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________________ - - तृतीय भाग) (१४६ गृहस्थाश्रम में रहकर भी कदाचित् कल्याण की साधना हो सकती है । ऐसी साधना करने वाले वेष से गृहस्थाश्रमी होगे मगर भावना से तो वे भी साधु ही रहे होगे। पिताजी! अपका बुढापा मेरी पत्नियाँ सेवा द्वारा अवश्य सुधारेगी। ऐसा कहकर में जबाबदारी से छुटकारा नही पाना चाहता । मैं अपने हृदय के सच्चे वेग का इस अनुपम समय पर उपयोग कर डालने के - लिए कहता हूँ । पिताजी । इस छोटे-से राज्य की धुरा ,को धारण करने के बदले में विश्व-राज्य धुरा को धारण कर सकू, इसके लिए मुझे आप आशीर्वाद दीजिए । ऐसा बनने के लिए मुझे तुरत जाना चाहिए । यहाँ पल भर का भी कहाँ भरोसा है? मौत किसे छोडती है ? और कौन जाने वह कब झपट्टा __मार दे?'' - . . पुत्र के. विनय और वैराग्य से भरे वचन · सुनकर पिता पिघल गये । उन्होने आशीर्वाद के साथ दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी। मगर माता का मन अब भी नही मानता था। माता न कहा-'बेटा | माता के हृदय मे पुत्र-स्नेह का अखड झरना चहत्ता रहता है । तूं इस बात को कैसे समझ सकता है ? इसे अनुभव करने वाला ही समझ सकता है । जव सतान। गर्भ मे जाती है तभी से माता-पिता का सतान के साथ देह और मन के द्वारा सबधा जुड़ जाता है । सतान कैसी ही क्यो न हो, फिर भी मेरा लाल' कहकर पगले, कान-कबडे पुत्र के माथे पराभी माता तो प्यार का हाथ फेरती ही है। तो फिर तेरे जैसे पुत्ररत्न
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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