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________________ (५९ - - जैन पाठावली) पाठ सत्रहवाँ तीसरा अस्तेय व्रत ' ( स्थूल-अदत्तादान से विरमण ) 'ध्यारमा:___अदत्तादान अर्थात् विना दिया लेना । इसे चोरी कहते है और स्तेय भी कहते है । आज्ञा लेकर लेना अस्तेय है। जिस वस्तु का मालिक कोई दूसरा हो, वह भले ही तिनके की तरह बिना कीमत की ही क्यो न हो, फिर भी उसके मालिक की आज्ञा लिये विना उसे ले लेना म्तेय है। विना हक का धन (परिग्रह) इकट्ठा करना भी चोरी ही है । चोरी पाप क्यो ? चोरी करने से भय उत्पन्न होता है । समाज का अविश्वास बढता है। दूसरं लोगो की गान्ति भग होती है। इसलिए महान् दोप है । चोरी करने में हिमा और असत्य दोनो दोप होते हैं । इसलिए किसी का अदत्त नहीं लेना चाहिए । चोरी की कुटेव : बालक आपस में एक दूसरे की कलम या पैन्मिल, चुरा लेते है । अव्वल नम्बर आने के लिए या पान होने के लिए चोरी करते हैं या देखकर नकल कर लेते हैं। दूसरे की बानगी मे गुप्त बात सुनकर उसका गलत अर्थ करते है । दूसरे का गुप्त
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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