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________________ - ८४) (तृतीय भाग पुल के कारण से होती है । पुण्य के फल से सर्वथा विपरीन और अतितुच्छ ऐसा पाप का फल ८२ प्रकार से भोगना पन्ना है। उन ८२ भदो का सार इस प्रकार है - ८ः प्रकार के कर्म-वर्णन गे अनिष्ट आदतो को देव लेना चानिए । न कगति, तिर्यच की नीचगति, न्यून इन्द्रियो को प्राप्ति, अज्ञान, अति निद्रा, दुख, मोह, अति क्रोध, मान, माया, लोभ आदि, कुरूप शरीर, रोगी गरीर, दुर्वल गरीर, दुगध गरीन, अपचग वाली दगा, कठिनाइयाँ आदि अनिष्ट और तुन्छ नाधन पाप के ही परिणाम है , इसलिये प्रत्येक स्थिति में पाप तो छोटने योग्य ही है । आश्रव कर्म को नाधारण व्यास्या तो कही जा चुकी है और विशेष जागे कही जाएगी । आश्रव अर्थात् आत्मा के पास कर्म का आगमन । शुभकर्म का आगमन पुण्य अर्थात् शुम आघव और मवम का आगमन पाप अर्थात अशुभ आश्रव । पुण्य, कर्मों में आश्रय रूप है फिर भी एकान्त स्प से पोरने योग्य नहीं है, पारण कि यह भी कमरहिन अवस्था (ग्राादमा) ना पहनाने में माधन प है, साध्य को दृष्टि में गाने हा नाधन नप पुष्य का अच्छा उपयोग करने योग्य ही है । जो गुप्य से ही माध्यम्प में मानकर बैठ जाय' उने पुरानो नाम में नहीं मानने के लिये समझना चाहिये, किन्तु गमावां देने के लिए नहीं कहा जा सकता है । जगे नोट:-रण्य में आत्मा प्रगन ने वग गे होता है, जब धर्म गदर में दुगा, मामा के यम में होता है।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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