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________________ ( तृतीय भाग इस प्रकार आश्रव के कारण का मूल अज्ञान है | ज्ञान होने पर उपर्युक्त कितनीक क्रियाएँ तो नही लगती हैं और कुछ एक होती हैं वे पाप अथवा अधर्मरूप नही होती हुई धर्मरूप बन जाती हैं । भावना आश्रित कर्मबन्धन - ९०) यहाँ शका होती होगी कि अज्ञान के दूर हो जाने प जो थोडी बहुत क्रियाएँ होती हैं, वे धर्मरूप कैसे बन जाती है। इस सबंध में पहले हेतु दृष्टान्तो से हम देख चुके हैं वि धर्म अधर्म, पाप और पुण्य का वास्तविक कारण अपना म है । रोग निवारण के लिए ऑपरेशन किया जाय तो वह पा नही कहा जाता है । इसके विपरीत यदि ऑपरेशन करने वाल समभावी होगा तो उसकी यह क्रिया धर्म ही कही जावेगी । आत्मा के इन पवित्र विचारो के कारण से देहदुख का विचार करते करते वह कर्मो की निर्जरा भी करेगा । जब कि शत्रुभावना से किया जाने वाला शस्त्रप्रहार भले ही खाली जावे, तो उस हिंसक - मनोवृत्ति वाले को - पापबन्धन होगा ही ओर यदि उसकी आत्मा गभीर वैरभाव मे सलग्न हुई होगी तो वह अधर्म का भागी भी होगा । 7 इस प्रकार प्रत्येक स्थिति में समझ लेना चाहिए | इसके उपरान्त जो क्रियाएं व्यक्तिगत, कुटुम्बगत, समाजगत, देशगत व्यापकरूप से खराब होती है उन क्रियाओ का उल्लेख अथवा
SR No.010283
Book TitleJain Pathavali Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
PublisherTilokratna Sthanakwasi Jain Dharmik Pariksha Board Ahmednagar
Publication Year1964
Total Pages235
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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