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( जैन पाठावली 'यथासुख देवानु प्रिय ! अब प्रतिबन्ध त हो ।' ऐसा कह कर प्रेरणा दी।
पत्नियो से आज्ञा लेने में उसे देर न लगी । फिर वह अपने माता-पिता के पास आया और नमस्कार करके बोला'पूज्य माताजी और पिताजी ! मै दीक्षा ग्रहण करके मनुष्यजन्म को पूरी तरह सार्थक करना चाहता हूँ।'
पिता ने कहा-बेटा! 'तूं अकेला ही मेरा सहारा है । हमारे बुढापे मे तुझे हमारी सेवा करनी चाहिए। राजगद्दी का भार संभाल कर प्रजा का पालन करना चाहिए। दीक्षा लेने से ही , मनुष्य-जन्म सार्थक होता है और दीक्षा लिये विना कल्याण हो
ही नहीं सकता ऐसा- भगवान् का कहना नहीं है। गृहस्थाश्रम मे रह कर कर्तव्य का पालन कर। अभी तूं छोटा है । जब बड़ा हो जाय तो भले सयम धारण करना । तूं पाँच सौ पलियों का स्वामी है । अभी घर में पालना भी नही बंधा है। तेरी मतान देखने पर हमारे नेत्र शीतल होगे । वत्स | तेरे जैसे सपूत बेटे भी मां-बाप को छोड जाएँगे तो दुनियाँ रसातल मे नही चली जायगी ?' इतना कहते-कहते पिता का गला भर आया।
कुमार ने कहा- 'पिताजी | आपको दुखी करके में नहीं जाना चाहता । इसीलिये तो आरके चरणो मे गिर कर प्रार्थना कर रहा हूँ। संतान का होना या न होना कोई महत्त्व की बात नही है। फिर सतान होकर भी जिंदा रहे या ना रहे, अच्छी निकले या खराब, यह कौन जानता है ? इसलिए 'सतान का भरोसा करके बैठना उचित नहीं है।