे अपने ही गाँव मे पहुंचे। मडूक राजा उनके दर्शन करने गया ।-शैलक ऋषि को बीमार Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४) (जैन पाठावली देखकर राजा ने अपनी यानशाला में पधराने की प्रार्थना की। पांच सौ शिष्य के साथ गुरु गैलकऋषि यानशाला में पधारे । मंडूक राजा ने वैद्यो और औषधियो का सुन्दर प्रवन्ध किया। बीमारी का ठीक-ठीक निदान हुआ और औषध भी लागू हो गई । उन्हें खुराक भी अनुकूल मिलने लगी। थोडे दिनो में शैलक ऋपि का शरीर नीरोग हो गया। तब शिष्यो ने गुरुजी से विहार करने की प्रार्थना की। पर खुराक अच्छी मिलने के कारण शैलकऋषि का सयम शिथिल हो गया था। शिष्य इस बात को समझ गये। उन्होने सोचा-'गुरुजी ससार त्याग कर त्यागी बने है, लेकिन अब फिर फिसल रहे है । तन्दुरुस्त साधु को विना कारण एक ही जगह नहीं रहना चाहिए'। यह सोचकर शिप्यों ने विहार करने की उनसे आज्ञा मांगी और सवने विहार कर दिया। सिर्फ अकेले पथकमुनि गुरु की सेवा में रह गये। पथकजी ने दूसरे सब विचार छोड कर एक मात्र गुरु की सेवा मे ही मन लगाया। इस तरह कई महीने बीत गये। शैलकपि अव भी विहार करने का विचार नहीं करते। वे वढिया खाते हैं, पीते है और ऊघते रहते है । लेकिन पथकमुनि ऐसे गुरु की भी खूब भक्ति के साथ सेवा करते है। धन्य है ऐसे शिष्य और उनका धैर्य ! आज कार्तिक की पूर्णिमा का दिन है। पथकजी ने आज उपवास किया है। सध्या हुई और वे प्रतिक्रमण कर रहे हैं । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) (२१५ गुरुजी ने न उपवास किया है, न प्रतिक्रमण ही। वे नरम विस्तर बिछा कर पौढ़े हुए हैं । पंथकजी ने चौमासी प्रतिक्रमण किया। चार महिनो में अनजान में या जान-बुझकर हुए दोषो के लिए पश्चात्ताप किया। अपने अपराधो की क्षमा मांगने के लिए गुरुजी के चरणो मे मस्तक नमाया। इससे गुरुजी के आराम मे वाधा पडी। उन्हे क्रोध आ गया । वोले- कौन है यह?' पथकजी ने मधुर और धीमे स्वर मे कहा-'भगवन् । मै हूँ, आपका सेवक पथक । चातुर्मास समाप्त हो गया है । इसलिए मै क्षमा मांगने के लिए आपके पास आया हूँ और आपके चरणो में प्रणाम करने आया हूँ। आपकी निद्रा मे बाधा पड गई। इस अपराध के लिए भी क्षमा दीजिए गुरुदेव ।' इतनी नम्रता दिखलाने पर भी गुरुजी का क्रोध शान्त नही हुआ। निद्रा में विघ्न डालने के कारण उन्होने पथकजी को अनेक अपशब्द कहे। मगर पथ कजी ने धीरज रखकर, मीठे शब्दो से उन्हे मनाने की कोशिश की। पथकजी की नम्रता अद्भुत थी। उनकी नम्रता के आगे पत्थर भी पीघल सकता था। पथकजी को नम्रता और वचनो की मिठास से शैलकऋषि सचेत हुए। यह सोचकर कि, चौमासि प्रतिक्रमण के 'समय भी मै उंघता ही रहा, शैलकमुनि को पछतावा हुआ। वह सोजने लगे-मेरे शिष्य पथक को धन्य है, जिसने मुझे Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६) ( जैन पाठावली जागृत कर दिया । मुझे धिक्कार है कि भोग-विलास का त्याग करके भी मैं फिर उनके चक्कर में पड गया । मे आराम- तलव बन गया । इस प्रकार पश्चात्ताप आते ही उनकी आत्मा जाग उठी दूसरे ही दिन उन्होने विहार कर दिया और पुण्डरीक पर्वत की तरफ चल दिये । वहाँ उन्होने घोर तप करना शुरू किया । यह जानकर दूसरे शिष्य भी ऐसा करने को तैयार हुए । अन्त तक सब वही रहे । अपने चारित्र गुरु को वोध देनेवाले पथक शिष्य धन्य है । शिथिलता को क्षण भर में दूर करनेवाले शैलकऋषि धन्य है । LAE गजसुकुमार - ध्यान - लीन श्मशान में, गजसुकुमार मुनीश, हा ! सोमिल आया वहाँ रखकर मन में रीस | अंगारों से सिर जला, डिंगे न फिर भी लेश, सोमिल पर समता घरी, अन्त हुए परमेश ॥ जहाँ भगवान नेमिनाथ विराजमान थे वहाँ एक राजकुमार आया । राजकुमार का नाम गजसुकुमार था। उसकी चाल हाथी के समान गम्भीर थी और अग कमल के समान Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय- भाग ) (२१७ कोमल । राजकुमार गजसुकुमार श्रीकृष्ण वासुदेव के छोटे भाई थे । गजसुकुमार ने भगवान् नेमिनाथ का उपदेश सुना । पूर्वभव के अच्छे सस्कारो के कारण उन्हे भगवान् का उपदेश बहुत रुचा । माता-पिता की आज्ञा लेकर, छोटी उम्र में ही उन्होने भगवान् से दीक्षा ले ली । राजकुमार अब मुनि बन गये । कहाँ राजमहल और कहाँ वन विहार ? मगर गजसुकुमार का मन, मजबूत था । सच है - जिसने अपने मन को जीत लिया उसने सारे संसार को जीत लिया । गजसुकुमार मुनि ने भगवान् नेमिनाथ से कहा- 'भग वन्। मुझे मोक्ष का छोटे से छोटा मार्ग बतलाइए ।' भगवान् ने कहा- आयुष्मन् 1 ध्यान ही मोक्ष का छोटा मार्ग है। ध्यान की सिद्धि उस समय होती है जब शरीर के ऊपर तनिक भी मोह न रहे । सदाचार, संयम, ज्ञान और तप जिसने प्राप्त नही किये, वह इस मार्ग पर नही चल सकता । यह मार्ग जितना छोटा है उतना ही कठिन भी है । पर तूं इस मार्ग पर चल सकेगा, क्योकि तूने बहुत-सी बाते पा ली हैं । गजसुकुमार - तोभन्ते । एकान्त मे जाकर ध्यान करने की मुझे आज्ञा प्रदान कीजिए ।' भगवान् - हाँ वत्स | जा सकते हो। तुम्हारा भार्ग प्रशस्त हो । आत्म- ध्यान में मस्त हो जाओ। देखो, कैसे श्रीकष्ट आएँ तुम पर्वत की तरह अचल रहना । 7 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८) (जैन पाठावली . गुरु की स्वीकृति पाकर गजसुकुमार मुनि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होने गुरुजी को मस्तक झुकाया, आशीर्वाद लिया और एकान्त स्थान पाने के लिए चल दिये । मुनि एकान्त स्थान के लिए श्मसान मे गये । श्मसान के समान एकान्त स्थल और कौनसा मिलता। मसान अर्थात् मृतक मनुष्यो के आरोम लेने का स्थान । जहाँ गजसुकुमार मुनि पहुचे वह श्मसान इतना भयानक था कि अकेला आदमी विना घबराये रह नहीं सकता -था । मुनि ने वहाँ पहुच कर स्थान का प्रमार्जन किया, कायोत्सर्ग किया और आत्मा का चिंतन करने लगे। । आत्मभाव का रस तो जो जाने सो जाने | जिसने आत्मा को जान लिया, उसके लिए क्या जानना शेष रहा ? . गजमुकुमार ध्यान मे ऊँचे और ऊचे चढते जा रहे थे। उनकी काया स्थिर है। और उनकी वाणी तथा बुद्धि आत्मा से मिल गई है । इसी समय एक संकट आ गया, जिसकी कल्पना भी उन्होने नहीं की थी। बात यह थी। गजमुकुमार की सगाई एक ब्राह्मण की कन्या के साथ हो चुकीथी । कन्या के पिता का नाम था सोमिल । सोमिल को पता चला कि मेरा दामाद विवाह से पहले दीक्षा लेकर साधु बन गया है ! वम फिर क्या पूछना! सोमिल के क्रोध का पार न रहा। यो क्रोध का कारण साधारण था । · सभी जातियो में कुवारी कन्या का दूसरे पुरुप के साथ विवाह Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग)। हो सकता है मगर सोमिल तो पूर्वभव का लेनदार ठहय, सच्ची बात उसके ध्यान में कैसे आती ? सोमिल ने गुस्से ही गुस्से में विचार किया-सगाई करके, विना ही कारण, मेरी लड़की को त्यांग देने वाले इस साधुडे की अच्छी तरह खवर लेनी चाहिए।' इस तरह विचार करके वह गजसुकुमार की खोज में निकला। . ... उसने गजसुकुमार को श्मसान में खडा देखा। देखते ही उसके मन मे पहले भव का क्रोध भड़क उठा । उसने इधर उधर नजर दौडाई । कोई दूसरा आदमी वहाँ नजर न आया । अच्छा मौका मिल गया। उसने थोडी दूर चिता में खैर के अंगार देखे । मुर्दे को जलाकर लोग चले गये थे। सोमिल उन दहकते हुए अंगारो को उठा लाया और गजसुकुमार के पास गया । - गजसुकुमार मनि आत्मध्यान में स्थिर खडे थे। सोमिले को इससे और सुभीता हो गया। उसने , पहले गीली मिट्टी लेकर माथे के चारो तरफ पाल बनाई । मुनि का मस्तक जब सिगडी सरीखा बन गया तो उनमे अगार भर दिये । मुनि का शरीर सुकुमार था और सिर विना बालो का था। तड-तड करके चमडी तडकने लगी। अन्त मे खोपड़ी फट गई । आह | कितनी भयङ्कर वेदना मुनि को हुई होगी। मगर धन्य हैं मुनिराज गजसुकुमार । वे जानते थे कि आत्मा नित्य है और अनित्व शरीर है | इस ज्ञान के कारण वे आत्म. ध्यान में दृढ से दृढ़तर होते गए। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ) ( जैन पाठावली सोमिल ब्राह्मण पर उन्होने तनिक भी क्रोध नही किया । क्रोध वह करता है जो आत्मा को नही पहचानता । जो आत्मज्ञानी है वह क्रोध नही करता । मुनि ने सोचा - तेचारा सोमिल तो निमित्तमात्र हैं । इस दुःख का असली कारण तो मैं स्वय ही हूँ । मैने पूर्वभव में जैसे कर्म किये हैं, उनका फल भव भोगना ही होगा । अपने पूर्वकर्म को खपाने के लिए निमित्त मिल जाता है । उस निमित्त पर क्रोध करने से क्या लाभ है? गजसुकुमार मुनि ने सीधी बात सोची कि - दूसरो के ससुर तो कपडे की पगडी बंधाते हैं, पर मेरा ससुर मुझे मोक्ष की पगडी वधा रहा है ।' इस प्रकार सोमिल पर क्रोध न करके मुनिराज ने उसका उल्टा उपकार माना। वे आत्मा का ही विचार करते रहे और अन्त मे मोक्ष के अधिकारी बने । - धन्य है गजमुकुमार मुनि की क्षमा । धन्य है गजसुकुमार मुनि का ध्यान धन्य है गजमुकुमार मुनि की भावना 1 1 } वालको । इस उदाहरण से इतना जरूर समझ लेना कि वैर का बदला किसी न किसी भंव मे अवश्य चुकाना पडता है | बदला चुकाये विना कोई छुटकारा नही पा सकता । इसलिए किसी के साथ वैर मत करना । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' (२२१ . तृतीय भाग) . क्षमा एक बडा गुण है । इस गुण की बदौलत आखिर में शत्रु भी मित्र बन जाता है। • जो महापुरुष आत्मा और देह को जुदा-जुदा समझ लेता है, वह स्वय आगे बढकर अच्छे काम कर सकता है। मतलब यह है कि समझदार आदमी दूसरो के दोष नहीं देखता । वह दूसरे के गुणों को देखता है और अपने दोषो को देखता है । और फिर अपने दोपो को दूर कर देता है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यविभाग ' (१) प्रातः प्रार्थना ____ --00.00 (शिखरिणी छंद) प्रभो । अन्तर्यामी जगत-जन का तूं शरण है, पिता माता भ्राता अनुपम सखा भद्रकर है । प्रभा कीति कान्ति धन विभव सर्वस्व जन के, नमूं मै वर्दू में विमलसुख स्वामी जगत के ॥ असत्यो से स्वामी परम सत् की ओर कर दे, घना अधेरा है हृदय-थल आलोक भर दे। महामृत्यु में से अमृत-तट की ओर कर दे, वियोगी हूँ तेरा जिन दरस का दान कर दे । दयासिन्धो | देव प्रवर जलधे पुण्य-यश के, वहे ऐसी धारा सतत तुझ से देव । नित ही। अनोखी हो शान्ति सकल जग के जीवगण में, न व्याप किंचित् भी दुख-दरद पृथ्वी पर कभी॥ : Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , तृतीय भाग) (२२३ (२) प्रभु का नाम-रसायन . प्रभु-नाम का सेवे रसायन पथ्य पर पाले नही, तो लेश फल पावे नही भव-रोग भी जावे नही ।। हैं प्रथम पथ्य असत्य भाषण भूल कर करना नही, औ साथ ही निन्दा किसी की तथ्य' भी करना नही। अपनी बडाई आके ही वदन २ से करना नही, जिंदगी भर ३दुर्व्यसन सेवन कभी करना नही। आप सम सब प्राणियो को देख दुख देना नही, पर सम्पदा पाषाण है, यह जानकर लेना नही । । अन्त करण हो शुद्ध सात्त्विक सर्वदा न मलीन हो, दभ दुर्जनतादि दोषो में कदापि न लीन हो । माता समान लखे परस्त्री दृष्टि विकृत हो नही, तल्लीन हो प्रभु के भजन में व्यर्थ क्षण खोवे नहीं। मैं हूँ बडा अभिमान ऐसा चिल में करना नही, परमार्थ से सामर्थ्य होते पर भर हटना नही। स्वार्थ-साधन के लिए भी पाप आचरना नही, छल-कपट मायाचार अतिम श्वास तक करना नहीं ।। १ तथ्य-ठीक, सही । २ वदन-मुख ३ दुर्व्यसन-बुरी आदत ।४ दुर्जनतादि-दुर्जनता आदि । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४) ( जैन पाठावलीः सेवा जगत् के प्राणियो की. ईश-सेवा है मही, यह भावना अन्त करण मे से निकल जावे नहीं। यह ऊंच है, यह नीच है, यह भेद-प्रभुपथ मे न हो, सेवे रसायन ज्ञानयुत हो व्यग्रता मन मे न हो । प्रभु नाम का सेवे रसायन पथ्य भी पाले सही, ससार-मायाजाल मे मन को फंसावे भी नही । तो यह स्वय ही आत्मा परमात्मपद पावे अहो,' प्रभुनाम- की महिमा अनोखी, कौन कह सकता कहो ?।। (३) पाँच इन्द्रियों के विषय (१) त्वचा का विषय स्पर्श लेने करी के दात वन मे वास तण गडहे भरे, झूठी बनाकर हस्तिनी उसके समक्ष खडी करे । वह हस्तिनी गज के लिए तो मृत्यु का ही धाम है, सोच मानव | विपय-विप का क्या बुरा परिणाम है । (२) जीभ का विषय रस पहुंच सागर-तीर धीवर जाल फैलाता अहो, पर मत्स्य बेचारे कपट-छल को कहाँ जाने कहो ? हा! जीभ की ही गद्धि' से बस अत काम तमाम हैं। सोच मानव ! विपय-विप का क्या बुरा परिणाम है । - - १. गज-हानी। २. गद्धि-लालच । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L ! { तृतीय भाग ) 11 ८२२५ (३) नाक का विषय गन्ध बैठता भौरा कमल पर - गन्ध का लोभी बना, फिर बन्द हो जाता उसी में गन्ध-लोलुपता सना । आता द्विरद? खाता कमल लेता भ्रमर के प्राण है, सोच मानव ! विषय-विष का क्या बुरा परिणाम है ॥ (४) आंख का विषय रूप हाथ मे ले - दीप कहिए कूप में को जात है. -दीप- की युति देख किन्तु पतग मन ललचात है । वह दीप में ही भस्म होता मूर्खता अप्रमाण है, सोच मानव ! विषय विष का क्या बुरा परिणामहे || (५) कान का विषय शब्द वन में शिकारी पहुँचकर गाता मधुर संगीत है, | भोला हिरन जाता निकट होता नही भयभीत है । हा । तब शिकारी प्राण लेने छोड देता बाण है, सोच - मानव ! विषय-विष का क्या बुरा परिणाम है ।। द्विरद हाथी । २ अप्रमाण बेहद । 4 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६) 1 } ( जैन पाठावली राग-माढ 1 जयवता प्रभु वीर, हमारा जयवन्ता प्रभु वीर, शासन-नायक धीर, हमारा जयवन्ता प्रभु वीर । शास्त्र - सरोवर सरस आपका तत्त्व-सुधा भरपूर, नित्य नहाते तरते उसमे होवे कल्मष दूर || हमारा ० ॥ सात्विकता से उद् गम जिसका, वास्तविक तत्त्वस्वरूप, आस्तिकता मे रमिये उससे हो, आनद अनूप ॥ हमारा ० आप प्रकाशित ज्ञान-बगीचे, खिले सुरभिमय फूल, सरस सुगधित वायु-लहर में, हैं हम सब मांगूल | हमारा ० ॥ नाम आपका निशिदिन प्यारा, भविजन जीवन-मूर, उसके लिए प्राणधन देने, हम सदैव मजूर | हमारा ० ॥ मार्ग बताकर मेरे ऊपर, किया महा उपकार, ' अर्पण करे समस्त तथापि, होय न प्रत्युपकार || हमारा ० ॥ चरण आपके शरण हमारे, मरण - जन्मभय दूर, लोभी चातक रत्न- चन्द्र, सम तव दर्शन आतूर || हमारा ० ॥ ( मूल लेखक शता मुनि रत्नचन्द्रजी म. ) 1000 (४) प्रभु महावीर Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तृतीय भाग) (२२७ . (५) देखो रे देखो रे जैनो . ... महापुरुष देखो रे देखो रे जैनो ! कैसे व्रतधारी, कसे व्रतधारी पहले हुए नर-नारी । देखो० ।। . , देखो देखो जम्बूस्वामी, बालवय मे बोध पामी, तजी राजऋद्धि सारी, तजी आठ नारी, . तजी आठ नारी उनको वदना हमारी । देखो० ॥ गजसुकुमाल प्यारे, माथे सहे हैं अंगारे, अचल रहे वे योगी, डिगे न लगारी, डिगे न लगारी उनको वदना हमारी ।। देखो० ॥ कोशा के मन्दिर मध्य रहे मुनि स्थूलिभद्र, वेश्या घर वसने पर भी, हुए न विकारी ।। । हुए 'न विकारी उनको वदना हमारी । देखो० ।। महासती राजुल जैसी मिले दूसरी न ऐसी,. . पतिव्रत पालन करने, रही वह कुँवारी, रही वहाकुंवारी उनको वदना हमारी । देखो० . 1' : सती थी कलावती महा, शखपुर माहि अहा ! कर निजे कटे तो भी रही टेकधारी, । १ रही टेकदारी उनको वदना हमारी ॥ देखो० ॥ जनकसुता वह सीता, एक युग पूरा वीता, Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८.) (जैन पाठावली, घोर दु.ख भोगे तो भी डिगी न लगारी । डिगी न लगारी उनको वदना हमारी ।। देखो० ॥ दिये दु ख खूब देव भोगे सब कामदेव, भोग कर भी दुःख अहा ! डिगे न लगारी । डिगे न लगारी उनको वदना हमारी । देखो०' ।। धन्य धन्य वे नरनारी, ऐसे दृढ धर्मधारी, जीवित सुधारा सारा, पाये भव पारी, पाये भव पारी उनको वंदना हमारी । देखो. ।।। (६) भावना - - रात्रि में शीघ्र सो करके सुबह जल्दी उठूगा मे, जिनेश्वर का भजन करके हृदय निर्मल बनाऊँगा ॥१॥ पिता-मातादि गुरुजन का तथा निज मातृभूमि का, चुकाने के लिए कर्जा सदा कर्तव्य पालुंगा ॥२॥ मधुर अरु सत्य बोलूंगा मिले खारा कि या मीठा, भाग निज बधुओ को दे करूँगा मैं सदा भोजन ॥ ३ ॥ भले मोटी रहे खादी हमारी है वह आबादी, . सादगी स्वच्छता वाले अहिमक वस्त्र पहनूंगा ।। ४ ।। कलह को हाय जोडूंगा न न्यूनाधिक गिनूंगा मैं, Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग ) (२२९. दान देकर खुशी होना खरा यह धर्म धागा ॥ ५ ॥ वीर सन्तान बनने पर है डर किसका बताओ तो ? मिला जो सत्य परवाना उसे ले स्वर विचरूँगा ॥६॥ नीति नेकी अचल प्रीति अहिंसा वीर की नीति, रमा करके हृदय में हम जगत् मे शान्ति फैलाएं ।।७।। " (७) धुन - ॐ अन्तर्यामी देव ''शुद्ध चित्त हो करूं सेव, - चित्त शान्ति नित्यमेव, . ॐ अन्तर्यामी देव! (२) अभिमान तजो, अभिमान तजो, प्रभु बनने को अभिमान- तजो । भगवत्त भजो भगवन्त भजो, भव अन्त करन भगवन्त भजो Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- २३०...... .(जन पाठावली (८), मेरी भावना जिसने राग द्वेष कामादिक, जीते सब जग जान लिया । सब जीवो को मोक्ष-मार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया ।। बुद्ध, वीर, जिन हरिहर, ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो। भक्ति-भाव से प्रेरित हो यह, चित्त उसी में लीन रहो ॥ १॥ विषयो की आशा नही जिनके, साम्य-भाव धन रखते हैं। निज-पर के हित-साधन में जो, निश-दिन तत्पर रहते हैं । स्वार्थत्याग की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते है। ऐसे ज्ञानी साधु जगत् के, दुःख समूह को हरते हैं ॥२॥ रहे सदा सत्सग उन्ही का, ध्यान उन्ही का नित्य रहे । उन ही जैसी चर्या में यह, चित्त, सदा अनुरक्त रहे ।। नही सताऊ किसी जीव को, झट कभी नही कहा करू । परधन वनिता पर न लुभाऊ, संतोषामृत पिया करू ॥ ३ ॥ अहंकार का भाव न रवख, नही किसी पर क्रोध करू । देख दूसरो की बढती को, कभी ने ईप्याभाव धरूं ॥ रहे भावना ऐसी मेरी, सरल-सत्य-व्यवहार करू । बने जहाँ तक इस जीवन मे, औरो का उपकार करु ॥४॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भाग) - मैत्री-भाव जगत में मेरा, सब जीवो से नित्य रहे। दीन-दुखी जीवो पर मेरे, उरसे करुणा-स्रोत बहे ।। दुर्जन-क्रूर कुमार्गरतो पर, क्षोभ नही मुझको आवे। 'साम्यभाव रक्खू में उन पर, ऐसी परिणति हो जावे ॥ ५॥ गुणी-जनो को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड आवे । बने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे ॥ होऊ नही कृतघ्नं कभी मैं द्रोह न मेरे 'उर आवे । 'गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषो पर जावे ॥६॥ कोई बुरा कही या अच्छा, लक्ष्मी आवे' या जावे'। लाखो वर्षों तक जीऊ या, मृत्यु आज ही आ जावे ॥ अथवा कोई कैसा ही भय, या लालच देने आवे । तो भी न्याय मार्ग से मेरा, कभी न पद डिगने पावे ॥७॥ होकर सुख में मग्न न फूले, दुख मे कभी न घबरावे । पर्वत-नदी स्मशान-भयानक, अटवी से,नेही भय खावे ॥ रहे अडोल-अकम्प निरन्तर, यह मन दृढतर बन जावे । इष्ट-वियोग अनिष्ट-योग में, सहन शीलता दिखलावे ॥८॥ सुखी रहें सब जीव जगत् के, कोई कभी न घबरावे। वर-पाप अभिमान छोड जग, नित्य नये मगल गावे ॥ घर-घर चर्चा रहे धर्म की दुष्कृत दुष्कर हो जावे। ज्ञान चरित उन्नत कर अपना, मनुज जन्म फल सब पावे ॥९॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...२३२) (जन पाठावली ईति-भीति व्यापे नही जग मे, वृष्टि समय पर हुवा करे। धर्मनिष्ठ होकर राजा भी, न्याय प्रजा का किया करे ।। रोग-मरी दुभिक्ष न फैले, प्रजा शान्ति से जिया करे । परम अहिंसा धर्म जगत मे, फैल सर्वहित किया करे॥१०॥ फैले प्रेम परस्पर जग मे मोह दूर पर रहा करे । अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं, कोई मुख से कहा. करे ।। । वनकर सब 'युग-वीर' हृदय से, देशोन्नतिरत रहा करे । वस्तुस्वरूप विचार खुशीसे, सबदु ख-सकट सहा करे ॥११।। - समाप्त Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 1 - - - पालो परीक्षार्थियों से-- र शरीर के लिए खुराक जितनी आवश्यक वस्तु है, आत्मा रे॥ लिए धार्मिक (आध्यात्मिक) शिक्षण उतना ही जरूरी है। कोमिक शिक्षा को व्यवस्थित रूप देने के लिए और शिक्षण / स्थाओ में सफलता लाने के लिए ही श्री तिलोक रत्न स्थानके वासी जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी की स्थापना हुई है। / स्थाएं परीक्षा बोर्ड में अधिकाधिक संख्या में छात्रो को सम्मि" त करा रही हैं और छात्र भी इस दिशा में विशेष उत्साह / खा रहे हैं, यह समाधान का विषय है। परीक्षार्थियो की // विधा के लिए वोर्ड ने पुस्तक प्रकाशन विभाग स्थापित किया / विद्याथियो को इस विभाग द्वारा प्रकाशित पुस्तको का ग्य लाभ उठाना चाहिए। मन्त्री--पुस्तक प्रकाशन विभाग घो ति. र. स्था. जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी (अहमदनगर) 'सुधर्मा मासिक पत्रिका' परीक्षार्थियों के ज्ञान-विकास हेतु इस पत्रिका का प्रका-- शन परीक्षा बोर्ड द्वारा प्रारम्भ किया गया है / विद्यार्थियों के लिए चार्पिक शुल्क केवल 5 रु. निर्धारित है। सुधर्मा कार्यालय Po पाथर्डी ( अह म द न ग र ) - - - - - -