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________________ १०६) ( तृतीय भाग; ( 2 ) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयुष्य ( ६ ) नाम, (७) गोत्र और (८) अन्तराय | आठ कर्मो के लक्षण ( 9 ) जिसके द्वारा आत्मा का ज्ञान गुण आच्छादित हो जाय, वह कर्म 'ज्ञानावरणीय' है । ( २ ) जिसके द्वारा दर्शन अथवा सामान्य ज्ञान आच्छा - ' दिन हो जाय, वह कर्म 'दर्शनावरणीय' है । (३) जिसके द्वारा सुख दुख का अनुभव हो अथवा इष्ट अनिष्ट का सयोग प्राप्त हो, वह कर्म ' वेदनीय' है । ( ४ ) जिसके द्वारा आत्मा मोहग्रसित हो अथवा विषयकषाय, राग-द्वेष की प्राप्ति करावे, वह कर्म 'मोहनीय' है । (५) जिसके द्वारा भिन्न-भिन्न भव धारण करने पडे, दह कर्म 'आयुष्य' है । (६) जिसके द्वारा आत्मा को ऊँच नीच गति प्राप्ति हो अथवा एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय आदि रूप जाति की प्राप्ति हो और जो जीव को शरीर आदि की प्राप्ति करावे, वह ' नामकर्म' है । । 1 ( ७ ) जिसके द्वारा उच्च गुणो अथवा नीच गुणो का सयोग आत्मा के लिए प्राप्त हो, वह 'गोत्रकर्म' है । (८) जिसके कारण से आत्मा की वीर्य शक्ति अथवा लेने ★ देने की शक्ति सकुचित हो, उस कर्म का नाम ! अन्तराय' है ।
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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