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________________ जैन पाठावली.) (८५ लघन करने का विधान स्वस्थ होने के लिये ही कहा जाता है, किन्तु इसका अर्थ सर्वथा भोजन त्याग देना नहीं है, अन्यथा अर्थ के स्थान पर अनर्थ की सभावना हो सकती है, वैसे ही ' "पुण्य हेय है" का कथन उसी दगा को लक्ष्य में रखकर कहा गया है न कि सर्वया त्याग करने के लिये । हां पाप तो सदैव के लिये छोडने योग्य ही है। इस लिये पाप ज्ञेय (जानने योग्य) कहा जा सकता है किन्तु एकत्र करने योग्य नहीं कहा जा सकता। तुलनात्मक दृष्टि से यदि एक ओर अधर्म हो और दूसरी और पाप हो, तो अधर्म की अपेक्षा पाप को ठीक माना जायगा जैसे, मनुष्य कायर बने तो यह अधर्म कहा जायगा इसकी अपेक्षा तो आक्रमण करने वाले का सामना करे और ऐमा करते हुए कोई अनिष्ट काम कर डाले तो भी वह भागने वाले कायर की अपेक्षा ऊंचा है । माहन के साथ सामना करने के लिए जो सडा रहता है वह प्रजपनीय होता है, किन्तु अनिष्ट मिया करने वाला प्रशमनीय नही होता है वह तो हेय ही माना जायगा । किन्तु कोई विरतापूर्वक सामने सडा रहा और समगाय स्थिति बराबर कायम राखी तो वह धर्म पर स्थिर रहा, ऐमा गाना जायगा । यही नर्वोत्तम ब-है, ऐमा धार्मिक पुरुष जो क्रिया करेगा यह गास्म में उन्लेखनीय होगी अर्थात दह ऐलो क्रियाएँ करता हआ भी कम-बन्धनी को काटता रहेगा। किन्तु पनी स्थिति में रहने वाले पुरा में पदि समभावो का माय रहा और भिमान भाव जागृत हुआ और जहकार किया तो उसने पुण्य कमाया नहीं माना जायगा, किन्तु धर्माचरण नहीं नहा जाएगा।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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