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________________ जैन पाठावली) - अलग होते हैं परन्तु नये आकर चिपकते भी हैं। जहाँ तक अज्ञान है वहाँ तक आश्रव ( कर्मो का आगमन ) रुक नहीं सकता है इसीलिए निर्जरा के पहिले सवर तत्त्व रक्खा गया है। सवर ( कर्मो का आना रुक जाने ) के बाद आचरण की जाने वाली निर्जरा सकाम निर्जरा है। सकाम निर्जरा वाला-आत्मज्ञानपूर्वक कर्मों का क्षय करने वाला होने मे पुन कर्मों के चिपकने की सम्भावना नहीं रहती। कारण अथवा मार्ग कर्म रोकने के (सवरके) जो कारण कहे गये है, वे केवल संबर के लिए ही कारणभूत हैं, ऐसा नही, वे ही कारण कर्मों का क्षय करने में (निर्जराम) भी सहायक होते हैं। इनके सिवाय अन्य मार्गों द्वारा भी कर्मो की निर्जरा हो सकती है। वे इस प्रकार हैं-बाह्य और आभ्यतर तप । दोनो प्रकार के तप निर्जरा __ के कारण कहे गये है। वाद्य नप ६ प्रकार का है-१ अनदान, २ उणोदरो, ३ रसपरित्याग, ४ वृत्तिसक्षेप, ५ सलीनता और ६ कायक्लेश । आतरिक तप भी प्रकार का है- प्रायश्चित्त, २ विनय, बंगावृत्य, (सेवा) ४ स्वाध्याय, ५ वायोत्सर्ग और ६ ध्यान । तप का वास्तविक अर्थ वासना में उत्पन्न हने वाली इच्छा को रौंदना--- रोपना हो तप है ।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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