SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ('तृतीय भाग पुण्य का फल क्या ? पुण्य के संयोग से धर्म करने के ४२ साधन प्राप्त होते है । वे कर्मभेद के शुभ विभाग में बतलाये गये है । उनमें मनुष्यगति, देवगति, सुन्दर और शरीर अच्छा व्यक्तित्व आदर्श प्रभाव आदि पुण्य के ही फल है किन्तु यदि इनका उपयोग धर्म के लिए नहीं दिया जाय तो ये पाप अथवा अधर्म के कारण बन जाया करते हैं । लिए पुण्य को फल नही मानते हुए गाधन ही मन नाहिए इन्हें मोक्ष नगरी मे नही पहुंच जाय वहां तक सरक्षक ही मानना चाहिए और उन्हें केवल फल मानकर भोगविलाम में हो बासक्त नहीं रहना चाहिए । ८२) अन्त में तो साधन ( पुण्य ) त्याज्य ही है-- हेय ही है और ऐना रामजन पर ही इने छोड़ा जा सकेगा । पाप क्या है ? नी तत्त्वों में पुण्य और पाप को स्वतंत्र तत्व के रूप में स्थान दिया गया है किन्तु धर्म और अधर्म की स्वतंत्र तन्त्र रूप में स्थान नहीं दिया है, धर्म का समावेश संबर में और धर्म का गमावेश आयव तत्त्व में हो सकता है और कितने ही आगार्यो ऐना किया भी है, उनकी दृष्टि में पुण्य यह 'शु आश्रय' है और वह 'अशुभ आश्रव' है । के अनुसार यदि पुण्य क्रिया धर्मानुलक्षी हो तो किया जानन के स्थान पर सबर के लिए साधन कोनियाओं की शुभकर्म अथवा या गया है। यदि ये ही क्रियाए । धर्म दक्ष्य कर मी जेवतो व पुण्य भी गवर का निमित्त बन जाता है ।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy