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(जैन पाठावली
देखकर राजा ने अपनी यानशाला में पधराने की प्रार्थना की। पांच सौ शिष्य के साथ गुरु गैलकऋषि यानशाला में पधारे । मंडूक राजा ने वैद्यो और औषधियो का सुन्दर प्रवन्ध किया।
बीमारी का ठीक-ठीक निदान हुआ और औषध भी लागू हो गई । उन्हें खुराक भी अनुकूल मिलने लगी। थोडे दिनो में शैलक ऋपि का शरीर नीरोग हो गया। तब शिष्यो ने गुरुजी से विहार करने की प्रार्थना की। पर खुराक अच्छी मिलने के कारण शैलकऋषि का सयम शिथिल हो गया था। शिष्य इस बात को समझ गये। उन्होने सोचा-'गुरुजी ससार त्याग कर त्यागी बने है, लेकिन अब फिर फिसल रहे है । तन्दुरुस्त साधु को विना कारण एक ही जगह नहीं रहना चाहिए'। यह सोचकर शिप्यों ने विहार करने की उनसे आज्ञा मांगी और सवने विहार कर दिया। सिर्फ अकेले पथकमुनि गुरु की सेवा में रह गये। पथकजी ने दूसरे सब विचार छोड कर एक मात्र गुरु की सेवा मे ही मन लगाया।
इस तरह कई महीने बीत गये। शैलकपि अव भी विहार करने का विचार नहीं करते। वे वढिया खाते हैं, पीते है और ऊघते रहते है । लेकिन पथकमुनि ऐसे गुरु की भी खूब भक्ति के साथ सेवा करते है। धन्य है ऐसे शिष्य और उनका धैर्य !
आज कार्तिक की पूर्णिमा का दिन है। पथकजी ने आज उपवास किया है। सध्या हुई और वे प्रतिक्रमण कर रहे हैं ।