________________
तृतीय भाग)
-
मैत्री-भाव जगत में मेरा, सब जीवो से नित्य रहे। दीन-दुखी जीवो पर मेरे, उरसे करुणा-स्रोत बहे ।। दुर्जन-क्रूर कुमार्गरतो पर, क्षोभ नही मुझको आवे। 'साम्यभाव रक्खू में उन पर, ऐसी परिणति हो जावे ॥ ५॥ गुणी-जनो को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड आवे । बने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे ॥ होऊ नही कृतघ्नं कभी मैं द्रोह न मेरे 'उर आवे । 'गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषो पर जावे ॥६॥ कोई बुरा कही या अच्छा, लक्ष्मी आवे' या जावे'। लाखो वर्षों तक जीऊ या, मृत्यु आज ही आ जावे ॥ अथवा कोई कैसा ही भय, या लालच देने आवे । तो भी न्याय मार्ग से मेरा, कभी न पद डिगने पावे ॥७॥ होकर सुख में मग्न न फूले, दुख मे कभी न घबरावे । पर्वत-नदी स्मशान-भयानक, अटवी से,नेही भय खावे ॥ रहे अडोल-अकम्प निरन्तर, यह मन दृढतर बन जावे । इष्ट-वियोग अनिष्ट-योग में, सहन शीलता दिखलावे ॥८॥ सुखी रहें सब जीव जगत् के, कोई कभी न घबरावे। वर-पाप अभिमान छोड जग, नित्य नये मगल गावे ॥ घर-घर चर्चा रहे धर्म की दुष्कृत दुष्कर हो जावे। ज्ञान चरित उन्नत कर अपना, मनुज जन्म फल सब पावे ॥९॥