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तृतीय भाग)
(२१५ गुरुजी ने न उपवास किया है, न प्रतिक्रमण ही। वे नरम विस्तर बिछा कर पौढ़े हुए हैं ।
पंथकजी ने चौमासी प्रतिक्रमण किया। चार महिनो में अनजान में या जान-बुझकर हुए दोषो के लिए पश्चात्ताप किया। अपने अपराधो की क्षमा मांगने के लिए गुरुजी के चरणो मे मस्तक नमाया। इससे गुरुजी के आराम मे वाधा पडी। उन्हे क्रोध आ गया । वोले- कौन है यह?'
पथकजी ने मधुर और धीमे स्वर मे कहा-'भगवन् । मै हूँ, आपका सेवक पथक । चातुर्मास समाप्त हो गया है । इसलिए मै क्षमा मांगने के लिए आपके पास आया हूँ और आपके चरणो में प्रणाम करने आया हूँ। आपकी निद्रा मे बाधा पड गई। इस अपराध के लिए भी क्षमा दीजिए गुरुदेव ।'
इतनी नम्रता दिखलाने पर भी गुरुजी का क्रोध शान्त नही हुआ। निद्रा में विघ्न डालने के कारण उन्होने पथकजी को अनेक अपशब्द कहे। मगर पथ कजी ने धीरज रखकर, मीठे शब्दो से उन्हे मनाने की कोशिश की।
पथकजी की नम्रता अद्भुत थी। उनकी नम्रता के आगे पत्थर भी पीघल सकता था।
पथकजी को नम्रता और वचनो की मिठास से शैलकऋषि सचेत हुए। यह सोचकर कि, चौमासि प्रतिक्रमण के 'समय भी मै उंघता ही रहा, शैलकमुनि को पछतावा हुआ। वह सोजने लगे-मेरे शिष्य पथक को धन्य है, जिसने मुझे