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________________ जैन पाठावली) २१) उप अर्थात नजदीक, योग अर्थात जोडना । जो आत्मा के निकट जड़े हुए है, उन्हे उपयोग कहते है । ऐसा कोई आत्मा नही है जिसमे पूर्वोक्त बारह उपयोगो मे से थोडे-बहुत उपयोग न हो। उपयोग का सामान्य अर्थ है जानना । और ऐसा कोई आत्मा नहीं है जो जानता न हो। सच्चा, झूठा, थोडा या वहुन जान प्रत्येक आत्मा मे होता ही है । जान न हो तो आत्मा ही न रहे-जड हो जाय । इसी कारण शास्त्रकारो ने x उपयोग को जीव का लक्षण बतलाया है । ऊपर वतलाये हुए वारह उपयोगों में से केवलज्ञान और केवल दर्शन-ये दो उपयोग तो पूरी तरह विकास को प्राप्त आत्मा में ही होते हैं। शेष १० उपयोग उन आत्माओ में होते है जिनका पूर्ण विकास नहीं हो पाया है । मगर किसी आत्मा मे कम और किसी में ज्यादा होते है । योग और उसके भेद - ज्ञान और दर्शन आत्मा से अत्यन्त निकट होने के कारण उपयोग कहलाते है । मगर मन, वचन और काय, ये तीनो उपयोग के भी साधन होने के कारण 'योग' कहलाते है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के अभाव में केवल ज्ञान नही हो सकता । और मन, वचन और काय न हो तो मतिज्ञान-श्रुतज्ञ न नहीं होते। इसलिए मन, वचन और काय को योग कहते है । यद्यपि योग तीन हैं मगर विशेष भेदो को देखते हुए उनके पन्द्रह भेद इस प्रकार होते है उपजोगलक्सणे जीवे- ( भगवती मूत्र )
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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