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________________ १५४) (जैन पाठावली नही लगता । उसका चित्त स्थूलभद्र मे ही लगा था। यह बात जग-जाहिर हो गई थी। कोशा को स्थूलभद्र मे स्वर्ग दिखाई देता और स्थूलभद्र को कोशा के बिना सारा संसार सूना । लगता था। दोनो के दिल साथ-साथ धडकते थे।। कैसी अटूट प्रीति । मगर भीतर मोह था । अमृत के बूदो मे जहर मिला हुआ था। दोनो उस जहर को पीते फिर भी उन्हे सतोष नही था। उनकी आसक्ति वढती गई। आग में घी होमने से आग कमी तृप्त नही होती। मृगजल से कभी प्यास बुझ सकती है ? ___ कोशा के घर रहते-रहते बारह वर्ष बीत गये । एक दिन एक सेवक ने आकर खबर दी कि आपके पिताजी बीमार पड़े हैं । पिता, पुत्र को देखने के लिए तरस रहा था पर भेजे हुए सदेश वृथा जाते थे। गणिका के मोह मे फँसकर स्थूलभद्र ने पिताजी की विमारी की भी परवाह नहीं की। यहाँ तक कि अन्तिम सेवा का लाभ लेने की भी परवाह नहीं की। वीमारी बढ़ गई। मृत्यु का समय आ गया । अब का वार खास आदमी के साथ स्थूलभद्र को बुलावा भेजा गया । पिनाजी ने कहलाया- 'वेटा स्थूल | मिर्फ मुंह दिखाकर वापिस लोट जाना' मगर स्यूलभद्र इस संदेश को भी पी गया । उसके लिए तो कोगा ही सर्वस्व थी। मनुष्य जब मोह से अन्धा हो जाता है तो मनुष्यता को भी भूल जाता है।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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