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जैन पाठावली)
पाठ बीसवाँ चौथा अणुव्रत [थूल मेहुण वेरमण ]
मूलपाठ चउत्थं अणुव्वयं थुलमेहुणवेरमणं, 'सदारसंतोसिए अवसेसमेहुणविहिपच्चवखाणं', जावज्जीवाए दिव्वं दुविह तिविहेणं न करेमि न कारवेमि, मणसा क्यसा कायसा, मणुस्सतिरिक्खजोणिय एगविहं एगविहेणं न करेमि-कायसा।
एअस्ससदारसंतोसस्ससमणोवासएणं पंच अइयारा जाणियन्वा, न समायरियव्वा । तंजहा
(१) इत्तरियपरिग्गहियागमणे (२) अपरिग्गहियागमणे (३) अणंगकीड़ा (४) परिविवाहकरणे (५) कामभोगतिव्वामिलासे, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
अर्थ चौथा अणुव्रत-रयूल मैवन (मभोग) में विरमण , अपनी -श्राविका को "ममत्तारसनोगिए" कहना चाहिए। २-आजीवन ब्रह्मचारी को इस प्रकार पाना चाहिए - 'जेमि परिसाण (इन्थीण)कायाए सब्बाओ मेहणाच्नक्खाण
तेमि दिवमाणुम्सतिरिवाजोणियसंवधि मेहुणस्स पच्चक्लाण' ३-धाविका को गमतारमतोसम्म' बोलना चाहिए । ४-माविका को 'नगणोवामिएणं' बोलना चाहिए।